काव्य-प्रयोजन से अभिप्राय है – काव्य रचना के पश्चात् उससे प्राप्त फल, जो कि दो प्रकार के व्यक्तियों को मिलता है-
1. कवि को
2. सहृदय को अर्थात् मुक्तक काव्य, महाकाव्य, गद्यकाव्य आदि के पाठक तथा नाटक के प्रेक्षक को।
(क) संस्कृत के प्रख्यात काव्यशास्त्रियों के अनुसार काव्य प्रयोजन:-
भरत के अनुसार काव्य प्रयोजन – नाट्य (काव्य) धर्म, यश और आयु का साधक, हितकारक, बुद्धि का वर्धक तथा लोकोपदेशक होता है। (नाट्यशास्त्र)
भामह के अनुसार काव्य प्रयोजन – उत्तम काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थों को तथा समस्त कलाओं में निपुणता को, और प्रीति (आनन्द) तथा कीर्ति को उत्पन्न करती है। (काव्यलंकार 1-2)
भामह के पश्चात् प्रायः सभी आचार्यों के सम्मुख इस दिशा में संभवतः उक्त दोनों आचार्यों का आदर्श रहा –
वामन और भोजराज के अनुसार काव्य प्रयोजन – कीर्ति और प्रीति।
(काव्यालंकारसूत्रवृत्ति्ां 1-24 तथा सरस्वतीकण्ठाभरण 1-12)
रुद्रट के अनुसार काव्य प्रयोजन – उक्त पुरुषार्थ-चतुष्य के अतिरिक्त अनर्थ पर उपशम, विपत्ति का निवारण, रोग से विमुक्ति तथा अभिमत वर की प्राप्ति।(काव्यालंकार 1-8,9)
कुन्तक के अनुसार काव्य प्रयोजन – चारों पुरुषार्थों के अतिरिक्त व्यवहार के औचित्य का ज्ञान, हृदय का आह्लाद अथवा अन्तश्चमत्कार। (वक्रोक्तिजीवित 1-34)
अग्निपुराणकार के अनुसार काव्य प्रयोजन – मोक्ष को छोड़कर शेष तीन पुरुषार्थ । (धर्म, अर्थ और काम) (अग्निपुराण 338-7)
मम्मट के अनुसार काव्य प्रयोजन – इस प्रकार अब मम्मट के सम्मुख काव्य-प्रयोजनों की उक्त सूची प्रस्तुत थी, जिसे उन्होंने निम्नोक्त रूप में ढाल दिया-
काव्यं यशसे{र्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः प्रनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।। (काव्यप्रकाश 1-2)
अर्थात् काव्यप्रयोजन है –
- यश की प्राप्ति
- धन की प्राप्ति
- व्यवहार का ज्ञान
- शिवेतर (रोग) का नाश
- तुरन्त परम आनन्द (रसास्वाद) की प्राप्ति
- कान्ता-सम्मित उपदेश
(ख) पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों के अनुसार काव्य-प्रयोजन
रस्किन के अनुसार काव्य-प्रयोजन – काव्य का ध्येय है अधिक से अधिक जनसमुदाय की अधिक से अधिक हित-साधना।
लोंजाइनस के अनुसार काव्य-प्रयोजन – काव्य का एकमात्र लक्ष्य है – पाठक को मात्र आनन्द प्रदान करना उसे बस उल्लसित कर देना।
कालरिज के अनुसार काव्य-प्रयोजन – कवि अपने पाठक को नीति का उपदेश देता है, पर इस उद्देश्य का प्राथमिक माध्यम है – आनन्द।
वर्डस्वर्थ के अनुसार काव्य-प्रयोजन – काव्य जीवन का प्रतिबिम्ब है जो कि इसके नित्य सत्य में अभिव्यक्त रहता है।
विवेचन
उक्त भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों द्वारा दिए गये मतों को जानने के पश्चात् मम्मट के द्वारा दिये गये छः लक्षणों प्र विचार किया जा सकता है –
मम्मट ने उक्त छः काव्य-प्रयोजनों में से सद्यः परनिर्वृति अर्थात् काव्य-पठन अथवा नाटक प्रेक्षण के साथ ही साथ तुरन्त परम आस्वाद की प्राप्ति को काव्य का सर्वप्रथम प्रयोजन माना है –
सकल-प्रयोजन-मौलिभूतं समनन्तरमेव रसास्वादनसमुद्रभूतं विगलितवेद्यान्तरमानन्दम्। (काव्यप्रकाश 1-2 वृत्ति)
इस सम्बन्ध में एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि इन प्रयोजनों में से किन का अधिकारी कवि है और किनका सहृदय। स्पष्ट है कि यश, धन और रोग-नाश का सीधा सम्बंध कवि के साथ है और व्यवहार-ज्ञान तथा कान्ता-सम्मित उपदेश का सीधा संबंध सहृदय के साथ। किन्तु काव्यों के अध्ययन द्वारा कोई सहृदय यश और अर्थ भी प्राप्त कर सकता है और स्वनिर्मित ग्रंथों के द्वारा कोई कवि स्वयं व्यवहार-ज्ञान अथवा उपदेश ग्रहण करते रहते हैं – अतः सहृदय और कवि भी क्रमशः उक्त प्रयोजनों के अधिकारी उपचार द्वारा माने जा सकते हैं। रोग-नाश नाम प्रयोजन का उदाहरण यह दिया जाता है कि सूर्य की स्तुति करने से मयूर कवि को कुष्ठरोग से तथा ‘हनुमान-बाहुक’ की रचना से तुलसीदास को बाहुपीड़ा-रोग से छुटकारा मिल गया।
शेष बचा एक प्रयोजन – रसास्वाद प्राप्ति। मम्मट के टीकाकारों के अनुसार सहृदय ही इसका भोक्ता है। कवि को भी यदि अपने काव्य से रसास्वाद-प्राप्ति होगी तो उसे तत्क्षण के लिए सहृदय ही मानना होगा –
रसास्वादन-काले कवेरपि सहृदयान्तः पातित्वात्।(काव्यप्रकाश 1-2, बालबोधिनी टीका)
कवि अपने काव्य द्वारा रसास्वाद करता है – इस समस्या के दो पक्ष है –
1- क्या कवि काव्य-रचना के समय रसास्वाद प्राप्त करता है?
2- क्या कवि काव्य-रचना के पश्चात् कभी उससे रसास्वाद प्राप्त करता है?
इन दोनो प्रश्नों का संक्षेप में उत्तर है – हाँ। इसका विवेचन निम्न है –
1- वाल्मीकि ने क्रौञ्च-मिथुन में से एक के वध को देखकर शोक का अनुभव किया – यहाँ तक वे सामान्य व्यक्ति है, किंतु उक्त घटना के
‘मा निषाद् प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकम् वधीः काममोिहितम्।।
इस श्लोक रूप में परिणत होते समय कवि-रूप में वह वस्तुतः उस लौकिक घटना से ऊपर उठ चुके हैं। उनका यह शोक व्यक्तिनिष्ठ न रहकर समष्टिनिष्ठ बन जाता है, अर्थात् घटना क्रौञ्च पक्षी की न रहकर किसी भी वियुक्त प्राणी की बन जाती है। व्यक्ति-निष्ठता से रहित यह समग्र घटना कवि को रसास्वाद की प्राप्ति कराती रहती है। हाँ, रचना करते समय जिन क्षणों में से किसी प्रकार का चिन्तन काव्य रचना में बाधा उपस्थित करता है तो उन क्षणों में रसास्वाद की शृंखला टूट जाती है। वस्तुतः, ठीक यही स्थिति किसी सहृदय की भी होती है। किसी रचना को पढ़ते समय अथवा नाट्यगृह में नाटक अभिनीत होता देखते समय जब उसे किसी विषय पर कुछ विचार करना पड़ता है, तो उसे रसास्वाद में बाधा पहुँचती है।
2- अपनी रचना को पढ़ते समय भी कवि रसास्वाद प्राप्त करता है। यद्यपि रचना में कवि का स्वत्व विद्यमान रहता है, किन्तु तल्लीनता के क्षणों में जब वह अपने स्वत्व को भूल जाता है, तभी उसे रसास्वाद-प्राप्ति होने लगती है। हाँ, जिन क्षणों में वह इसे किसी कारणवश नहीं भूल पाता तो वे क्षण उसकी रसास्वाद प्राप्ति में बाधक होते हैं, यद्यपि यह शृंखला तुरन्त जुड़ जाती है।
निष्कर्ष
1- काव्य-प्रयोजन कहते हैं काव्य द्वारा प्राप्त फल को। काव्यहेतु काव्य-रचना का कारण है – वह पूर्ववर्ती होता है, किन्तु प्रयोजन काव्य रचना के पश्चात् फल की उपलब्धि है। यही इन दोनों में अंतर है।
2- मम्मट सम्मत छः काव्य-प्रयोजनों में से ‘सद्यः परिनिर्वृति’ सर्वोत्कृष्ट प्रयोजन है और उसके पश्चात् ‘कान्ता-सम्मित उपदेश’ का स्थान है।
3- ‘दुःख का नाश’ अर्थात् रोग से विमुक्ति काव्य का यह प्रयोजन मनोविज्ञान के इस आधार पर मान्य है कि कवि रचना करते समय ओर सहृदय रचना का पाठन करते समय या नाटक का प्रेक्षण करते समय, अपने दुःख-दर्द को भूल जाते हैं। शेष काव्य-प्रयोजनों को संबंध कवि और सहृदय दोनों के साथ साक्षात् रूप से अथवा प्रकारान्तर से है।