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भाषा और लिपि

भाषा  भाषा मनुष्यों के बीच परस्पर संप्रेषण का एक माध्यम है। सरल शब्दों में कहें तो ‘‘जिस साधन के द्वारा मनुष्य अपने विचारों और भावों को लिखकर या बोलकर प्रकट करता है, उसे भाषा कहते हैं। भाषा ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है, इस व्यवस्था में विभिन्न ध्वनियाँ मिलकर अर्थवान शब्द बनाती है, और ये शब्द विभिन्न वस्तुओं के वाचक होते है। भाषा के दो रूप होते हैं – मौखिक भाषा और लिखित भाषा। भाषा का मूल रूप मौखिक ही है क्योंकि लिखने की अपेक्षा बोलना एक आरंभिक चरण है।

लिपि मौखिक भाषा को स्थाई रूप देने के लिए भाषा के लिखित रूप का विकास हुआ। मौखिक ध्वनियों को लिखित रूप में प्रकट करने के लिए निर्धारित किए एक चिह्नों को लिपि करते है।

भारत की प्रमुख भाषाएँ एवं लिपियाँ
भाषा लिपि राज्य/क्षेत्र
संस्कृत ब्राह्मी, देवनागरी
हिन्दी ब्राह्मी, देवनागरी उत्तरी भारत
मराठी देवनागरी महाराष्ट्र
नेपाली देवनागरी सिक्किम, प0बंगाल
पालि ब्राह्मी
पंजाबी गुरुमुखी पंजाब
तमिल तमिल तमिलनाडु
गुजराती गुजराती
बांगला बंगाली पश्चिम बंगाल
कन्नड़ कन्नड़ कर्नाटक
उड़िया उड़िया उड़ीसा
सिंधी अरबी, सिंधी उत्तर-पश्चिमी भारत
उर्दू अरबी-फारसी भारत-पाकिस्तान
तेलुगु तेलुगु आंध्र प्रदेश
बोड़ो उत्तर-पूर्वी भारत
डोगरी डोगरे जम्मू कश्मीर
मैथिली कैथी, देवनागरी उत्तरी बिहार
संथाली झारखंड, असम, बिहार
कश्मीरी शारदा, देवनागरी कश्मीर
कोंकणी देवनागरी, कन्नड़ गोवा, महाराष्ट्र
मलयालम शलाका, मलयालम केरल, लक्षद्वीप
मणिपुरी मेइतेई माएक मणिपुर

 

हिन्दी में लिपि चिह्न

देवनागरी के वर्णो में ग्यारह स्वर और इकतालीस व्यंजन हैं। व्यंजन के साथ स्वर का संयोग होने पर स्वर का जो रूप होता है, उसे मात्रा कहते हैं; जैसे-

अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ
क का कि की कु कू के कै को कौ

देवनागरी लिपि

देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। ‘हिन्दी’ और ‘संस्कृत’ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। ‘देवनागरी’ लिपि का विकास ‘ब्राही लिपि’ से हुआ, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग 7वीं-8वीं सदी में गुजरात नरेश जयभट्ट के एक शिलालेख में मिलता है। 8वीं एवं 9वीं सदी में क्रमशः राष्ट्रकूट नरेशों तथा बड़ौदा के ध्रुवराज ने अपने देशों में इसका प्रयोग किया था। महाराष्ट्र में इसे ‘बालबोध’ के नाम से संबोधित किया गया।

विद्वानों का मानना है कि प्राचीनतम लिपि ब्राह्मी से देवनागरी का विकास सीधे-सीधे नहीं हुआ है, बल्कि यह उत्तर शैली की कुटिल, शारदा और प्राचीन देवनागरी के रूप में होता हुआ वर्तमान देवनागरी लिपि तक पहुँचा है। प्राचीन नागरी के दो रूप विकसित हुए- पश्चिमी तथा पूर्वी। इन दोनों रूपों से विभिन्न लिपियों का विकास इस प्रकार हुआ-

प्राचीन देवनागरी लिपि:

पश्चिमी प्राचीन देवनागरी- गुजराती, महाजनी, राजस्थानी, महाराष्ट्री, नागरी
पूर्वी प्राचीन देवनागरी- कैथी, मैथिली, नेवारी, उड़िया, बँगला, असमिया

संक्षेप में ब्राह्मी लिपि से वर्तमान देवनागरी लिपि तक के विकासक्रम को निम्नलिखित आरेख से समझा जा सकता है-

ब्राह्मी लिपि की उत्तरी शैली- गुप्त लिपि, कुटिल लिपि, शारदा लिपि, प्राचीन नागरी लिपि। प्राचीन नागरी लिपि का विस्तार पूर्वी नागरी और पश्चिमी नागरी के रूप में हुआ।

पूर्वी नागरी- मैथली, कैथी, नेवारी, बँगला, असमिया आदि।
पश्चिमी नागरी- गुजराती, राजस्थानी, महाराष्ट्री, महाजनी, नागरी या देवनागरी।

ब्राह्मी लिपि की दक्षिणी शैली- क्षिण में देवनागरी लिपि पर तीन भाषाओं का बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।

(i) फारसी प्रभाव : पहले देवनागरी लिपि में जिह्वामूलीय ध्वनियों को अंकित करने के चिह्न नहीं थे, जो बाद में फारसी से प्रभावित होकर विकसित हुए- क. ख. ग. ज. फ।

(ii) बांग्ला-प्रभाव : गोल-गोल लिखने की परम्परा बांग्ला लिपि के प्रभाव के कारण शुरू हुई।

(iii) रोमन-प्रभाव : इससे प्रभावित हो विभिन्न विराम-चिह्नों, जैसे- अल्प विराम, अर्द्ध विराम, प्रश्नसूचक चिह्न, विस्मयसूचक चिह्न, उद्धरण चिह्न एवं पूर्ण विराम में ‘खड़ी पाई’ की जगह ‘बिन्दु’ (Point) का प्रयोग होने लगा।

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ

(1) आ (ा), ई (ी), ओ (ो) और औ (ौ) की मात्राएँ व्यंजन के बाद जोड़ी जाती हैं (जैसे- का, की, को, कौ); इ (ि) की मात्रा व्यंजन के पहले, ए (े) और ऐ (ै) की मात्राएँ व्यंजन के ऊपर तथा उ (ु), ऊ (ू),
ऋ (ृ) मात्राएँ नीचे लगायी जाती हैं।

(2) ‘र’ व्यंजन में ‘उ’ और ‘ऊ’ मात्राएँ अन्य व्यंजनों की तरह न लगायी जाकर इस तरह लगायी जाती हैं-
र् +उ =रु । र् +ऊ =रू ।

(3)अनुस्वार (ां) और विसर्ग (:) क्रमशः स्वर के ऊपर या बाद में जोड़े जाते हैं;
जैसे- अ+ां =अं। क्+अं =कं। अ+:=अः। क्+अः=कः।

(4) स्वरों की मात्राओं तथा अनुस्वार एवं विसर्गसहित एक व्यंजन वर्ण में बारह रूप होते हैं। इन्हें परम्परा के अनुस्वार ‘बारहखड़ी’ कहते हैं।
जैसे- क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः।
व्यंजन दो तरह से लिखे जाते हैं- खड़ी पाई के साथ और बिना खड़ी पाई के।

(5) ङ छ ट ठ ड ढ द र बिना खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं और शेष व्यंजन (जैसे- क, ख, ग, घ, च इत्यादि) खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं। सामान्यतः सभी वर्णो के सिरे पर एक-एक आड़ी रेखा रहती है, जो ध, झ और भ में कुछ तोड़ दी गयी है।

(6) जब दो या दो से अधिक व्यंजनों के बीच कोई स्वर नहीं रहता, तब दोनों के मेल से संयुक्त व्यंजन बन जाते हैं।
जैसे- क्+त् =क्त । त्+य् =त्य । क्+ल् =क्ल ।

(7) जब एक व्यंजन अपने समान अन्य व्यंजन से मिलता है, तब उसे ‘द्वित्व व्यंजन’ कहते हैं।
जैसे- क्क (चक्का), त्त (पत्ता), त्र (गत्रा), म्म (सम्मान) आदि।

(8) वर्गों की अंतिम ध्वनियाँ नासिक्य हैं।

(9) ह्रस्व एवं दीर्घ में स्वर बँटे हैं।

(10) उच्चारण एवं प्रयोग में समानता है।

(11) प्रत्येक वर्ग में अघोष फिर सघोष वर्ण हैं।

(12) छपाई एवं लिखाई दोनों समान हैं।

(13) निश्चित मात्राएँ हैं।

(14) प्रत्येक के लिए अलग लिपि चिह्न है।

(15) इसके ध्वनिक्रम पूर्णतया वैज्ञानिक हैं।

(16) देवनागरी लिपि प्रकृति में वर्णात्मक है।

विश्व की प्रमुख भाषाएँ एवं लिपियाँ
भाषा लिपियाँ देश/क्षेत्र
चीनी चीनी लिपि चीन
अंग्रेजी रोमन अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया
हिन्दी देवनागरी भारत
स्पेनिश लैटिन स्पेन, अर्जेंटीना, चिली, पनामा आदि
रूसी सिरिलिक रूस
अरबी अरबी सऊदी अरब, कुवैत, यूएई आदि
बंगाली पूर्वी नागरी बांग्लादेश, भारत
पुर्तगीज रोमन पुर्तगाल, ब्राज़ील आदि
मलय रोमन मलेशिया, सिंगापुर आदि
फ्रेंच लातिन फ्रांस, कनाडा, बेल्जियम आदि

 

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