व्याकरण » वर्ण और वर्णमाला

वर्ण

वर्ण लिखित भाषा की लघुतम इकाई है। ध्वनि मौखिक भाषा की लघुतम इकाई है। इसे स्वनिम भी कहा गया है। हिदी भाषा में कुल 44 वर्ण हैं जिन्हें दो भागों में बॉंटा गया है- 1. स्वर  2. व्यंजन

स्वर

जिन वर्णाें का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता है स्वर कहलाते हैं। स्वरों की संख्या 11 है, जो इस प्रकार है-    अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।

उच्चारण स्थान के आधार पर स्वर

कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले स्वर- अ, आ
तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले स्वर- इ, ई
ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले स्वर- उ, ऊ
कण्ठतालव्य- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जाने वाले स्वर- ए, ऐ।
कण्ठोष्ठय- कण्ठ द्वारा जीभ और ओठों के कुछ स्पर्श से बोले जानेवाले स्वर- ओ और औ।

उच्चारण-समय के आधार पर स्वर

ह्रस्व स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में अपेक्षाकृत कम समय लगता है। जैसे – अ, इ, उ, ऋ

दीर्घ स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में स्वरों की अपेक्षा अधिक  समय लगता है। जैसे – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

प्लुत स्वर 

जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों की अपेक्षा अधिक  समय लगता है। जैसे – ओऽम्, राऽऽम।

नाद या घोष के आधार पर स्वर

घोष स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियाँ झंकृत होती हैं, वे घोष कहलाते हैं। सभी स्वर घोष हैं।

अघोष स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियाँ झंकृत नहीं होती हैं, वे अघोष कहलाते हैं। अघोष कोई स्वर नहीं है।

ओष्ठ-आकृति के आधार पर स्वर

वृत्ताकार स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में ओष्ठ वृत्ताकार रहते हैं। जैसे उ, ऊ, ओ, औ (ऑ)।

अवृत्ताकार स्वर

जिन स्वरों के उच्चारण में ओष्ठ वृत्ताकार न होकर फैले रहते हैं। जैसे अ, आ, इ, ई, ए, ऐ।

यदि ऐ स्वर के पश्चात ‘आ’ या ‘वा’ का प्रयोग हो तो इसका उच्चारण अइ होता है। औ के पश्चात् आ या वा का प्रयोग होने पर उच्चारण अउ हो जाता है। जैसे भैया, तैयार, कौआ, पौवा आदि

जीभ-स्पर्श के अनुसार स्वर

अग्र स्वर – इ, ई, ए, ऐ

मध्य स्वर –

पश्च स्वर – आ, उ, ऊ, ओ, औ

व्यंजन

जिन वर्णाें का उच्चारण स्वरों की सहायता से होता है, व्यंजन कहलाते हैं। व्यंजनों की संख्या 33 हैं। जिनमें 25 स्पर्श, 4 अंतस्थ और 4 ऊष्म व्यंजन हैं।

स्पर्श (कवर्ग ) : क , ख , ग , घ , ङ ङ्
स्पर्श (चवर्ग) : च , छ , ज , झ , ञ
स्पर्श (टवर्ग) : ट , ठ , ड , ढ , ण ( ड़ ढ़ )
स्पर्श (तवर्ग) : त , थ , द , ध , न
स्पर्श (पवर्ग) : प , फ , ब , भ , म
अंतस्थ य , र , ल , व (य और व को अर्धस्वर भी कहा जाता है)
उष्म : श , ष , स , ह

बिना स्वर के व्यंजन

स्पर्श (कवर्ग ) : क्, ख्, ग्, घ्, ङ्
स्पर्श (चवर्ग) : च्, छ्, ज्, झ्, ञ्
स्पर्श (टवर्ग) : ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्
स्पर्श (तवर्ग) : त्, थ्, द्, ध्, न्
स्पर्श (पवर्ग) : प्, फ्, ब्, भ्, म्
अंतस्थ : य्, र्, ल्, व् 
उष्म : श्, ष्, स्, ह्


उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजन

कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- कवर्ग, ह और विसर्ग।
तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- चवर्ग, य और श।
मूर्द्धन्य- मूर्द्धा और जीभ के स्पर्शवाले वर्ण- टवर्ग ष।
दन्त्य- दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- तवर्ग।
ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- पवर्ग।
वर्त्स्य – ज़, स, र, ल
दन्तोष्ठय- दाँत से जीभ और ओठों के कुछ योग से बोला जानेवाला वर्ण- व।
नासिक्य- ङ, ञ, ण, न, म।
अलीजिह्न- ह।

प्राण की मात्रा के आधार पर व्यंजन

प्राण का अर्थ है वायु। व्यंजनों का उच्चारण करते समय बाहर आने वाली श्वास-वायु की मात्रा के आधार पर व्यंजनों के दो भेद हैं- (1) अल्पप्राण (2) महाप्राण

अल्पप्राण व्यंजन:- जिन व्यंजनों के उच्चारण में वायु की सामान्य मात्रा रहती है और हकार जैसी ध्वनि बहुत ही कम होती है। जिन व्यंजनों के उच्चारण से मुख से कम हवा निकलती है, वे अल्प प्राण कहलाते हैं

प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं। जैसे- क, ग, ङ; च, ज, ञ; ट, ड, ण; त, द, न; प, ब, म।

अन्तःस्थ (य, र, ल, व ) भी अल्पप्राण ही हैं।

महाप्राण व्यंजन :-जिन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास-वायु अल्पप्राण की तुलना में कुछ अधिक निकलती है, वे महाप्राण कहलाते हैं।

प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण हैं। जैसे- ख, घ; छ, झ; ठ, ढ; थ, ध; फ, भ और श, ष, स, ह।

नाद या घोष के आधार पर व्यंजन

घोष का अर्थ है नाद या गूँज। व्यंजनों के उच्चारण में होने वाली ध्वनि की गूँज के आधार पर वर्णों के दो भेद हैं- घोष और अघोष।

घोष या सघोष व्यंजन:- नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियाँ झंकृत होती हैं। जिन वर्णों के उच्चारण में गले के कम्पन से गूँज-सी होती है, उन्हें घोष या सघोष कहते हैं।

जैसे-

वर्गों के अंतिम तीन वर्ण :- ग, घ, ङ, ज, झ, ञ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म

अंतस्थ व्यंजन :- य, र, ल, व

ऊष्म व्यजन :- ह

अघोष व्यंजन:- नाद की दृष्टि से जिन व्यंजन वर्णों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियाँ झंकृत नहीं होती हैं, जिन वर्णों के उच्चारण में गले में कम्पन नहीं होता, उन्हें अघोष कहते हैं।

जैसे-

वर्गों के पहले दो वर्ण :- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ

ऊष्म व्यजन :- श, ष, स

प्रयत्न के आधार पर व्यंजन

(i) स्पर्शी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में फेफ़ड़ों से आई वायु किसी अवयव को स्पर्श करके निकले, उन्हें स्पर्शी कहते हैं। क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ स्पर्शी व्यंजन हैं।

(ii) संघर्षी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में वायु संघर्षपूर्वक निकले, उन्हें संघर्षी कहते हैं। श, ष, स, ह आदि व्यंजन संघर्षी हैं।

(iii) स्पर्श-संघर्षी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्पर्श का समय अपेक्षाकृत अधिक होता है और उच्चारण के बाद वाला भाग संघर्षी हो जाता है, वे स्पर्श संघर्षी कहलाते हैं। च, छ, ज, झ स्पर्श-संघर्षी व्यंजन हैं।

(iv) नासिक्य : जिन व्यंजनों के उच्चारण में वायु मुख्यतः नाक से निकले, उन्हें नासिक्य कहते हैं। ङ, ञ, ण, न, म व्यंजन नासिक्य हैं।

(v) पार्श्विक : जिन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ तालु को छुए किन्तु पार्श्व (बगल) में से हवा निकल जाए, उन्हें पार्श्विक व्यंजन कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिनके उच्चारण में जिह्वा का अगला भाग मसूड़े को छूता है और वायु पाश्र्व आस पास से निकल जाती है, वे पार्श्विक कहलाते हैं। हिन्दी में केवल ‘ल’ व्यंजन पार्श्विक है।

(vi) प्रकंपी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा को दो तीन बार कंपन करना पड़ता है, वे प्रकंपी कहलाते हैं। हिन्दी में ‘ऱ’ व्यंजन प्रकंपी है।

(vii) उत्क्षिप्त : जिन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ के अगले भाग को थोड़ा ऊपर उठाकर झटके से नीचे फेंकते हैं, उन्हें उत्क्षिप्त व्यंजन कहते हैं। जैसे – ड़ और ढ़। ड़ ढ़ का प्रयोग शब्द के प्रारंभ में नहीं होता बल्कि मध्य व अंत में इनका प्रयोग किया जाता है जैसे बड़ा, लड़का, बुढ़िया, बढ़ इत्यादि। लेकिन अनुस्वार के साथ आने पर यह प्रयुक्त नहीं होते जैसे – अण्डा, भिण्डी आदि।

(viii) संघर्षहीन या अर्ध-स्वर : जिन ध्वनियों के उच्चारण में हवा बिना किसी संघर्ष के बाहर निकल जाती है वे संघर्षहीन ध्वनियाँ कहलाती हैं। य, व व्यंजन संघर्षहीन या अर्ध-स्वर हैं।

अयोगवाह

हिंदी वर्णमाला में ऐसे वर्ण जिनकी गणना न तो स्वरों में और न ही व्यंजनों में की जाती हैं। उन्हें अयोगवाह कहते हैं।

अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है। अयोगवाह चार प्रकार के होते हैं- अनुनासिक (ँ), अनुस्वार (ं), विसर्ग (ः), निरनुनासिक।

(1) अनुनासिक (ँ)- जिस ध्वनि के उच्चारण में हवा नाक और मुख दोनों से निकलती है उसे अनुनासिक कहते हैं।

जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।

(2) अनुस्वार (ं)- जिस वर्ण के उच्चारण में हवा केवल नाक से निकलती है। उसे अनुस्वार कहते हैं।

जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।

(3) विसर्ग (ः)- जिस ध्वनि के उच्चारण में ‘ह’ की तरह होता है। उसे विसर्ग कहते हैं।

जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।

(4) निरनुनासिक- केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं।

जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।

अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ”ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ”इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को ‘अयोगवाह’ कहते हैं।” अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।

अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर

अनुनासिक के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे- आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि। पर अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक साँस निकलती है और मुख से कम, जैसे- अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि।

अनुनासिक स्वर की विशेषता है, अर्थात अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है। अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है; जैसे- अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत।

संयुक्त व्यंजन

जो व्यंजन दो या दो से अधिक व्यंजनों के मेल से बनते हैं, वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं। वर्णमाला में ऐसे व्यंजन वर्ण जो दो अक्षरों को मिलाकर बनाए गए है, वो संयुक्त व्यंजन कहलाते है। संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है। ये संख्या में चार हैं :

क्ष = क् + ष + अ = क्ष (रक्षक, भक्षक, क्षोभ, क्षय)

त्र = त् + र् + अ = त्र (पत्रिका, त्राण, सर्वत्र, त्रिकोण)

ज्ञ = ज् + ञ + अ = ज्ञ (सर्वज्ञ, ज्ञाता, विज्ञान, विज्ञापन)

श्र = श् + र् + अ = श्र (श्रीमती, श्रम, परिश्रम, श्रवण)

कुछ लोग ज् + ञ = ज्ञ का उच्चारण ‘ग्य’ करते हैं।

द्वित्व व्यंजन

जब शब्द में एक ही वर्ण दो बार मिलकर प्रयुक्त हो तब उसे द्वित्व व्यंजन कहते हैं। द्वित्व व्यंजन में भी पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है। जैसे- बिल्ली में ‘ल’ और पक्का में ‘क’ का द्वित्व प्रयोग है।

संयुक्ताक्षर

जब एक स्वर रहित व्यंजन अन्य स्वर सहित व्यंजन से मिलता है, तब वह संयुक्ताक्षर कहलाता हैं। यहाँ दो अलग-अलग व्यंजन मिलकर कोई नया व्यंजन नहीं बनाते। जैसे-

क् + त = क्त = संयुक्त
स् + थ = स्थ = स्थान
स् + व = स्व = स्वाद
द् + ध = द्ध = शुद्ध

ज़ व़ फ़ का प्रयोग

उर्दू व अरबी-फारसी के उन शब्दों में किया जाता है जिनके समान दिखने वाले शब्द हिंदी में भी हैं व उनके अर्थ भिन्न हैं। जैसे – राज-राज़, सजा-सज़ा, फल-फ़ल इत्यादि।

‘र’ के विभिन्न रूप तथा प्रयोग

1- स्वर रहित ‘र्’ को रेफ कहते हैं जो अगले वर्ण की शिरोरेखा पर खड़े अर्ध वृत्त ( र् ) के रूप में लिखा जाता है, जैसे अर्थ, लेकिन अगला व्यंजन भी स्वर रहित हो तो ‘र’ उसके अगले स्वर सहित व्यंजन पर लिखा जाता है, जैसे पार्श्व। उससे अगला व्यंजन भी यदि स्वर रहित हो तो ‘र’ उसके अगले स्वर सहित व्यंजन पर लिखा जाता है जैसे वत्र्स्य।

2- ‘र’ से पूर्व यदि स्वर रहित व्यंजन हो तो ‘र’ उसी व्यंजन के निचले हिस्से की खड़ी पाई में बाई ओर टेढ़ी रेखा के रूप में लिखा जाता है। जैसे – प् + र = प्र

3- जिन व्यंजनों का निचला हिस्सा गोलाई लिए होता है और वे स्वर रहित हों तो ‘र’ के लिए उसी व्यंजन के नीच (^) के चिह्न के का प्रयोग करते है। जैसे – ट्रक, ड्रम आदि।

4- स्वर रहित त् के बाद र आने पर त्र, श् के र आने पर श्र लिखा जाता है। स्वर रहित स के साथ र आने पर स्र लिखा जाता है। जैसे स्रोत, सहस्र, तमिस्र आदि।

 

वर्णमाला
अ आ इ ई उ ऊ ऋ

ए ऐ ओ औ अं अः

क , ख , ग , घ , ङ

च , छ , ज , झ , ञ (ज़)

ट , ठ , ड , ढ , ण ( ड़ ढ़ )

त , थ , द , ध , न

प , फ , ब , भ , म (फ़)

य , र , ल , व (व़)

श , ष , स , ह

हलंत

व्यंजनों के नीचे जब एक तिरछी रेखा ( ् ) लगाई जाय, तब उसे हलंत कहते हैं। कोई व्यंजन स्वर से रहित है, यह संकेतित करने के लिए उसके नीचे एक तिरछी रेखा ( ् ) खींच देते हैं। इसे हलंत कहते हैं। प्रायः इसका उपयोग उसी स्थिति में किया जाता है जब ऐसा वर्ण शब्द के अंत में आए। जैसे- अर्थात् । यों शब्द के बीच में प्रयुक्त वर्ण को भी हलंत किया जा सकता है। जैसे- ‘विद्या’ को ‘विद्‍या’ भी लिखा जा सकता हैं। ‘हलंत’ लगाने का अर्थ है कि व्यंजन में स्वरवर्ण का बिलकुल अभाव है या व्यंजन आधा हैं।

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