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भाषिक संरचना

भाषा यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की संरचनात्मक व्यवस्था है। अर्थात इस व्यवस्था की अपनी विशेष प्रकार की संरचना होती है। साथ ही इस व्यवस्था में केवल एक स्तर नहीं होता। इसमें कई स्तर होते हैं जैसे ध्वनि स्तर, रूप स्तर, वाक्य स्तर, अर्थ स्तर आदि। प्रत्येक स्तर पर भाषा की इकाइयाँ अलग अलग होती है। जैसे ध्वनि इकाई ध्वनि स्तर पर, वाक्य स्तर पर वाक्य इकाई या रूप स्तर पर रूप इकाई। यह ध्यान देने की बात है कि प्रत्येक स्तर की अपनी अलग संरचना होती है।

जैसे – राम ने श्याम को मारा तथा श्याम ने राम को मारा।

पहले में राम कर्ता है तो दूसरे में कर्म तथा पहले में श्याम कर्म है तो दूसरे में कर्ता। इस प्रकार राम और श्याम की दृष्टि से दोनों वाक्यों की आंतरिक संरचना अलग अलग है।

ध्वनि स्तर पर देखें – कलम और कमल दोनों ही में क्+अ, ल्+अ, म्+अ ध्वनियाँ हैं किंतु आंतरिक संरचना अलग अलग है।

भाषा मात्र शब्दों का समूह नहीं होता। वाक्यों में शब्द अनुशासित रूप से प्रयुक्त होते हैं। शब्द एक है – लड़का। वाक्य में प्रयोग – लड़का, लड़के, लड़कों

भाषिक संरचना की प्रकृति

(क)  रचना का संबंध इकाई के रूप के साथ रहता है ना की उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम या उपादान के साथ।

(ख) किसी भाषिक इकाई की संरचना उस इकाई के भीतर स्थित संबंधों की व्यवस्था है। उदाहरण – लिखना, खिलना शब्दों की ध्वनि व्यवस्था पर ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाता है कि इन दोनों में समान रूप से तीन अक्षर निहित हैं लेकिन ध्वनि संयोग के स्तर पर इनके बीच के संबंधों की व्यवस्था भिन्न होने के कारण यह दोनों ही भिन्न शब्द है।

(ग) संरचना बोधात्मक यथार्थ है ना कि अभिव्यक्तिपरक तथ्य।उदाहरण के लिए मोहन आम खाएगा इसका संरचनात्मक रूप होगा कर्ता + कर्म + सकर्मक क्रिया। इस संरचना के बोधात्मक यथार्थ के संदर्भ में मोहन आम खाएगा कथन मात्र अभिव्यक्तिपरक तथ्य समझा जाएगा क्योंकि ऐसे अन्य कई वाक्य संभव है जैसे राकेश लकड़ी काटेगा, मीरा खाना बनाएगी। ध्यान देने की बात यह है कि संरचना के बोधात्मक यथार्थ के धरातल पर ये सभी वाक्य समान है किंतु अभिव्यक्तिपरक सत्य के आधार पर ये वाक्य भिन्न-भिन्न माने जाएंगे।

(घ) संरचनात्मक इकाई का आधार उसके अंगों के बीच पाए जाने वाले संबंधों का प्रकार्य होता है। जैसे- 

  • मोहन घर आएगा।
  • पत्र घर आएगा। 

पहले वाक्य में संज्ञा (मोहन) सजीव करता है जोकि क्रिया का संपादन (आने का काम) स्वयं करने वाला है जबकि दूसरे वाक्य में संज्ञा (पत्र) निर्जीव है अतः आने की क्रिया का संपादन स्वयं नहीं करने वाला है। यह संरचनात्मक प्रकृति का ही अंतर है। हम यह कह सकते हैं कि मोहन जानबूझकर घर नहीं आया परंतु यह नहीं कह सकते कि पत्र जानबूझकर घर नहीं आया। 

(ङ) संरचना संबंधी नियम संख्या में सीमित और प्रकृति में सृजनात्मक होते हैं। हम रोज रोज नए-नए वाक्यों का प्रयोग करते हैं। यह  संभव नहीं है कि जितने वाक्य हम बोलें उतने ही नियमों को भी याद रखें। वस्तुतः संरचनात्मक नियम अपनी संख्या में सीमित होते हैं परंतु उनकी प्रकृति सृजनात्मक होती है।

भाषिक संरचना के विभिन्न स्तर

भाषिक संरचना के विभिन्न स्तर के संबंध में विद्वानों में मतभेद है किंतु फिर भी निम्न  पाँच स्तर सर्वमान्य है जिन्हें उपव्यवस्था भी कहते हैं। इनमें प्रथम तीन को केंद्रीय कहा जाता है तथा अंतिम दो को परिधीय कहा जाता है

(क) व्याकरणिक उपव्यवस्था – इसमें रूप तथा वाक्य आते हैं।

(ख) स्वनिमिक उपव्यवस्था – इसमें स्वनिम समूह और उनके वितरण की व्यवस्था आती है।

(ग) रूप स्वनिमिक उपव्यवस्था – इसके द्वारा पहली और दूसरी उप व्यवस्था के बीच संबंध स्थापित होता है।

(घ) आर्थी उपव्यवस्था – इसका संबंध अर्थ से है। यहाँ वाक्य आदि आसपास के भाषिक एवं संबद्ध भाषेतर संदर्भों से आते हैं।

(ङ) स्वनिक उपव्यवस्था – इसमें ध्वनियों अर्थात स्वनों का उच्चारण प्रसरण तथा श्रवण आता है।

व्याकरणिक उपव्यवस्था

इसमें रूप तथा वाक्य आते हैं। संकेतार्थ और अभिव्यक्ति के बीच के संबंधों का अध्ययन व्याकरण कहलाता है। परंपरा अनुमोदित व्याकरण में शब्द को भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई माना गया है।

(क) शब्द भाषा की सार्थक इकाई है। सार्थक से तात्पर्य केवल संकेतार्थ से नहीं होता। उदाहरण के लिए हम जाना के दो प्रयोग पर ध्यान देते हैं।

  1. लड़का बाजार जाएगा।
  2. लड़के से दौड़ा नहीं जाएगा।

पहले वाक्य में जाएगा ‘जाना’ का संकेतार्थ है। पर दूसरे वाक्य में ‘जाएगा’ का कोई कोशिय अर्थ नहीं बताया जा सकता। इसलिए प्रयोजन और प्रकार्य के आधार पर शब्दों के दो उपसर्ग है – कोशिय शब्द और व्याकरणिक शब्द। 

(ख)  शब्द भाषा की स्वतंत्र इकाई है। कुछ ध्वनि समूह अपने प्रकृति में सार्थक तो होते हैं लेकिन प्रयोग में स्वतंत्र या मुक्त नहीं होते अतः उन्हें शब्द नहीं कहा जा सकता। जैसे- दूधवाला का वाला।

शब्द भाषिक कोश की सार्थक, स्वतंत्र और लघुतम इकाई है लेकिन व्याकरण (शब्द अनुशासन) की दृष्टि से लघुतम परंतु स्वतंत्र एवं सार्थक इकाई पद है। शब्द अपना व्याकरणिक (अनुशासित) रूप धारण करके ही वाक्य मैं प्रयुक्त होता है। प्रयोग और प्रकार्य के आधार पर शब्द के कई शब्द रूप संभव है। जैसे- रोना के रूप रो, रोता, रोए, रोओ, रुलाया हो सकते हैं। 

व्याकरणिक संरचना और उसके स्तर भेद की दृष्टि से वाक्य और पद के अतिरिक्त भाषिक प्रतीकों के अन्य स्तर भी हैं

वाक्य : शब्द समूह के महत्तम इकाई जिसमें उद्देश्य और विधेय होते हैं। 

उपवाक्य : वाक्य समानार्थी शब्द समूह।

पदबंध : शब्द समानार्थी शब्द समूह।

पद : प्रयोगार्थ या चलित  शब्द।

रूपिम : शब्द की लघुतम सार्थक इकाई।

‘शब्द’ को ‘पद’ में रूपांतरित करने की प्रक्रिया को रूपविज्ञान कहा जा सकता है। ‘शब्द’ के ‘पद’ में रूपांतरण के समय शब्द में परिवर्तन संभव है। जैसे लड़का से लड़के।

  • लड़का बोला।
  • लड़के ने कहा।

ऐसे शब्द परिवर्तन को रूपसिद्धिपरक रूपविज्ञान कहते हैं। कभी-कभी एक शब्द से दूसरे शब्द बनाना संभव है। जैसे – जल से जलद। पंक से पंकज।

स्वनिमिक उपव्यवस्था

इसका संबंध भाषा के अभिव्यक्ति पक्ष के साथ है। किसी भाषा की सार्थक ध्वनियों की व्यवस्था का अध्ययन ही स्वनिम विज्ञान कहलाता है। किसी भाषा के स्वनिम अपने प्रकार्य में एक दूसरे के व्यतिरेकी (परिवर्तनशील) होते हैंं। जैसे – काल स्वनिमिक हाल में ‘क’ और  ‘ह’।

स्वनिम विज्ञान उस ध्वनि व्यवस्था का भी अध्ययन है जो स्वानिमों के परस्पर संबंध के आधार पर बनती है। हिंदी के स्पर्श स्वनिम अपने उच्चारण स्थान पर अघोष-सघोष तथा अल्पप्राण-महाप्राण के भेद के आधार पर चार सार्थक ध्वनियों की व्यवस्था को जन्म देती है। स्वनिम ध्वनियों के दो प्रकार देखे जा सकते हैं खंडय और खंडयेत्तर। 

रूपस्वनिमिक  उपव्यवस्था

रूपिम के सहरूपों के स्वनिमिक आकृति के अध्ययन क्षेत्र को रूप स्वनिमिक व्यवस्था कहा जाता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी के बहुवचन रूपिम पर ध्यान दें तो हम उसे और के रूप में व्यक्त पाते हैं।

  • ‘स’ सहरूप वहाँ दिखाई पड़ता है जहाँ वह अघोष स्पर्श के बाद प्रयुक्त होता है। जैसे cats।
  • ‘ज’ ध्वनि वहां प्रयुक्त होती है जहां शब्दांत में सघोष स्पर्श ध्वनि होती है जैसे dogs।

स्वनिम के धरातल पर यह दोनों ध्वनियाँ सार्थक इकाइयाँ हैं क्योंकि इनमें व्यतिरेक संभव है।  परंतु व्याकरण के धरातल पर ये एक ही प्रकार्य  को व्यंजित करती है। दोनों बहुवचन रूपिम को व्यक्त करने वाली ध्वनियाँ हैं इसलिए दोनों को एक ही रूपस्वनिमिक (s) के दो प्रति फलित रूप कहा जा सकता है।

 आर्थी उपव्यवस्था

अर्थ विज्ञान में भाषिक प्रतीक के अध्ययन का संदर्भ भाषेत्तर (बाह्य) जगत का उत्पादन होता है। अतः वह भाषिक प्रतीक और बाह्य वस्तुओं के संबंधों का अध्ययन करता है। भाषा द्वारा जो संप्रेष्य है उसे अर्थ क्षेत्र की वस्तु के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस दृष्टि से अर्थ के निम्नलिखित प्रकार देखे जा सकते हैं-

  • संकेतार्थ (विचारात्मक अर्थ) – उदाहरण के लिए जब हम ‘कमल’ ‘किताब’ आदि शब्द स्तर की भाषिक अभिव्यक्तियों पर ध्यान देते हैं तो विचार की स्वनिष्ठ इकाई के रूप में जो संकल्पना मन में उभरती है उसे हम संकेत आर्थ कहते हैंं।
  • संरचनार्थ (व्याकरणिक अर्थ)  – ‘जलज’ और ‘पंकज’ का संकेतार्थ कमल वस्तु की जातिय संकल्पना है। पंकज का अर्थ पंक से उत्पन्न हुआ है और जलज का अर्थ है जल से उत्पन्न।
  • प्रयोगार्थ (सामाजिक अर्थ) –  उदाहरण के लिए तू यह काम कर दे और आप यह काम कर दीजिए दोनों का संकेतार्थ तो एक ही है। परंतु पहले वाक्य में जहांँ श्रोता की अपेक्षा वक्ता के उच्च सामजिक द्योतित होती है वहीं दूसरे वाक्य में श्रोता की सामाजिक स्थिति उच्च है।
  •  सहप्रयोगार्थ – उदाहरण के लिए आंँख लगना मुहावरे के तीन भिन्न प्रयोग पर ध्यान दीजिए
      • किसी की आंख लगना यानी नींद आना।
      • किसी से आग लगना यानी प्रेम होना।
      • किसी पर आंख लगना यानी पाने की इच्छा होना या लालसा होना।
  • संपृक्तार्थ (लक्ष्यार्थ) – हम भाषा में ऐसे अर्थ की व्यंजना पाते हैं जिसका समाहार मूल अर्थ में नहीं हो सकताा। उदाहरण के लिए
      • ‘यह मोहन का घर है’
      • ‘सारा घर नाटक देखने गया है।’
      • शेर जंगल का राजा है।’
      • ‘लाला लाजपत राय भारत के शेर थे।’

स्वनिक उपव्यवस्था

ध्वनि विज्ञान वागेन्द्रिय द्वारा निःसृत ध्वनि प्रतीकों के अभिव्यक्ति माध्यम का अध्ययन है। इसमें वक्ता और श्रोता कोडीकरण – विकोडीकरण की क्रिया को करते हैं।

वक्ता श्रोता
कोडीकरण ध्वनि सम्प्रेषण ध्वनि श्रवण विकोडीकरण

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