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अलंकार (काव्य की शोभा बढ़ाने वाले)
(शब्दालंकार – अनुप्रास, यमक, श्लेष)
अनुप्रास अलंकार – जब एक ही व्यंजन की आवृति हो तब अनुप्रास अलंकार होता है।
- तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
- चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही थी जल-थल में।
- विमल वाणी ने वीणा ली।
- रघुपति राघव राजा राम।
- कालिका सी किलकि कलेऊ देती काल को।
- कल कानन कुंडल मोर पख उर पै बनमाल बिराजति है।
- कालिन्दी कूल कदम्ब की डारिन
- प्रतिभट कटक कटीले केते काटि-काटि।
- बरसत बारिंद बॅूंद गहि।
- चमक गई चपला चम-चम।
- मुदित महिपति मंदिर आए।
- सेवक सचिव सुमंत बलाएँ।
- कूकि-कूकि केकी-कलित कुंजन करत कलोल।
- रावनु रथी विरथ रघुवीरा।
- मधुर मधुर मेरे दीपक जल।
यमक अलंकार:- जब एक ही शब्द बार-बार आए लेकिन अर्थ भिन्न-भिन्न हों तब यमक अलकांर होता है।
- कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
- माला फेरत जुग भया मिटा न मनका फेर। कर का मनका डारि के मन का मनका फेर।
- तीन बेर खाती थी तीन बेर खाती हैं।
- कहे कवि बेनी बेनी व्याल की चुराई लीनी।
- काली घटा का घमंड घटा
- पक्षी परछीने पर परछीने बीर तेरी बरछी ने बर छीने खलन के।
- रती-रती सोभा सब रति के सरीर की।
- वह बॉंसुरी की धुनि कानि परे कुल कानि हियो तजि भाजति है।
- जगती जगती की भूख-प्यास।
श्लेष अलंकार:- श्लेष का अर्थ है चिपका हुआ। जब एक ही शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ निकलें तो श्लेष अलंकार होता है।
मंगन को देख पट देत बार-बार। | (यहॉं पट के दो अर्थ हैं वस्त्र और दरवाजा) |
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून।। |
(पानी के अर्थ हैं – चमक, जल, इज्जत। |
हे प्रभो! हमें दो जीवन दान। | (जीवन के अर्थ हैं – पानी, उम्र) |
विपुल धन अनेकों रत्न हो साथ लाए। प्रियतम बता दो लाल मेरा कहॉं है। |
(लाल के अर्थ हैं – पुत्र, रत्न) |
चिरजीवौ जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर। को घटि, ए वृषभानुजा वे हलधन के बीर। |
वृषभानु के अर्थ है – वृषभानु की पुत्री राधा, बैल की बहन गाय हलधर के अर्थ हैं – बलराम, बैल। |
मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोइ। जा तन की झॉंई प्रत स्याम हरित दुति होई। |
स्याम – सॉंवला, कृष्ण हरित – हरा रंग, हरे-भरे (प्रसन्न) |
या अनुरागी चित की गति समुझै नहीं कोई। ज्यों-ज्यों बूडे स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होई। |
यहॉं स्याम शब्द के दो अर्थ हैं- सॉंवला, श्याम) |
अर्थालंकार
(उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, मानवीकरण)
उत्प्रेक्षा अलंकार – जहॉं समानता के कारण उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाए। मानो, मनु, मनहु, जानो, जनु, जनहु इसके बोधक शब्द हैं।
- कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए। हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए।
- उस काल मारे क्रोध के तन कॉंपने उनका लगा। मानो हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा।
- सोहत ओढे़ पीत पट स्याम सलोने गातु, मनो नीलमणि शैल, पर आतप परयो प्रभात।
- सिर फट गया उसका वहीं मानो अरुण रंग का घड़ा।
- ले चला साथ में तुझे झनक, ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण कनक।
- पद्मावती सब सखी बुलाई मनु फुलवारी सबै जली आई।
- भोर का नभ, राख से लीपा हुआ चौका बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से कि जैसे धुल गई हो।
- कॉंपा कोमलता पर सस्वर ज्यों मालकोश नव वीणा पर।
- बहुत काली सिल, जरा से लाल केसर से, कि जैसे धूल गई हो।
उपमा अलंकार – जहॉं एक वस्तु या प्राणी की तुलना अत्यंत सादृश्य के कारण प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी से की जाए, वहॉं उपमा अलंकार होता है। इसमें प्रायः वाचक शब्द सा, सी, से, समान, सरिस, आदि देखने को मिलते हैं।
- हाय फूल-सी कोमल बच्ची हुई राख की थी ढेरी।
- यह देखिए, अरविंद-से शिशुवृंद कैसे सो रहे।
- नदियॉं जिनकी यशधारा सी बहती हैं अब भी निशि-वासर।
- मखमल के झूले पड़े हाथी-सा टीला।
- पीपर पात सरिस मन डोला।
- तब तो बहता समय शिला सा जम जाएगा।
- निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है।
- सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह।
- नभ मंडल छाया मरुस्थल-सा दल बॉंध के अंधड़ आवे चला।
- चॅंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनन्त।
- हॉं भ्रष्ट शील के से शतदल।
- मॉं सरीखी अभी जैसे मंदिरों में चढ़ाकर खुशरंग फूल।
- एहि सम विजय उपाय न दूजा।
- लघु तरणि हंसिनी सी सुंदर।
- कमल सा कोमल गात सुहाना।
- हरिपद कोमल कमल से।
- नीलोत्पल के बीच सजाए मोती से ऑंसू के बूॅंद।
- मुख बाल रवि सम होकर ज्वाला-सा बोधित हुआ।
- वह इष्ट देव के मंदिर की पूजा-सी, वह दीपशिखा-सी शांत भाव में लीन, वह टूटे तरु की छूटी लता सी दी, भारत की विधवा है।
- नील गगन-सा शांत हृदय था सो रहा।
- सहस्र बाहु सम सो रिपु मोरा।
रूपक अलंकार – जहॉं गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय का अभेद आरोपण हो वहॉॅं रूपक अलंकार होता है। इसमें अर्थ करने पर रूपी शब्द का प्रयोग होता है।
- मैया मैं तो चंद्र-खिलौना लैहों।
- चरण-कमल बंदो हरिराई।
- वन शारदी-चंद्रिका-चादर ओढ़े।
- राम नाम मनि-दीप धरू जीह-देहरी द्वार।
- आए महंत-वसंत।
- दुख हैं जीवन-तरु के मूल।
- ईस भजनु सारथी-सुजाना।
- बिरति-वर्म संतोष कृपाना।
- दान-परसु बुधि-शक्ति प्रचंडा।
- बर-बिज्ञान कठिन कोदण्डा।
- आवत जात कुंज की गलियन रूप सुधा नित पीजै। गोपी पद-पंकज पावन की रज जामे भीजै।।
- प्रश्न चिह्नों में उठी हैं भाग्य-सागर की हिलोरें।
- उदित उदय गिरि-मंच पर रघुबर-बाल पतंग।
- बिकसै संत-सरोज सब हरषे लोचन-भृंग।
अतिशयोक्ति अलंकार – जहॉं बात को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा कर कहा जाए, वहॉं अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
- आगे नदिया पड़ी अपार घोड़ा कैसे उतरे पार। जब तक राणा से सोचा इस पार तब तक चेतक था उस पार।
- वह शर इधर गांडीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ। धड़ से जयद्रथ का उधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।
- हनुमान की पूॅंछ में लगन न पाई आग. लंका सिगरी जल गई गए निसाचर भाग।
- देख लो साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन को जा रही।
मानवीकरण अलंकार –
- फूल हँसे कलियाँ मुसकाई।
- आगे-आगे नाचती गाती बयार चली।
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