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सूरदास के पद (व्याख्या)
खेलन में को काको गुसैयाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ।
जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातै जातैं अधिक तुम्हारै गैयाँ।
रूठहि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाऊँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ।।
शब्दार्थ –
को – कौन। काको – किसका। बरबस – व्यर्थ ही। गुसैयाँ – गुसाई, स्वामी। छैयाँ – छाया या शरण । रिसैयाँ – क्रोध करना। बड़ – बड़े। जनावत – जताना। गैयाँ – गाय। दाउँ दियौ – दाँव देना, पारी देना। तासो – उससे। ग्वैयाँ – ग्वाले। दुहैयाँ – कसम खाना, दुहाई देना।
संदर्भ –
प्रस्तुत पद भक्तिकाल की सगुण भक्ति काव्य धारा के कृष्ण भक्त कवि सूरदास द्वारा रचित है।
प्रसंग –
इस पद में श्रीकृष्ण और उनके बाल सखाओं की क्रीड़ा के अंतर्गत होने वाली कहासुनी का वर्णन है।
व्याख्या –
कृष्ण और बाल गोपालों में इस बात को लेकर कहासुनी हो रही है कि कृष्ण अपनी बारी लेकर खेलने से मना कर देते हैं। इस पर उनके सखा कहते हैं कि खेलने में कोई किसी का स्वामी नहीं होता और न ही कोई किसी का दास होता है। खेलने में सब बराबर होते हैं। कृष्ण खेल में हार गए है और श्रीदामा जीत गए हैं। यह बात कृष्ण को मान लेनी चाहिए। हार को लेकर कृष्ण को बेकार में गुस्सा नहीं करना चाहिए।
कृष्ण को संबोधित करते हुए उनके सखा कहते है – तुम जाति-पाँति में हमसे बड़े नहीं हो और न ही हम तुम्हारी शरण में रहते हैं। अर्थात् हम तुम्हारी कृपा पर नहीं जीते। हमे लगता है कि तुम्हारे पास हमसे अधिक गाय हैं इसलिए तुम हम पर इतना अधिकार जमाते हो। लेकिन हम तुम्हारे इस रौब से डरने वाले नहीं हैं। जो खेल में बात-बात पर रूठ जाए उसके साथ हमें नहीं खेलना – ऐसा कहकर सारे ग्वाल-बाल इधर-उधर बैठ जाते हैं।
सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण प्रभु भी खेलना चाहते हैं इसलिए वे नंद बाबा की दुहाई देकर श्रीदामा की पारी देना स्वीकार कर लेते हैं।
विशेष –
1- बाल मनोविज्ञान का सुंदर प्रयोग हुआ है।
2- वात्सल्य रस है।
3- माधुर्य गुण है।
4- छंद – पद।
5- ‘दुहाई देना’ मुहावरे का प्रयोग है।
6- ‘को काको’ ‘हरि हारे’ ‘कत करत’ ‘जाति-पाँति’ ‘अति अधिकार’ ‘दाऊँ दियौ’ में अनुप्रास अलंकार है।
7- सख्य भक्ति का प्रयोग है।
8- ब्रज भाषा का प्रयोग है।
9- सहज-सरल, स्वाभाविक काव्य शैली है।
10- लय और तुकांतता युक्त पद है।
मुरली तऊ गुपालहिं भावति।
सुनि री सखी जदपि नंदलालहिं, नाना भाँति नचावति।
राखति एक पाई ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ौ ह्नै आवति।
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति।
आपुन पौंढ़ि अधर सज्जा पर, कर पल्लव पलुटावति।
भुकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप-करावति।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, धर तैं सीस डुलावति।।
शब्दार्थ – तऊ – तुम्हें। गुपालहिं – कृष्ण की। भावति – अच्छी लगना। जदपि – फिर भी। नंदलालहिं – नंद के लाल (कृष्ण) को। नाना – अनेक प्रकार। पाई – पैर। ठाढ़ौ – खड़ा। जनावति – जताती है। कटि – कमर। सुजान – चतुर। कनौड़े – कृतज्ञ, कृपा से दबे हुए। नार – नाड़, गर्दन। नवावति – झुका देना। अधर सज्जा – ओंठ रूपी सेज। कर – हाथ। पल्लव – पत्ते। पलुटावति – दबवाती। भुकुटी – भौहें। कुटिल – टेढ़ी। नेन – नेत्र। नासा-पुट – नाक के नथुने। कोप – क्रोध। छिन – क्षण। सीस – सिर।
संदर्भ – प्रस्तुत पद भक्तिकाल की सगुण भक्ति काव्य धारा के कृष्ण भक्त कवि सूरदास द्वारा रचित है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद में गोपियाँ कृष्ण की मुरली के प्रति अपना रोष प्रकट करती हैं।
व्याख्या – एक सखी दूसरी सखी से कृष्ण की मुरली के बारे में कहती है कि यद्यपि यह मुरली श्रीकृष्ण को बहुत परेशान करती है फिर भी ये मुरली कृष्ण को बहुत अधिक प्रिय है। यह कृष्ण को विभिन्न प्रकार से नचाती है। यह मुरली कृष्ण पर अपना सबसे अधिक अधिकार जताती है और उनको सदैव एक पैर पर खड़ा करे रखती है। कृष्ण का तन अत्यधिक कोमल है लेकिन ये मुरली उससे भी अपनी आज्ञा का पालन करवाती है। मुरली की आज्ञा का पालन करते करते कृष्ण की कमर तक टेढ़ी हो जाती है। जिस कृष्ण ने अपनी अंगुली पर पर्वत को धारण कर लिया था उसी कृष्ण की गर्दन इस मुरली ने झुका दी है। यह मुरली स्वयं तो कृष्ण की ओठों रूपी सेज पर विश्राम करती है लेकिन उनके पत्ते जैसे कोमल हाथों से अपने पैर दबवाती रहती है।
बाँसुरी बजाती समय कृष्णकी मुद्रा विचित्र हो जाती है। जैसे उनकी भोहें टेढ़़ी हो जाती हैं, नाक के नथुने फूल जाते हैं। कृष्ण की इस मुद्रा को देखकर गोपियों को लगता है कि यह मुरली कृष्ण के द्वारा हम पर क्रोध करवाती है। सूरदास गोपियों के मन की बात करते हैं कि जब मुरली प्रसन्न होती है तो कृष्ण मस्ती में झूमने लगते हैं और उनका शीश हिलने लगता है। इस पर भी गोपियों को लगता है कि यदि कृष्ण प्रसन्न होते हैं तो भी यह मुरली इनकार में उनका सिर हिला देती है।
विशेष –
- छंद – पद
- भाषा – ब्रज।
- ‘गुपालहिं’ ‘गिरिधर’ में श्लेष अलंकार है।
- ‘अधर-सज्जा’ ‘कर-पल्लव’ में रूपक अलंकार है।
- ‘नंदलालहिं नाना’, ‘नार नवावति’, ‘नैन नासापुट’, ‘सुनि री सखी’, ‘अति अधिकार’, ‘कोप करावति’ में अनुप्रास अलंकार है।
- नर नवावति और सीस डुलावति मुहावरे का प्रयोग है।
- लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- सुजान, कनौड़े, पौढ़ि आंचलिक शब्दों का प्रयोग है।
- चित्रत्मक शैली का प्रयोग है।
- मुरली का मानवीकरण किया गया है।
- माधुर्य गुण का प्रयोग है।
- शृंगार रस का प्रयोग है।
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सूरदास के पद (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – ‘खेलन में को काको गुसैयाँ’ पद में कृष्ण और सुदामा के बीच किस बात पर तकरार हुई?
उत्तर – कृष्ण और बाल गोपालों में इस बात को लेकर तकरार हो रही है कि कृष्ण अपनी बारी लेकर खेलने से मना कर देते हैं। इस पर उनके सखा कहते हैं कि खेलने में कोई किसी का स्वामी नहीं होता और न ही कोई किसी का दास होता है।
प्रश्न – खेल में रूठनेवाले साथी के साथ सब क्यों नहीं खेलना चाहते?
उत्तर – खेल में रूठने वाले के कारण खेल को बीच में रोकना पड़ता है जिससे खेल का सारा आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए खेल में रूठने वाले के साथ सब नहीं खेना चाहते।
प्रश्न – खेल में कृष्ण के रूठने पर उनके साथियों ने उन्हें डाँटते हुए क्या-क्या तर्क दिए?
उत्तर – उनके सखा कहते हैं कि खेलने में कोई किसी का स्वामी नहीं होता और न ही कोई किसी का दास होता है। खेलने में सब बराबर होते हैं। कृष्ण खेल में हार गए है और श्रीदामा जीत गए हैं। यह बात कृष्ण को मान लेनी चाहिए। हार को लेकर कृष्ण को बेकार में गुस्सा नहीं करना चाहिए। कृष्ण को संबोधित करते हुए उनके सखा कहते है – तुम जाति-पाँति में हमसे बड़े नहीं हो और न ही हम तुम्हारी शरण में रहते हैं। अर्थात् हम तुम्हारी कृपा पर नहीं जीते। हमे लगता है कि तुम्हारे पास हमसे अधिक गाय हैं इसलिए तुम हम पर इतना अधिकार जमाते हो। लेकिन हम तुम्हारे इस रौब से डरने वाले नहीं हैं।
प्रश्न – कृष्ण ने नंद बाबा की दुहाई देकर दाँव क्यों दिया?
उत्तर – जो खेल में बात-बात पर रूठ जाए उसके साथ हमें नहीं खेलना – ऐसा कहकर सारे ग्वाल-बाल इधर-उधर बैठ जाते हैं। यह देखकर कृष्ण को लगता है कि वे अकेले रह गए हैं। उनकी इच्छा खेलने की हो रही थी लेकिन साथी उनके साथ खेलने को तैयार नहीं थे। वे अपने आप को झूठा नहीं कहाना चाहते थे, इसलिए नंद बाबा की दुहाई देकर वे श्रीदामा की पारी देना स्वीकार कर लेते हैं।
प्रश्न – इस पद से बाल-मनोविज्ञान पर क्या प्रकाश पड़ता है?
उत्तर – इस पद से बाल-मनोविज्ञान के बारे में पता चलता है कि बालकों को अपनी जीत में खुशी मिलती है, उन्हें अपनी हार स्वीकार नहीं होती। लेकिन साथियों के दबाव में हार माननी पड़ती है। बालक स्वयं की पारी तो लेना चाहता है कि दूसरे की पारी देना उसे कम भाता है। खेल में भी बालक स्वयं को झूठा सिद्ध नहीं होने देना चाहते।
दूसरे पद के प्रश्न-उत्तर
प्रश्न – ‘गिरिधर नार नवावति’ से सखी का क्या आशय है?
उत्तर – जिस कृष्ण ने अपनी अंगुली पर पर्वत को धारण कर लिया था उसी कृष्ण की गर्दन इस मुरली ने झुका दी है। ऐसा लग रहा है जैसे उसने कृष्ण प्र कोई कृपा कर दी है, जिसके बोझ से कृष्ण दबे जा रहे हैं।
प्रश्न – कृष्ण के अधरों की तुलना सेज से क्यों की गई है?
उत्तर – श्रीकृष्ण के ओंठ अत्यंत कोमल हैं। मुरली बजाते समय ऐसा लगता है जैसे मुरली उनके अधरों के ऊपर लेटी हुई सो रही है। इसी कारण कवि ने कल्पना की है – कृष्ण के अधर नरम मुलायम सेज की तरह हैं और मुरली उन पर सो रही है।
प्रश्न – पठित पदों के आधार पर सूरदास के काव्य की विशेषताए! बताइए।
उत्तर – सूरदास सगुणोपासक कृष्णभक्त कवि हैं। उन्होंने कृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा जाने तक की कथा और कृष्ण की विभिन्न लीलाओं से संबंधित अत्यंत मनोहर पदों की रचना की है। प्रथम पद में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन अपनी सहजता, मनोवैज्ञानिकता और स्वाभाविकता के कारण अद्वितीय है। सूरदास के काव्य में मुख्यतः वात्सल्य और शृंगार रस का प्रयोग हुआ है। सूर का अलंकार-विधान उत्कृष्ट है। उसमें शब्द-चित्र उपस्थित करने एवं प्रसंगों की वास्तविक अनुभूति कराने की पूर्ण क्षमता है। सूर ने अपने काव्य में अन्य अनेक अलंकारों के साथ उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक का कुशल प्रयोग किया है। सूर की भाषा ब्रजभाषा है। साधारण बोलचाल की भाषा को परिष्कृत कर उन्होंने उसे साहित्यिक रूप प्रदान किया है। सूर के सभी पद गेय हैं और वे किसी न किसी राग से संबंधित हैं।
क्विज/टेस्ट
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