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"कवित्त"
(व्याख्या)
बहुत दिनान को अवधि आसपास परे, खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को।।
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्नै कै, अब ना घिरत घन आनंद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।।
शब्दार्थ
पत्यानि – विश्वास करना।
संदर्भ –
व्याख्येय कवित घनानंद की कृति ‘सुजान सागर’ से लिया गया है। घनानंद रीतिकाल के रीतिमुक्त धारा के प्रमुख कवि हैं।
प्रसंग –
सुजान के विरह में घनानंद वियोग का वर्णन करते हैं। कृष्ण और घनानंद की प्रेमिका दोनों का नाम सुजान है। इसलिए इनके कवित्त दोहरा अर्थ देते प्रतीत होते हैं।
व्याख्या –
कवि अपनी प्रेमिका सुजान का इंतजार कर रहा है। वह कोई संदेशा भी कवि के पास नहीं भेज रही। इसलिए कवि कहता है – मुझे लगता था कि सुजान मुझसे मिलने आएगी लेकिन अब तो बहुत समय बीत गया है वो नहीं आई। इसलिए मेरे प्राण हड़बड़ाहट से तड़प रहे हैं और देह से निकल जाने के लिए तैयार हैं। मेरी प्रेमिका तक मेरी दयनीय अवस्था का संदेश पहुँचा दिया जाता है। वो मेरे संदेशों को सम्मानपूर्वक रख लेती है किंतु मेरी बातों का जवाब नहीं देती। वो अपने आने की कोई सूचना भी नहीं भिजवाती है। उसने कहा था वो एक दिन अवश्य आएगी लेकिन उसकी झूठी बातों से मेरा मन उदास हो गया है। अब तो ऐसे बादल भी नहीं घिरते जो मेरे दुखी हृदय को शांत कर सकें। सुजान के दर्शन की अभिलाषा में घनानंद के प्राण उनके ओंठों तक आ गए है अर्थात् अब उनके प्राण निकलने ही वाले हैं। इस अंतिम समय में घनानंद अपने प्रिय के आने की खबर सुनना चाहते हैं।
विशेष –
- कवि की विरह दशा का वर्णन है।
- ब्रज भाषा का प्रयोग है।
- ‘अवधि आसपास’, ‘घिरत घन’, ‘पयान प्रान’, ‘चाहत चलन’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘कहि कहि’, ‘दै दै’, ‘गहि गहि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- कवित्त छंद है।
- वियोग शृंगार रस है।
आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलौं?
कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै?
मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू,
कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
जान घनआनंद यों मोहि तुम्हैं पैज परी,
जानियैगो टेक टरें कौन धौ मलोलिहै।।
रुई दिए रहौगे कहाँ लौ बहरायबे की?
कबहूँ तौ मेरियै पुकार कान खोलिहै।
शब्दार्थ
कूकभरी – पुकार भरी। बहरायबे – बहरे बनने की, कानों से न सुनने की। आरसी – स्त्रियों द्वारा अँगूठे में पहना जाने वाला शीशा जड़ा आभूषण। पैज – बहस।
संदर्भ –
व्याख्येय कवित घनानंद की कृति ‘सुजान सागर’ से लिया गया है। घनानंद रीतिकाल के रीतिमुक्त धारा के प्रमुख कवि हैं।
प्रसंग –
सुजान के विरह में घनानंद वियोग का वर्णन करते हैं। कृष्ण और घनानंद की प्रेमिका दोनों का नाम सुजान है। इसलिए इनके कवित्त दोहरा अर्थ देते प्रतीत होते हैं।
व्याख्या – हे सुजान! तुम कब तक अपने अंगूठी के दर्पण को देखकर मुझसे मिलने में आनाकानी करती रहोगी? मेरी चकित हालत पर तुम कब तक अपनी दृष्टि नहीं डालोगी? तुम्हारा मन कब पिघलेगा? मैं मौन होकर देख रहा हूँ कि तुम कब तक मुझसे न बोलनेे के प्रण का पालन करोगी? मेरी मौन भरी पुकार तुम्हे कभी न कभी अवश्व बुला लेगी और तुमको बोलना पड़ेगा। मेरा मौन तुम्हें बोलने पर मजबूर कर देगा। घनानन्द कवि जानते है कि मेरे और तुम्हारे बीच में बोलने की जो हठ है उसमें सुजान को आनंद आ रहा है। तुम देख लेना, मेरे आन को कौन मिटा सकता है। तुम अपने कानों में रुई डालकर कब तक बहरे बनने का नाटक करोगी? कभी तो मेरी दर्द भरी मौन पुकार सुनकर तुम्हारे कान खुलेंगे।
विशेष –
- विरह में मिलन के हठ का चित्रण है।
- ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग है।
- ‘कान खोलिहै’, ‘पैज परी’ मुहावरे का प्रयोग है।
- ‘आनाकानी आरसी’, ‘करौगे कौलौं’, ‘पैज परी’, ‘टेक टरें’ में अनुप्रास अलंकार है।
- जान और घनआनंद में श्लेष अलंकार है।
- कूकभरी मूकता में विरोधाभास अलंकार है।
- इस पद में कवित्त छंद है।
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"सवैया" (व्याख्या)
तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचत लोचन जात जरे।
हित-तोष के तोष सु प्रान पले, बिललात महा दुख दोष भरे।
घनआनंद मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज-समाज टरे।
तब हार पहार से लागत हे, अब आनि कै बीच पहार परे।।
शब्दार्थ
छबि पीवत – शोभा (अमृत) का पान करते हुए। तोष – संतोष। साज – विधान। हे – थे। टरे – हट गए। आन-कथा– अन्य बात। हार – माला। पयान – प्रयाण, गमन। बिललात – व्याकुल।
संदर्भ –
प्रस्तुत सवैया घनानंद द्वारा रचित है। घनानंद रीतिकाल के प्रमुख कवि थे। उन्होंने रीतिमुक्त शृंगार का वर्णन किया है।
प्रसंग –
इस पद में घनानंद सुजान के साथ बिताए मिलन के क्षणों को याद करके उनकी तुलना आज की परिस्थितियों से करते हैं।
व्याख्या –
मैं अपनी प्रिय सुजान के पास होता था तो उसके रूप का सौंदर्यपान करता था, लेकिन अब वियोग में उसके बारे में सोचते हुए मेरी आँखे जल रही हैं। जो आँखें तुम्हारे सौंदर्य को रसपान करके आनन्दित होती थी अब वहीं आँखें वियोग में आँसू बहा रही हैं। मेरे प्राण संयोग के पलों में संतोष प्राप्त कर लेते थे लेकिन अब तुमसे दूर होकर मेरा हृदय बहुत गहरे दुख से पीड़ित है। घनानन्द कहते हैं मुझे अपनी प्रेमिका सुजान के बिना संसार के सभी सुख साधन अर्थहीन लगते हैं। मिलन के समय में हमारे गले में पड़े हुए हार पहाड़ के समान भारी लगते थे किंतु वियोग में ऐसा लगता है जैसे वे ही पहाड़ हमारे बीच आकर हमारे मिलन की बाधा बन गए हैं।
विशेष –
- कवि के विरह का वर्णन है।
- ब्रज भाषा का माधुर्य विद्यमान है।
- ‘पहार’ शब्द में यमक अलंकार है।
- ‘सुख-साज-समाज’ ‘जीवत-पीवत’, ‘जात जरे’ में अनुप्रास अलंकार है।
- वियोग शृंगार रस है।
- सवैया छंद है।
पूरन प्रेम को मंत्र महा पन, जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ।
ताही के चारफ़ चरित्र बिचित्रनि, यों पचिकै रचि राखि बिसेख्यौ।
ऐसो हियो हितपत्र पवित्र जु, आन-कथा न कहूँ अवरेख्यौ।
सो घनआनंद जान अजान लौं, टूक कियौ पर बाँचि न देख्यौ।
शब्दार्थ
मीत – मित्र। पन – प्रण। हितपत्र – प्रेेम पत्र। अवरेख्यौ – लिखी।
संदर्भ –
व्याख्येय सवैया घनानंद द्वारा रचित है। घनानंद रीतिकाल की रीतिमुक्तधारा के प्रमुख कवि हैं।
प्रसंग –
कवि अपनी प्रेमिका को पत्र भेजता है। प्रेमिका द्वारा पत्र फाड़ दिए जाने पर कवि दुखी हो जाता है और अपनी प्रेमिका की निष्ठुरता का वर्णन करता है।
व्याख्या –
कवि ने अपने प्रेम के महान प्रण को पत्र मेें सुंदर रूप से लिखकर भेजा। उस प्रेम-पत्र में कवि ने अपने आराध्य के सुंदर और अनोखे चरित्र का वर्णन किया। यह कवि के हृदय द्वारा लिखा गया पवित्र प्रेम-पत्र था, जिसमें घनानंद ने किसी ओर कहानी का उल्लेख ही नहीं किया था। इसमें बस सुजान के श्रेष्ठ चरित्र और अपने प्रेम का वर्णन किया था। घनानंद कहते हैं कि दुख की बात है, मेरी प्रेमिका ने जाने-अनजाने उसे फाड़कर फेंक दिया और पढ़कर भी नहीं देखा।
विशेष –
- इसमें शृंगार के उपालंभ का वर्णन है।
- ब्रजभाषा में सशक्त अभिव्यक्ति है।
- ‘पूरन-प्रेम’, ‘सोधि सुधारि’, ‘चारु-चरित्र’, ‘राखि-विसेख्यौ’, ‘हितपत्र-पवित्र’, ‘जान-अजान’ पदों में अनुप्रास अलंकार है।
- हिया हितपत्र में रुपक अलंकार है।
- यह पद सवैया छंद में रचित है।
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कवित्त / सवैया (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – कवि ने ‘चाहत चलन ये संदेसो ले सुजान को’ क्यों कहा है?
उत्तर – कवि अपनी प्रेमिका सुजान का इंतजार कर रहा है। वह कोई संदेशा भी कवि के पास नहीं भेज रही। इसलिए कवि कहता है – मुझे लगता था कि सुजान मुझसे मिलने आएगी लेकिन अब तो बहुत समय बीत गया है वो नहीं आई। इसलिए मेरे प्राण हड़बड़ाहट से तड़प रहे हैं और देह से निकल जाने के लिए तैयार हैं। मेरी प्रेमिका तक मेरी दयनीय अवस्था का संदेश पहुँचा दिया जाता है। वो मेरे संदेशों को सम्मानपूर्वक रख लेती है किंतु मेरी बातों का जवाब नहीं देती। वो अपने आने की कोई सूचना भी नहीं भिजवाती है। उसने कहा था वो एक दिन अवश्य आएगी लेकिन उसकी झूठी बातों से मेरा मन उदास हो गया है। अब तो ऐसे बादल भी नहीं घिरते जो मेरे दुखी हृदय को शांत कर सकें। सुजान के दर्शन की अभिलाषा में घनानंद के प्राण उनके ओंठों तक आ गए है अर्थात् अब उनके प्राण निकलने ही वाले हैं। इस अंतिम समय में घनानंद अपने प्रिय के आने की खबर सुनना चाहते हैं।
प्रश्न – कवि मौन होकर प्रेमिका के कौन-से प्रण पालन को देखना चाहता है?
उत्तर – कवि मौन होकर देख रहा है कि उसकी प्रेमिका कब तक उससे न बोलनेे के प्रण का पालन करेगी? कवि कहता है कि कवि की मौन भरी पुकार कभी न कभी प्रिय को अवश्व बुला लेगी और उसे बोलना पड़ेगा। कवि का मौन उसे बोलने पर मजबूर कर देगा।
प्रश्न – कवि ने किस प्रकार की पुकार से ‘कान खोलिहैं’ की बात कही है?
उत्तर – कवि ने अपनी मौन भरी पुकार से प्रेमिका के ‘कान खोलिहैं’ की बात कही है। घनानंद सुजान की चाह में मौन रहकर इंतजार कर रहा है। उसे लगता है कि उसकी मौन की पुकार उसे अवश्य बुला लेगी। उसे सुजान के मिलन की हठ है। सुजान चाहे अपने कानों में रुई डालकर बैठी रहे, अंत में उसे कवि की पुकार सुननी ही पड़ेगी।
प्रश्न – प्रथम सवैये के आधार पर बताइए कि प्राण पहले कैसे पल रहे थे और अब क्यों दुखी हैं?
उत्तर – इस सवैये में कवि कहता है कि मैं अपनी प्रिय सुजान के पास होता था तो उसके रूप का सौंदर्यपान करता था, लेकिन अब वियोग में उसके बारे में सोचते हुए मेरी आँखे जल रही हैं। जो आँखें तुम्हारे सौंदर्य को रसपान करके आनन्दित होती थी अब वहीं आँखें वियोग में आँसू बहा रही हैं। मेरे प्राण संयोग के पलों में संतोष प्राप्त कर लेते थे लेकिन अब तुमसे दूर होकर मेरा हृदय बहुत गहरे दुख से पीड़ित है। घनानन्द कहते हैं मुझे अपनी प्रेमिका सुजान के बिना संसार के सभी सुख साधन अर्थहीन लगते हैं। मिलन के समय में हमारे गले में पड़े हुए हार पहाड़ के समान भारी लगते थे किंतु वियोग में ऐसा लगता है जैसे वे ही पहाड़ हमारे बीच आकर हमारे मिलन की बाधा बन गए हैं।
प्रश्न – घनानन्द की रचनाओं की भाषिक विशेषताओं को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – घनानन्द की भाषा-शैली में निम्न विशेषताएँ पाई जाती हैं-
- चित्रत्मकता – घनानंद में अपनी कविता में अपनी प्रेयसी सुजान का ऐसा शब्दचित्र स्थान-स्थान पर उकेरा है कि उसका स्वरूप जीवंत हो उठता है। सुजान का हँसना उसका चेहरा, उसके गालों पर झूलती हुई लट, यह सब एक सजीव चित्र प्रस्तुत करते हैं।
- स्वाभाविक अलंकार प्रयोग – घनानंद की कविता में अलंकारों के प्रति दुराग्रह नहीं है। यह सच है कि उनके काव्य में अलंकारों की भरमार है। परंतु कहीं भी अलंकार उनके काव्य-सौंदर्य के आड़े नहीं आते। अलंकार उनकी कविता पर बोझ नहीं बनते। अलंकार बहुत सहज रूप से उनके काव्य में आए हैं। विशेष रूप से विरोधाभास अलंकार उनकी कविता की पहचान बन गया है। ‘तुम कौन पाटी पढ़े हो कहो, मन लेहु पै देेहु छटाँक नहीं। जैसे उदाहरण उनके काव्य में बिखरे पड़े हैं।
- सहज प्रवाह और भाव-प्रवणता – भावनाओं का बहुत मार्मिक चित्रण उनके काव्य में मिलता है। उनकी कविता का सशक्त भावपक्ष उनकी भाषा-शैली का विशेष परिचय है। विशेषकर सौंदर्य और प्रेम के भावों का चित्रण तो बहुत ही सजीव हुआ है।
प्रश्न – निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों की पहचाना कीजिए।
(क) कहि कहि आवन छबीले मनभावन को, गहि गहि राखति ही दैं दैं सनमान को।
उत्तर – कहि-कहि, गहि-गहि, दै दै – पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार ।
(ख) कूक भरी मूकता बुलाय आप बोलि है।
उत्तर – विरोधाभाष अलंकार है।
(ग) अब न घिरत घन आनंद निदान को।
उत्तर – अनुप्रास तथा यमक अलंकार है।
प्रश्न – निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए।
(क) बहुत दिनान को अवधि आसपास परे / खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को
उत्तर – कवि अपनी प्रेमिका सुजान का इंतजार कर रहा है। वह कोई संदेशा भी कवि के पास नहीं भेज रही। इसलिए कवि कहता है – मुझे लगता था कि सुजान मुझसे मिलने आएगी लेकिन अब तो बहुत समय बीत गया है वो नहीं आई। इसलिए मेरे प्राण हड़बड़ाहट से तड़प रहे हैं और देह से निकल जाने के लिए तैयार हैं।
(ख) मौन हू सौं देखिहौं कितेक पन पालिहौ जू / कूकभरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
उत्तर – प्रेमी कहता है कि मैं मौन होकर देख रहा हूँ कि तुम कब तक मुझसे न बोलनेे के प्रण का पालन करोगी? मेरी मौन भरी पुकार तुम्हे कभी न कभी अवश्व बुला लेगी और तुमको बोलना पड़ेगा। मेरा मौन तुम्हें बोलने पर मजबूर कर देगा।
(ग) तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे।
उत्तर – यहाँ कवि ने मिलन और वियोग की स्थिति को बताया है। कवि अपनी प्रिय सुजान के पास होता था तो उसके रूप का सौंदर्यपान करता था, लेकिन अब वियोग में उसके बारे में सोचते हुए कवि की आँखे जल रही हैं। जो आँखें प्रिय के सौंदर्य को रसपान करके आनन्दित होती थी अब वहीं आँखें वियोग में आँसू बहा रही हैं।
(घ) सो घनआनंद जान अजान लौं टूक कियौ पर वाँचि न देख्यौ।
उत्तर – इस पंक्ति में कवि कहता है कि उसने प्रेम-पत्र में अपने हृदय की बात लिखी थी, परंतु प्रिय ने उस पत्र को जाने-अनजाने फाड़कर फेंक दिया और पढ़कर भी नहीं देखा।
(ड-) तब हार पहार से लागत हे, अब बीच में आन पहार परे।
उत्तर – यहाँ कवि ने मिलन और वियोग की स्थिति को बताया है। मिलन मे गले के हार पहाड़ की तरह भारी लगते थे। लेकिन अब वे ही हार हमारे मध्य पहाड़ बनकर बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।
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