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बारहमासा
(कविता की व्याख्या)
अगहन देवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर दुख सो जाइ किमि काढ़ी।।
अब धनि देवस बिरह भा राती। जरै बिरह ज्यों दीपक बाती।।
काँपा हिया जनावा सीऊ। तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ।।
घर घर चीर रचा सब काहूँ। मोर रूप रँग लै गा नाहू।।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई।।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलगि सुलगि दगधै भै छारा।।
यह दुख दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू।।
पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।।
शब्दार्थ
देवस – दिवस, दिन। निसि, निशा – रात्रि, रात। दूभर – कठिन, मुश्किल। हिया – हृदय। जनावा – प्रतीत हुआ। सीऊ – शीत। तौ – तब। पीऊ – प्रिय, प्रेमी। नाहू – नाथ। बहुरा – लौटकर। बिछाई – बिछुड़ना। सियरि – ठंडी। दगधै – दग्ध, जलना। भै – हुई। कंतू – प्रिय। भसमंतू – भस्म। सँदेसड़ा – संदेश। धनि – पत्नी, प्रिया।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित ‘बारहमासा’ पाठ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता प्रेममार्गी काव्यधारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्यांश में अगहन मास में नागमति के विरह का वर्णन है।
व्याख्या –
राजा रत्नसेन के वियोग में नागमति कहती है कि अगहन का महीना लग गया है, इस महीने में दिन की अवधि कम हो गई है और रातें बड़ी हो गई। प्रिय के वियोग में दूभर रात को कैसे बिताया जाए? इस विरह में दिन भी रात के समान कष्टदायक हो गए हैं। विरह की अग्नि मुझे दीये की बाती की तरह जला रही है। मेरा हृदय काँपता हुआ ठंड प्रकट कर रहा है। ये ठंड तभी जा सकती है जब प्रिय समीप हो। घर-घर में जाड़े से बचने के लिए कपड़े बनवाए जा रहे हैं, परंतु मेरा रूप-सौंदर्य तो मेरा नाथ अपने साथ ले गया है। एक बार मेरा प्रिय बिछड़ गया, फिर लौटकर नहीं आया। अगर वह वापस आ जाए तो मेरा पहले जैसा रंग-रूप फिर वापिस मिल जाएगा। जगह-जगह सर्दी से बचने के लिए अग्नि जलाई जा रही है लेकिन हृदय को तो विरह की अग्नि जला रही है। मेरा हृदय सुलग-सुलग कर और जलकर राख हो रहा है। मेरा प्रियतम मेरे दुख में जलने नहीं जानता। यह विरह मेरे यौवन व जन्म को भस्म कर रहा है।
हे भौरे! हे काग! मेरे प्रिय से मेरा संदेशा कहना कि वह स्त्री विरह की अग्नि में सुलग-सुलग कर जल गई, उसी का धुआँ हमें लग गया जिससे हम काले हो गए।
विशेष –
- नागमति के विरह का वर्णन है।
- तद्भव शब्दावली युक्त अवधी भाषा है।
- ‘दूभर दुख’, ‘किमि काढ़ी’, ‘धनि देवस’, ‘रूप रंग’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘घर घर’, ‘फिरै फिरै’, ‘सुलगि सुलगि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘ज्यों दीपक बाती’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- वियोग शृंगार रस है।
- दोहा-चौपाई के रूप में कड़वक छंद है।
- सूफी काव्य की मसनवी शैली का प्रयोग है।
पूस जाड़ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा।।
बिरह बाढ़ि भा दारुन सीऊ। कँपि कँपि मरौं लेहि हरि जीऊ।।
कंत कहाँ हौं लागौं हियरै। पंथ अपार सूझ नहि नियरें।।
सौर सुपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूढ़ी।।
चकई निसि बिछुरैं दिन मिला। हौं निसि बासर बिरह कोकिला।।
रैनि अकेलि साथ नहि सखी। कैसें जिऔं बिछोही पँखी।।
बिरह सचान भँवै तन चाँड़ा। जीयत खाइ मुएँ नहि छाँड़ा।।
रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई, आइ समेटहु पंख।।
शब्दार्थ
सुरुज – सूरज। लंक – लंका की ओर, दक्षिण दिशा। दिसि – दिशा। भा – हो गया। दारुन – कठिन, अधिक। हियरै – हियरा, हृदय। सौर-सुपेती – जाड़े के ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र। हिवंचल – हिमालय-हिम (बरफ) से ढकी हुई। बूढ़ी – डूबी हुई। बासर – दिन। पँखी – पक्षी। सचान – बाज पक्षी। चाँडा – प्रचंड। रकत – रक्त, खून। गरा – गल गया। ररि – रट-रट कर।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित बारहमासा पाठ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता प्रेमाख्यान धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं।
प्रसंग –
प्रस्तुत पद्यांश में पूस मास में नागमति के विरह का वर्णन है।
व्याख्या –
नागमति कहती है कि पूस मास में सर्दी बहुत अधिक बढ़ गई है और सूर्य दक्षिण दिशा को जा रहा है जिसके प्रभाव से मेरा शरीर थर-थर काँपने लगा है। मेरा विरह इतना बढ़ गया जिससे शीत और अधिक कष्टप्रद हो गया। मैं काँप-काँप कर मर रही हँू। सर्दी मेरी जान ले रही है। हे प्रिय मैं तुम्हारे उस हृदय से कहाँ आकर लगूँ? जिससे मेरी सर्दी कुछ कम हो जाए। तुमसे मिलने का रास्ता अपार है, तुम कहाँ हो यह मैं नहीं जानती। हे प्रिय! तुम्हारे बिना ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों में इतनी सर्दी लगती है मानोे सेज बर्फ में डूब गई हो। अगर चकवी रात को बिछडती है तो दिन होने पर अपने प्रियतम से मिल जाती है, परंतु मैं तो दिन-रात तुम्हारी विरहिणी कोकिला बनी हुई हँू। तुम्हारे विरह की अग्नि में जलकर कोयल-सी काली हो गई हँू। मैं रात में अकेली होती हूँ, सखी भी साथ नहीं होती। ऐसी स्थिति में अपने प्रिय से बिछुड़कर पक्षिणी-सी कैसे जिंदा रहूँ? जाड़े में विरह बाज हो गया है जो मुझ पक्षिणी को जीवित खाए जा रहा है, मुझे मरने पर भी नहीं छोड़ेगा।
विरह की अग्नि में मेरा यह हाल हो गया है कि मेरा रक्त आँसू बनकर बह गया है और मांस गल गया। मेरी सारी हड्डियाँ शंख-सी खोखली हो गई। हे प्रिय! मैं मादा सारस सारस की तरह तेरा नाम रट-रट कर मरी जा रही हँू। अगर तुम मिल नहीं सकते तो मेरे पंख ही समेट लो।
विशेष –
- नागमति के विरह का वर्णन है।
- अवधी भाषा है।
- ‘कँपि-कँपि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैै।
- ‘बिरह बाढ़ि’, ‘कंत कहाँ’, ‘सौर सुपेती’, ‘बासर बिरह’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘जानहुँ सेज हिंवचल बूढ़ी’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- ‘बिरह सैचान’ में रूपक अलंकार हैं।
- दोहा-चौपाई युक्त कड़वक छंद पद्धति है।
- मसनवी शैली का प्रयोग है।
लागेउ माँह परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला।।
पहल पहल तन रुई जो झाँपै। हहलि हहलि अधिकौ हिय काँपै।।
आई सूर होइ तपु रे नाहाँ। तेहि बिनु जाड़ न छूटै माहाँ।।
एहि मास उपजै रस मूलू। तूँ सो भँवर मोर जोबन फूलू।।
नैन चुवहि जस माँहुट नीरू। तेहि जल अंग लाग सर चीरू।।
टूटहि बुंद परहि जस ओला। बिरह पवन होइ मारैं झोला।।
केहिक सिगार को पहिर पटोरा। गियँ नहि हार रही होइ डोरा।।
तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई, तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ावा झोल।।
शब्दार्थ
माँह – माघ का महीना। जड़काला – मृत्यु। सूर – सूर्य, सूरज। नाहाँ – पति। रसमूलू – मूल रस (शृंगार रस)। माँहुट – महावट, माघ मास की वर्षा। नीरू – जल। झोला – झकझोरना। पटोरा – रेशमी वस्त्र। गियँ – गर्दन। तिनुवर – तिनका।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित बारहमासा पाठ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता प्रेमाख्यान धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं।
प्रसंग –
इस पद में माघ मास में विरहिणी नायिका की दशा का चित्रण है।
व्याख्या –
नागमति कहती है कि माघ का महीना लग है जिसमें पाला या ओस पड़ने लगी है। इस विरह काल में जाड़े की ऋतु मौत के समान लग रही है। विरह की घड़ी में समय भी रुका हुआ जान पड़ता है। जैसे-जैसे शरीर को रुई से ढकते हैं, वैसे-वैसे मेरा हृदय और अधिक काँपता है। हे नाथ! मेरे पास आकर सूर्य की तरह गर्मी प्रदान करो, तुम्हारे बिना माघ का जाड़ा दूर नहीं होगा। इसी महीने में फूलों में रस उत्पन्न होता है। उसी प्रकार मेरा हृदय भी प्रेम की भावनाओं से भरा हुआ है। हे प्रिय! तुम भौंरे के समान मेरे पास आ जाओ तो मेरा यौवन फूल के समान खिल जाएगा। तुम्हारे वियोग में मेरी आँखों से पानी इस तरह बह रहा है जैसे बादलों से वर्षा होती है। इन आँसुओं से मेरे वस्त्र गीले हो रहे हैं और बाण की भाँति मुझे चुभ रहे हैं। मेरी आँखों से आँसू ओले जैसे शीतल होकर गिर रहे हैं। तुम्हारा विरह हवा की तरह मेरे शरीर को और अधिक झझकोर रहा है। अर्थात् विरह ठंड को और अधिक बढ़ा रहा है। कौन-सा शृंगार? कौन-से रेशमी वस्त्र? कहाँ का साज शृंगार? जब तुम नहीं हो। मेरे गले में प्रिय की बाँहों का हार भी नहीं रहा जिससे मैं डोरा-सी क्षीण होकर रह गई हँू। अर्थात् पति के वियोग में नागमति को हार- शृंगार भी नहीं भाता।
तुम्हारे बिना मेरा शरीर इतना दुर्बल हो गया है कि तिनके के समान हल्का होकर डोल रहा है, मेरा हृदय काँपता है। ऐसा लगता है जैसे विरह की अग्नि मुझे जलाकर राख की भाँति उड़ा देना चाहता है।
विशेष –
- माघ के जाड़े में विरहिणी नायिका का वर्णन किया है।
- अवधी भाषा का प्रयोग हैै।
- ‘पहिर पटोरा’, ‘तन तिनुवर’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘पहल पहल’, ‘हहलि हहलि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘नैन चुवहिं जस माँहुट नीरू।’ ‘टूटहिं बुंद परहिं जस ओला।’ में उपमा अलंकार है।
- पूरे पद में अतिशयोक्ति अलंकार है।
- दोहा-चौपाई छंद युक्त कड़वक पद्धति है।
फागुन पवन झँकोरै बहा। चौगुन सीउ जाइ किमि सहा।।
तन जस पियर पात भा मोरा। बिरह न रहै पवन होइ झोरा।।
तरिवर झरै झरै बन ढाँखा। भइ अनपत्त फूल फर साखा।।
करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासू। मो कहँ भा जग दून उदासू।।
फाग करहि सब चाँचरि जोरी। मोहि जिय लाइ दीन्हि जसि होरी।।
जौं पै पियहि जरत अस भावा। जरत मरत मोहि रोस न आवा।।
रातिहु देवस इहै मन मोरें। लागौं कंत छार जेऊँ तोरें।।
यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरैं जहँ पाउ।।
शब्दार्थ
अनपत्त – पत्ते रहित। बनाफति – वनस्पति। हुलासू – उत्साह सहित, उल्लास। चाँचरि – होली के समय खेले जाने वाला चरचरि नामक एक खेल जिसमें सभी एक-दूसरे पर रंग डालते हैं। पियहि – पिया। मकु – कदाचित, मानो।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित बारहमासा पाठ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता प्रेमाख्यान धारा के प्रमुख कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं।
प्रसंग –
इस पद में फागुन मास में विरहिणी नायिका की दशा का चित्रण है।
व्याख्या –
नागमती कहती है कि फाल्गुन के महीने में हवा का झोंका बहने लगा। अब शीत चौगुना बढ़ गया है जो सहा नहीं जाता। मेरा शरीर सूखे हुए पत्ते की भाँति पीला हो गया है और विरह पवन बनकर मेरे शरीर को झकझोर देता है। जैसे हवा के कारण पेड़ों के पत्ते, ढाक के वन झड़ जाते हैं और शाखाएँ बिना पत्तों व फूलों वाली हो जाती हैं वैसे ही मेरा हृदय विरह के कारण काँपता रहता है और मन विचलित रहता है। पतझड़ के पश्चात् फूलने वाली वनस्पतियाँ लोगों के हृद्य को आनन्दित कर रही हैं। परंतु मुझे कुछ नहीं भाता, अब मुझे संसार दोगुना उदास लगता है। होली के त्योहार पर सब चाँचर जोड़कर और नाच गाकर फाग मना रहे हैं, परंतु विरह ने मेरे शरीर में जैसे किसी ने होली जला दी है। इस अंतिम समय में भी यदि मुझे प्रिय मिल जाए तो जलते-मरते मुझे दुख नहीं होगा। अर्थात् प्रिय के मिलने के बाद मैं जलकर मरना भी स्वीकार कर लूँगी। दिन-रात मैं यही कामना करती हूँ कि मेरा यह शरीर किसी भी भाँति मेरे पति के काम जाए।
अब मेरी इच्छा है कि अपना यह शरीर जलाऊँ और इसे छारकर कहँू – हे पवन! इसे उड़ाकर ले जा। कदाचित् यह राख उड़कर उस मार्ग पर गिर पड़े जहाँ मेरा कंत पैर रखे और मुझे मेरे प्रिय के दर्शन हो सकें।
विशेष-
- फाल्गुन मास में नायिका का विरह-वर्णन है।
- फाल्गुन में होने वाले प्राकृतिक परिवर्तन और होली के त्योहार का वर्णन है।
- शृंगार रस के वियोग पक्ष का अतिशयोक्तिपूर्ण चित्रण है।
- अवधी भाषा का प्रयोग है।
- ‘पियरे पात’, ‘फूल फर’, ‘पै पियहि’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘झरै-झरै’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘तन जस पियरे पात भा मोरा’, ‘जौं पै पियहि जरत अस भावा’ में उपमा अलंकार है।
- दोहा-चौपाई युक्त कड़वक छंद पद्धति है।
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"बारहमासा" (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – 1- अगहन मास की विशेषता बताते हुए विरहिणी (नागमती) की व्यथा-कथा का चित्रण अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर – राजा रत्नसेन के वियोग में नागमति कहती है कि अगहन का महीना लग गया है, इस महीने में दिन की अवधि कम हो गई है और रातें बड़ी हो गई। प्रिय के वियोग में दूभर रात को कैसे बिताया जाए? इस विरह में दिन भी रात के समान कष्टदायक हो गए हैं। विरह की अग्नि मुझे दीये की बाती की तरह जला रही है। मेरा हृदय काँपता हुआ ठंड प्रकट कर रहा है। ये ठंड तभी जा सकती है जब प्रिय समीप हो। घर-घर में जाड़े से बचने के लिए कपड़े बनवाए जा रहे हैं, परंतु मेरा रूप-सौंदर्य तो मेरा नाथ अपने साथ ले गया है। एक बार मेरा प्रिय बिछड़ गया, फिर लौटकर नहीं आया। अगर वह वापस आ जाए तो मेरा पहले जैसा रंग-रूप फिर वापिस मिल जाएगा। जगह-जगह सर्दी से बचने के लिए अग्नि जलाई जा रही है लेकिन हृदय को तो विरह की अग्नि जला रही है। मेरा हृदय सुलग-सुलग कर और जलकर राख हो रहा है। मेरा प्रियतम मेरे दुख में जलने नहीं जानता। यह विरह मेरे यौवन व जन्म को भस्म कर रहा है।
हे भौरे! हे काग! मेरे प्रिय से मेरा संदेशा कहना कि वह स्त्री विरह की अग्नि में सुलग-सुलग कर जल गई, उसी का धुआँ हमें लग गया जिससे हम काले हो गए।
प्रश्न – 2- ‘जीयत खाइ मुएँ नहि छाँड़ा’ पंक्ति के संदर्भ में नायिका की विरह-दशा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर – नागमति कहती है कि विरह की आग में जलकर मैं कोयल-सी काली हो गई हँू। मैं रात में अकेली होती हूँ, सखी भी साथ नहीं होती। ऐसी स्थिति में अपने प्रिय से बिछुड़कर पक्षिणी-सी कैसे जिंदा रहूँ? जाड़े में विरह बाज हो गया है जो मुझ पक्षिणी को जीवित खाए जा रहा है, मुझे मरने पर भी नहीं छोड़ेगा।
प्रश्न – 3- माघ महीने में विरहिणी को क्या अनुभूति होती है?
उत्तर – नागमति कहती है कि माघ का महीना लग है जिसमें पाला या ओस पड़ने लगी है। इस विरह काल में जाड़े की ऋतु मौत के समान लग रही है। विरह की घड़ी में समय भी रुका हुआ जान पड़ता है। जैसे-जैसे शरीर को रुई से ढकते हैं, वैसे-वैसे मेरा हृदय और अधिक काँपता है। हे नाथ! मेरे पास आकर सूर्य की तरह गर्मी प्रदान करो, तुम्हारे बिना माघ का जाड़ा दूर नहीं होगा। इसी महीने में फूलों में रस उत्पन्न होता है। उसी प्रकार मेरा हृदय भी प्रेम की भावनाओं से भरा हुआ है। हे प्रिय! तुम भौंरे के समान मेरे पास आ जाओ तो मेरा यौवन फूल के समान खिल जाएगा। तुम्हारे वियोग में मेरी आँखों से पानी इस तरह बह रहा है जैसे बादलों से वर्षा होती है। इन आँसुओं से मेरे वस्त्र गीले हो रहे हैं और बाण की भाँति मुझे चुभ रहे हैं। मेरी आँखों से आँसू ओले जैसे शीतल होकर गिर रहे हैं। तुम्हारा विरह हवा की तरह मेरे शरीर को और अधिक झझकोर रहा है। अर्थात् विरह ठंड को और अधिक बढ़ा रहा है। कौन-सा शृंगार? कौन-से रेशमी वस्त्र? कहाँ का साज शृंगार? जब तुम नहीं हो। मेरे गले में प्रिय की बाँहों का हार भी नहीं रहा जिससे मैं डोरा-सी क्षीण होकर रह गई हँू। अर्थात् पति के वियोग में नागमति को हार- शृंगार भी नहीं भाता।
तुम्हारे बिना मेरा शरीर इतना दुर्बल हो गया है कि तिनके के समान हल्का होकर डोल रहा है, मेरा हृदय काँपता है। ऐसा लगता है जैसे विरह की अग्नि मुझे जलाकर राख की भाँति उड़ा देना चाहता है।
प्रश्न – 4- वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाँखें किस माह में गिरते हैं? इससे विरहिणी का क्या संबंध है?
उत्तर – वृक्षों से पत्तियाँ और वनों से ढाँखे फाल्गुन मास में गिरते हैं। फाल्गुन के महीने में हवा का झोंका बहने लगा। अब शीत चौगुना बढ़ गया है जो विरहिणी से सहा नहीं जाता। विरहिणी का शरीर सूखे हुए पत्ते की भाँति पीला हो गया है और विरह पवन बनकर विरहिणी के शरीर को झकझोर देता है। जैसे हवा के कारण पेड़ों के पत्ते, ढाक के वन झड़ जाते हैं और शाखाएँ बिना पत्तों व फूलों वाली हो जाती हैं वैसे ही विरहिणी का हृदय विरह के कारण काँपता रहता है और मन विचलित रहता है। पतझड़ के पश्चात् फूलने वाली वनस्पतियाँ लोगों के हृद्य को आनन्दित कर रही हैं। परंतु विरहिणी कोे कुछ नहीं भाता, अब उसेे संसार दोगुना उदास लगता है।
प्रश्न – 5- निम्नलिखित पंक्तियों की व्याख्या कीजिए-
(क) पिय सौं कहेहु सँदेसड़ा, ऐ भँवरा ऐ काग।
सो धनि बिरहें जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।
उत्तर – नागमति कहती है कि हे भौरे! हे काग! मेरे प्रिय से मेरा संदेशा कहना कि वह स्त्री विरह की अग्नि में सुलग-सुलग कर जल गई, उसी का धुआँ हमें लग गया जिससे हम काले हो गए।
(ख) रकत ढरा माँसू गरा, हाड़ भए सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई, आइ समेटहु पंख।।
उत्तर – विरह की अग्नि में मेरा यह हाल हो गया है कि मेरा रक्त आँसू बनकर बह गया है और मांस गल गया। मेरी सारी हड्डियाँ शंख-सी खोखली हो गई। हे प्रिय! मैं मादा सारस सारस की तरह तेरा नाम रट-रट कर मरी जा रही हँू। अगर तुम मिल नहीं सकते तो मेरे पंख ही समेट लो।
(ग) तुम्ह बिनु कंता धनि हरुई, तन तिनुवर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराई कै, चहै उड़ावा झोल।।
उत्तर – तुम्हारे बिना मेरा शरीर इतना दुर्बल हो गया है कि तिनके के समान हल्का होकर डोल रहा है, मेरा हृदय काँपता है। ऐसा लगता है जैसे विरह की अग्नि मुझे जलाकर राख की भाँति उड़ा देना चाहता है।
(घ) यह तन जारौं छार कै, कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परौं, कंत धरैं जहँ पाउ।
उत्तर – अब मेरी इच्छा है कि अपना यह शरीर जलाऊँ और इसे छारकर कहँू – हे पवन! इसे उड़ाकर ले जा। कदाचित् यह राख उड़कर उस मार्ग पर गिर पड़े जहाँ मेरा कंत पैर रखे और मुझे मेरे प्रिय के दर्शन हो सकें।
प्रश्न – 6- प्रथम दो छंदों में से अलंकार छाँटकर लिखिए और उनसे उत्पन्न काव्य-सौंदर्य पर
टिप्पणी कीजिए।
उत्तर –
प्रथम छंद – ‘‘अगहन —————————————– लागा।।’’
अलकार –
- ‘दूभर दुख’, ‘किमि काढ़ी’, ‘धनि देवस’, ‘रूप रंग’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘घर घर’, ‘फिरै फिरै’, ‘सुलगि सुलगि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘ज्यों दीपक बाती’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
दूसरा छंद – ‘‘पूस ——————————————— पंख।।’’
अलंकार –
- कँपि-कँपि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार हैै।
- ‘बिरह बाढ़ि’, ‘कंत कहाँ’, ‘सौर सुपेती’, ‘बासर बिरह’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘जानहुँ सेज हिंवचल बूढ़ी’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- ‘बिरह सैचान’ में रूपक अलंकार हैं।
जायसी ने दोनों पदों शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का प्रयोग किया है। एक ओर अलंकारों के प्रयोग से भाषा के काव्य-सौंदर्य में वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर भाव सौंदर्य भी चरम पर बन पड़ा है। नागमति के विरह को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने में अलंकार सार्थक सिद्ध हुए हैं।
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