प्रश्न – प्रतिभा और कल्पना के विषय में ड्राइडन के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
ड्राइडन के काव्य-सिद्धांतों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
अथवा
काव्य के स्वरूप और प्रयोजन के विषय में ड्राइडन के विचारों का विवेचन कीजिए।
अथवा
ड्राइडन को ‘आधुनिक अंग्रेजी आलोचना का जनक क्यों कहा गया है? युक्ति युक्त उत्तर दीजिए।
अथवा
परंपरा और नवीनता का द्वन्द्व ड्राइडन की आलोचना का मूल स्वर है- इस कथन की समीक्षा करो।
अथवा
जान ड्राइडन के साहित्य सिद्धांत का विरुपण करते हुए नाटक के संबंध में उसकी आलोचनात्मक दृष्टि की विवेचन करें।
उत्तर :- जानॅ ड्राइडन को अंग्रेजी की विश्लेषणात्मक समीक्षा का संस्थापक माना जाता है। उनसे पहले इंग्लैंड में आलोचना की कोई व्यवस्थित परम्परा नहीं थी। मार्लो, शेकसपियर, बेन जानसन जैसे रचनाकार हुए थे जिनमें नवजागरण अपनी पूरी शक्ति के साथ फूट पड़ा था। किन्तु उस समय की आलोचना निर्णयात्मक, पांडित्यपूर्ण और शास्त्रीय उद्धरणों से बोझिल है। नियमों के बाह्य विधान पर जितना बल है उतना उनकी आत्मा पर नहीं। ड्राइडन ने अपने आलोचनात्मक लेखन द्वारा इन सीमाओं को काफी हद तक आक्रांत किया।
ड्राइडन मूलतः कवि और नाटककार थे। आलोचना उनकी साहित्यिक चिंता का प्रमुख क्षेत्र नहीं था। सैद्धांतिक आलोचना पर ड्राइडन की एक ही रचना है -‘ऑफ ड्रामेटिक पोयजी’ (नाट्य काव्य) जो 1668 में प्रकाशित हुई थी। उनकी शेष कृतियाँ स्वयं अपनी रचनाओं की प्रस्तावना तथा समर्पणपत्रें के रूप में है। इन्हीं प्रस्तावनाओं के द्वारा धीरे-धीरे अंग्रेजी आलोचना का रूपांतरण हुआ।
प्रतिभा या कल्पना –
‘प्रकृति का अनुसरण’ ड्राइडन के सैद्धान्तिक विवेचन की आधारशिला है। इसी का आधार लेेेकर वे शास्त्रीय जड़ता को तोड़ते हैं और नवीनता का उन्मेष करते हैं। ‘अनुकरण’ शब्द का उन्होंने अरस्तू के अर्थ में इस्तेमाल किया है। अरस्तू ने पुनर्रचना या पुनः सृजन के अर्थ में ‘अनुकरण’ शब्द का प्रयोग किया है। यही अर्थ ड्राइडन को भी ग्राह्य है।
कलाकार प्रकृति का यथावत् प्रत्यांकन नहीं करता, वह प्रकृति से केवल इतनी सामग्री लेता है जिसके आधार पर सम्पूर्णता का सुन्दर सादृश्य प्रस्तुत किया जा सके। वह अपनी आधार-सामग्री तो प्रकृति से लेता है किंतु कवि-प्रतिभा या कल्पना की सहायता से वह उसे ऐसा रूप दे सकता है कि उसमें नूतन प्रिचय की दीप्ति आ जाती है। ड्राइडन के अनुसार प्राकृतिक उपादानों की तुलना में कला के प्रभाव से निर्मित रूप अधिक श्रेष्ठ होते हैं। किसी कलाकृति में आधार-सामग्री का मूल्य नगण्य होता है। वास्तविक मूल्यवता कवि-कौशल में निहित है।
‘‘सामान्य तौर पर कवि का कार्य किसी बंदूक बनाने वाले या घड़ीसाज की तरह है। इस्पात या चाँदी उसकी अपनी नहीं होती। किंतु जो तत्व उन्हं मूल्यवत्ता प्रदान करता है, वह इन धातुओं में निहित नहीं होता। उसका मूल्य पूरी तरह उनकी कारीगरी में निहित होता है।
(वाटसन)
कवि में जो गुण सबसे ज्यादा जरूरी है वह है प्रतिभा या कल्पना
‘कल्पना या कवि-प्रतिभा कवि की वह शक्ति विशेष है जो अनुकरण को सृजन में रूपांतरित करती है। अनुकरण द्वारा कवि केवल उन चीजों को चित्रित कर सकता है जिन्हें उसने देखा है जबकि कल्पना अदृष्टपूर्व वस्तुओं का विधान करने में सक्षम है। चित्रकला और कविता दोनों में जो सामान्य तत्व क्रियाशील रहता है वह कल्पना ही है। कल्पना ही कविता और चित्र को जीवंतता सु अनुप्राणित करती है। (डब्ल्यू प्ी0 केर)
‘‘चित्रकला और कविता में उद्भावना पहली चीज है और यह दोनों के लिए नितांत जरूरी है। उद्भावना के बिना चित्रकार महज अनुकर्त्ता बनकर रह जाता है और कवि साहित्यिक चोर।’’ (डब्ल्यू प्ी0 केर)
कल्पना का आधार सत्य
ड्राइडन ने कल्पना का आधार सत्य को मानते हुए कहा है – ‘‘कल्पना चाहे जितनी बढ़ी-चढ़ी हो, और शब्द चाहे जितने प्रवाह के साथ आएँ, यदि उनके पीछे सत्य का आधार नहीं है तो आत्मा को पूरा संतोष नहीं होता। किंतु कल्पना जब सत्य का आधार लेकर गतिशील होती है तो उसका चित्त पर बड़ा ही आनन्ददायक प्रभाव पड़ता है। (वाटसन)
इसलिए महान् रचनाकारों में इस सत्य का आधार शायद ही कभी उपेक्षित होता हो। कल्पना तर्क के आधार को नष्ट नहीं करती वरन् उस पर एक प्रकार का कुहरा-सा डाल देती है। (वाटसन)
कल्पना और तर्क में अंतर्सम्बंध
ड्राइडन का मत है कि ‘‘कल्पना और तर्क दोनों साथ-साथ चलते हैं, पहला दूसरे को पीछे नहीं छोड़ सकता। यद्यपि कल्पना गहरी खाई के बावजूद गतिशील हो सकती है किंतु ऐसे अवसर पर तर्क उसे रोक देता है। यदि उन दोनों के बीच खाई बहुत गहरी हो तो विवेक छलांग लगाने से इंकार कर देता है। (वाटसन)
अतः ड्राइडन ने यह मान्यता व्यक्त की है कि ‘जिन्हें अपनी बात तर्कसंगत ढंग से कहने की आदत नहीं है वे अच्छे कवि नहीं हो सकते।’ (वाटसन)
अपने मत के समर्थन में उन्होंने होरेस को उद्धृत किया हेै जिसके अनुसार ‘‘आनन्द के लिए जो साहित्य रचा जाए उसे सत्य के नजदीक होना चाहिए।’’ (आर्स पाइटिका)
प्रतिभा ईश्वर प्रदत है-
ड्राइडन कवि-प्रतिभा को ईश्वर प्रदत्त मानते हैं। कवि के लिए नितांत वांछनीय होने के बावजूद इसे कैसे प्राप्त करें, इस बारे में न तो कोई नियम थे और न निर्धारित ही किए जा सकते हैं-
‘‘उचित प्रतिभा प्रकृति का वरदान है। यह ग्रहों के प्रभाव पर निर्भर है – ऐसा ज्योतिषी कहते है। शरीर के अंग-विन्यास पर निर्भर है – ऐसा प्रकृति विज्ञानी कहते है। यह ईश्वरीय वरदान है – ऐसा धर्मतत्वज्ञ मानते हैं। इसमें परिष्कार कैसे किया जाए, यह अनेक ग्रन्थ बता सकते है, किंतु इसे प्राप्त कैसे करें यह बताने वाला कोई भी ग्रन्थ नहीं है।’’ (वाटसन)
वस्तु रूप से अधिक महत्वपूर्ण-
उनके अनुसार वस्तु और संरचना का प्राथमिक महत्व है जबकि शब्दों का स्थान अंतिम है। कविता में अभिव्यक्ति पाठक को आकर्षित करती है और रचना-विधान (डिजाइन) को सौन्दर्य से मंडित करती है। किन्तु साथ ही रचना-विधान भी अच्छा होना चाहिए।
निष्कर्षतः ड्राइडन द्वारा यद्यपि कवि की कल्पना शक्ति के रचनात्मक पक्ष पर बल दिया गया है, मगर ललित कल्पना (फैंसी) और कल्पना (इमेजिनेशन) का प्रयोग ललित कल्पना के अर्थ में – विवेक-शून्य शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। विवेक कवि-कल्पना का अंतरंग तत्व नहीं है जैसा कि आज माना जाता है। कॉलरित ने इन दोनों शक्तियों के अंतर को निर्भ्रांत रूप से व्यक्त किया है और कवि-कल्पना के स्वरूप का विवेचन किया। इस प्रकार ड्राइडन में प्राप्त कल्पना-शक्ति का विवेचन कालरिज के कल्पना सिद्धांत की भूमिका के रूप में लक्षित होता है।