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अलंकार सिद्धांत

अलंकार शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है – करणपरक और भावपरक।

1- अलंक्रियते{नेन इति अलंकारः। (जिसक द्वारा अलंकृत किया जाता है)

अथवा

अलंकरोति इति अलंकारः। (जो अलंकृत करता है)

इन दोनों करणपरक व्युत्पत्तियों में कोई अंतर नहीं है, दोनों का तात्पर्य यही है कि जिस तत्व से काव्य की शोभा होती है उसे अलंकार कहते हैं, किंतु फिर भी, वाच्य-प्रयोग के आधार पर पहली व्युत्पत्ति कवि की दृष्टि से मानी जा सकती है, जो कि काव्य-रचना के समय सायास अथवा अनायास रूप से अलंकारों का प्रयोग करता है, और दूसरी व्युत्पत्ति समीक्षक की दृष्टि से मानी जा सकती है, जो यह देखता है कि कवि द्वारा किन अलंकारों का प्रयोग समीक्ष्य रचना में किया गया है।

2- ‘अलंकृतिः अलंकारः’ यह अलंकार शब्द की भावपरक व्युत्पत्ति है, अर्थात् अलंकरण (शोभा, सजावट) को अलंकार कहते हैं।

अलंकारवादी आचार्य और अलंकार सिद्धांत

सर्वप्रथम भरत के नाट्यशास्त्र में केवल निम्नोक्त चार अलंकारों का उल्लेख मिलता है – उपमा, रुपक, दीपक और यमक, किन्तु अभी अलंकार सिद्धांत का जन्म नहीं हुआ था। अलंकार सिद्धांत का प्रवर्तक भामह (छठी शती ई0) को माना जाता है। जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ काव्यालंकार (भामहालंकार) है। भामह ने 37 अलंकारों का निरुपण किया, तथा अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व घोषित किया। भामह का अनुकरण दण्डी ने किया और भामह और दण्डी का उद्भट ने। इन तीनों अलंकारवादी आचार्यों की निम्नोक्त मान्यताओं से स्पष्ट है कि वे अलंकार को काव्य का सर्वस्व एवं अनिवार्य तत्व स्वीकार करते थे-

1- भामह ने अलंकार को काव्य का एक आवश्यक आभूषक तत्व मानते हुए कहा है कि –

(क) अनेक आचार्यों द्वारा प्रस्तुत रुपक आदि अलंकार काव्य में इस प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार किसी नारी का सुन्दर मुख भी आभूषणों के बिना शोभित नहीं होता-

रुपकादिरंलकारस्तथान्यैर्बहुघोदितः।
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्।। (काव्यालंकार 1-13)

(ख) अर्थ-मर्मज्ञों की वाणी अलंकार-समूह के द्वारा उस प्रकार शोभित होती है, जिस प्रकार नारी अलंकारों से शोभित हो जाती है –

अनेन वागर्थविदामलंकृता, विभाति नारीव विदग्धमण्डना। (काव्यलंकार 3-58)

2- ये आचार्य काव्य के सभी शोभाकर धर्मों को अलंकार नाम से अभिहित करने के पक्ष में हैं। दण्डी के शब्दों में –

काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते’ (काव्यादर्श 2-1)

(क) इन आचार्यों ने अंगीभूत रस, भाव, रसाभास, भावाभास तथा भावशांति को, परवर्ती आनन्दवर्धन आदि आचार्यों के समान इन्हीं नामों से अभिहित न कर क्रमशः रसवत्, प्रेयस्वत्, ऊर्जस्वित और समाहित अलंकार नाम दिया। (काव्यालंकार – भामह) (काव्यादर्श – दण्डी) (काव्यालंकारसंग्रह – उद्भट)

(ख) गुण को यद्यपि स्पष्टतः अलंकार नहीं कहा गया किन्तु दण्डी के एक कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि माधुर्य आदि दस गुणों को उन्हें साधारण अलंकार कहना अभिष्ट है। (काव्यादर्श)

(ग) ये आचार्य न केवल ध्वनि अथवा व्यंजना-तत्व से परिचित थे, अपितु वे इसका अन्तर्भाव उक्त अलंकारों में प्रकारान्तर से करना चाहते थे। निदर्शन के लिए पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण लीजिए-

‘पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणा{भिधीयते।
वाच्यवाचकवृत्तिभ्यां शून्येना{वगयात्मना।। (काव्यालंकारसंग्रह 5-6)

(घ) दण्डी ने प्रबंधकाव्य को ‘भाविक’ अलंकार नाम दिया है तथा नाट्यशास्त्र से संबंध संधि, संध्यंग, वृत्ति, वृत्त्यंग को तथा 36 लक्षणों को वे स्वभावोक्ति उपमा आदि अलंकारों के अंतर्गत समाविष्ट करने के पक्ष में है-

यच्च सन्ध्यंगवृत्त्यंगलक्षणाद्याग्मान्तरे।
व्यावर्णितमिदं चेष्टमलंकारतयैव नः।। (काव्यादर्श 2-367)

अलंकार सिद्धांत का खण्डन तथा अलंकार का मान्य रूप

आगे चलकर अलंकार-सिद्धांत का खण्डन किया गया। दण्डी द्वारा प्रस्तुत अलंकार के उक्त लक्षण को ही अस्वीकृत करके मानो अलंकार सिद्धांत को जड़ से उन्मूलित कर दिया गया-

दण्डी ने अलंकार का जो लक्षण दिया था, वामन ने वही लक्षण गुण का प्रस्तुत किया-

दण्डी – काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते।

वामन – काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः।

इतना ही नहीं, वामन ने गुण को काव्य में नित्य स्थान दिया और अलंकार को अनित्य-पूर्वे नित्याः। उनके कथनानुसार गुण यदि काव्य के शोभाकारक धर्म हैं तो अलंकार उस शोभा के वर्धक हैं –

तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः।

इस प्रकार वामन की दृष्टि में अलंकार का महत्व गुणों की अपेक्षा कम हो गया।

इसके पश्चात् आनन्दवर्धन ने अलंकार का नूतन लक्षण प्रस्तुत करते हुए इसका महत्व और भी कम कर दिया और इनकी स्थिति इस रूप में स्वीकृत की, जैसी कि शरीर के कटक, कुण्डल आदि शोभाकारक आभूषणों की होती है –

अंग्राश्रितास्त्वलंकाराः मन्तव्याः कटकादिवत् (ध्वन्यालोक 2-6)

यहाँ अंग से तात्पर्य है शब्दार्थ – रूप काव्यशरीर।

आनन्दवर्धन की इसी मान्यता को आगे बढ़ाते हुए मम्मट और फिर, विश्वनाथ ने अलंकार का लक्षण निम्नोक्त रूप में प्रस्तुत किया – अलंकार उन्हें कहते हैं जो शब्दार्थ – रूप काव्य-शरीर के अस्थिर धर्म के रूप में उसकी अतिशय शोभा बढ़ाते हुए रसादि का प्रायः उपकार करते हैं।

इसके बाद जगन्नाथ के अनुसार ‘अलंकार’ उन्हें कहते हैं जो काव्य की आत्मा ‘व्यंग्य’ की रमणीयता के प्रयोजक हैं।

अन्ततः उल्लेख्य है कि ध्वनिवादी आनन्दवर्धन ने समस्त काव्य के तीनों रूपों को ध्वनि-सिद्धान्त के विशाल अंतराल में समाविष्ट करने के उद्देश्य से ध्वनि (व्यंग्यार्थ) के तारतम्य के आधार पर काव्य को तीन प्रमुख प्रकारों में विभक्त करते हुए व्यंग्यार्थ-प्रधान काव्य को ‘ध्वनि-काव्य’ नाम दिया, व्यंग्यार्थ-अप्रधान काव्य को ‘गुणीभूव्यंग्य काव्य’, और इनसे ‘अन्यत्’ काव्य को ‘चित्र काव्य’, और इसी ‘चित्रकाव्य’ को आनन्दवर्धन ने ‘अलंकार-निबंध’ नाम भी दिया है।

आगे चलकर, मम्मट ने चित्रकाव्य वहाँ स्वीकृत किया जहाँ काव्य ‘अव्यंग्य’ अर्थात् स्फुट-व्यंग्यार्थ-रहित हो। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब ‘व्यंग्यार्थ’ अलंकार के चमत्कार के आधिक्य के कारण (अथवा गुणों की वर्ण-व्यंजकता के चमत्कार के आधिक्य के कारण) ‘अस्फुट’ बनकर रह जाए और यह ‘चित्रकाव्य’ अवर काव्य कहाता है।

मूल्यांकन –

इस प्रकार हमने देखा कि अलंकारवादियों का ‘अलंकार’ अब काव्य का अनिवार्य तत्व न रह कर शब्दार्थ की शोभा के माध्यम से रस का उपकारक बन गया, और वह भी नित्य रूप से नहीं। मम्मट का ‘अनलंकृती पुनः क्वापि’ कथन इसी अवहेलना का द्योतक है। इस प्रकार अलंकार को ‘काव्य की आत्मा’ मानने का प्रश्न आनन्दवर्धन, मम्मट आदि आचार्यों के मत में तो उत्पन्न ही नहीं होता। भामह, दण्डी और उद्भट आदि आचार्यों के मत में भी अलंकार को काव्य की आत्मा नहीं मान सकते, क्योंकि उनके मत में भी अलंकार काव्य का अनिवार्य माध्यम (साधन) होते हुए भी यह अधिकांशतः बाह्यपकर तत्व है, किन्तु ‘आत्मा’ कहाने व्यंग्य काव्य तत्व वह होता है जो कि काव्य का अनिवार्य साधन होने के साथ-साथ आन्तरिक साधन भी हो।