काव्य हेतु से तात्पर्य
काव्य हेतु से तात्पर्य वह तत्व जो काव्य रचना का कारण बनता है। संसार में हमारे साथ अथवा अन्य व्यक्तियों के साथ घटित घटनाओं का हमारे मन पर जो प्रभाव पड़ता है उसे हम प्रायः अभिव्यक्त करना चाहते हैं। इस प्रभाव की यथावत् एवं साधारण शब्दावली में अभिव्यक्ति को ‘वार्ता’ कहते हैं और कल्पनाश्रित एवं असाधारण शब्दावली में प्रस्तुत अभिव्यक्ति को काव्य कहते हैं। काव्यरचना का सामर्थ्य प्रत्येक व्यक्ति में नहीं होता, केवल उसी व्यक्ति में होता है जो विशिष्ट प्रकार की प्रतिभा से सम्पन्न होता है। यही प्रतिभा काव्य का हेतु है, किन्तु भारतीय व पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों ने इसके अतिरिक्त अन्य हेतुओं का भी उल्लेख किया है।
(क) भारतीय काव्यशास्त्रियों के अनुसार काव्य हेतु
दण्डी के अनुसार काव्य हेतु –
(i) नैसर्गिकी प्रतिभा
(ii) निर्मल शास्त्र ज्ञान
(iii) अमंद अभियोग (अभ्यास)
रुद्रट और कुंतक के अनुसार काव्य हेतु
(i) शक्ति
(ii) व्युत्पत्ति
(iii) अभ्यास
वामन के अनुसार काव्य हेतु
(i) लोक
(ii) विद्या
(iii) प्रकीर्ण
- लक्ष्यज्ञता अथवा काव्यों का अनुशीलन
- अभियोग अथवा अभ्यास
- वृद्धसेवा अथवा गुरुद्वारा शिक्षा प्राप्ति
- अवेक्षण अथवा उपयुक्त शब्दों का चयन
- प्रतिभा
- अवधान अथवा चित्त की एकाग्रता
मम्मट के अनुसार काव्य हेतु
शक्तिर्निपुणता लोक-शास्त्र काव्याद्यवेक्षणात्।
काव्यज्ञ-शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।। (काव्यप्रकाश 1.3)
(i) शक्ति या प्रतिभा
(ii) लोक, काव्यशास्त्र तथा काव्य आदि के अवेक्षण (क्रमशः निरीक्षण तथा अभ्यास से प्राप्त निपुणता या व्युत्पत्ति।
(ख) पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों के अनुसार काव्य हेतु
प्लेटो के अनुसार काव्य हेतु
‘कवि विक्षिप्त प्राणी है और उसका काव्य विक्षिप्त क्षणों की वाणी।’
अरस्तू के अनुसार काव्य हेतु
‘काव्य की मूल प्रेरणा है – अनुकरण की प्रवृति जो मानव को बाल्यावस्था से ही प्राप्त होती है।
होरेस के अनुसार काव्य हेतु
ये भी अनुकरण को काव्य का प्रेरक हेतु स्वीकार करते हैं और साथ ही उन्होंने काव्य रचना में प्रतिभा और शास्त्रज्ञान के समीकरण और सजग विवेक की ओर भी स्पष्ट संकेत किया है।
काँट व हीगेल के अनुसार काव्य हेतु
सौन्दर्य की अनुभूति के क्षणों में हमारी आत्मा में आनंद का जो स्रोत आविर्भूत होता है, उसी का उच्छलन कविता है।
वर्ड्सवर्थ के अनुसार काव्य हेतु
‘काव्य का जन्म शांति के क्षणों में स्मरण किये गये प्रबल मनोवेगों से होता है।’
यदि भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों द्वारा काव्यहेतु पर दिये गये मन्तव्यों पर ध्यान दिया जाए तो हमें काव्यहेतु के लिए मुख्यतः तीन नाम प्राप्त होते हैं-
- शक्ति
- व्युत्पत्ति
- अभ्यास
1. शक्ति –
शक्ति अथवा प्रतिभा के लक्षण प्रसंग में इन आचार्यों के कथन उल्लेखनीय हैं-
रुद्रट –
”मनसि सदा सुसमाधिनि विस्फुरणमनेकधाSभिधेयस्य।
अक्लिष्टानि पदानि च विभान्ति यस्यामसौ शक्ति:॥” (काव्यलंकार 1.15)
अर्थात् जिसके बल पर कवि विभिन्न काव्य-विषयों को अनुकूल शब्दों में अनायास अभिव्यक्त कर देता है, उसे शक्ति कहते हैं।
भट्टतौत
प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता (साहित्यदर्पण, काणे : नोट्स)
अर्थात् नये-नये अर्थों का स्वतः उद्घाटन करने वाली प्रज्ञा, प्रतिभा कहाती है।
कुंतक
प्राक्तनाद्यतन-संस्कार-परिपाक-प्रोढा प्रतिभा काचिदेव कवीशक्ति:।
(वक्रोक्तिजीवित 1.29 वृति)
अर्थात् पूर्वजन्म तथा इस जन्म के संस्कार से प्रोढ़ता को प्राप्त विशिष्ट कवित्व-शक्ति प्रतिभा कहाती है।
मम्मट
शक्ति: कवित्वबीज: संस्काररूप:। (काव्यप्रकाश 1.3 वृति)
अर्थात् कवित्व-निर्माण के बीजरूप विशिष्ट संस्कार को शक्ति कहते हैं।
जगन्नाथ
सा (प्रतिभा) काव्यघटनानुकूल-शब्दोपस्थिति:। (रसगंगाधर, 1म आनन)
अर्थात् काव्य-रचना के अनुकूल शब्द और अर्थ को प्रस्तुत करने की क्षमता को प्रतिभा कहते हैं।
उक्त लक्षणों में से रुद्रट और जगन्नाथ के लक्षण काव्य के बाह्य तत्व – शब्द और अर्थ की ओर संकेत करते हैं तो भट्टतौत का लक्षण काव्य के आंतरिक तत्व नव-नव अर्थ की ओर। कुंतक और मम्मट के अनुसार प्रतिभा हमारे पूर्व जन्मों के संस्कारों से उद्भुत होती है। परंतु इस जन्म के संस्कारों का उल्लेख उन्होंने कहीं नहीं किया। आचार्य वाग्भट्ट ने प्रतिभा का समग्र स्वरूप का परिचय देते हुए उसका लक्षण निम्न प्रकार बताया है-
प्रसन्नपद-नव्यार्थ-युक्त्युद्बोध-विधायिनी।
स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी॥ (वाग्भटालंकार 1.4)
2. व्युत्पत्ति
व्युत्पत्ति उस निपुणता को कहते हैं जो विभिन्न काव्यों तथा शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन अथवा लोक-व्यवहार ज्ञान द्वारा प्राप्त होती है। व्युत्पत्ति काव्य का हेतु नहीं है, अपितु प्रतिभा का परिष्कारक हेतु है। इसके द्वारा ‘सहजा’ प्रतिभा परिपुष्ट, परिष्कृत, प्रखर, चमत्कृत, शक्तिसम्पन्न, मर्मस्पर्शिनी और सारग्राहिणी हो उठती है। पर इससे प्रतिभा के अभाव की पूर्ति नहीं हो सकती, अन्यथा सभी काव्यमर्मज्ञ, काव्यशास्त्र तथा लोकव्यवहार-पटु व्यक्ति काव्य-रचना करने लगते और अशिक्षित एवं ग्रामीण कवियों द्वारा सुंदर ग्राम्यगीतों की रचना संभव न होती। संस्कृत आचार्य यायावर ने इसलिए कहा है कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति मिलकर काव्य का उपकार करती है-
“प्रतिभाव्युत्पत्ति मिथ: समवेते श्रेयस्यो।”
3. अभ्यास
संस्कृत काव्यशास्त्र में अभ्यास को परिशीलन ही कहा गया है।
अभ्यास इति मंगल:। अविच्छेदेन शीलनमभ्यास।
स हि सर्वगामी सर्वत्र निरतिशयं कौशलमादत्ते। (काव्यमीमांसा – राजशेखर)
परंतु यह काव्य का न तो अनिवार्य हेतु है, न प्रमुख हेतु और न आवश्यक हेतु, क्योंकि ऐसे भी कवि संसार में हो चुके हैं जिनकी प्रथम रचना उनकी अमर कृति है। उदाहरणार्थ, वाल्मीकि का प्रसिद्ध प्रथम श्लोक –
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥ (उत्तररामचरित 2.5)
प्रतिभा की सर्वोत्कृष्टता एवं अनिवार्यता:-
उक्त तीन काव्य हेतुओं में से प्रतिभा को अनेक आचार्यों ने स्पष्ट रूप से या प्रकरान्तर से सर्वोत्कृष्ट घोषित किया है-
1. दंडी ने प्रतिभा को आवश्यक हेतु माना है, पर इसके अभाव में भी शास्त्रज्ञान और अभ्यास के द्वारा कभी-कभी काव्य की स्वीकृति उन्होंने कर ली है।
(काव्यादर्श 1.104)
2. आनंदवर्धन के अनुसार, शक्ति के बिना यथार्थ काव्य की रचना हो ही नहीं सकती-व्युत्पत्ति के अभाव से यदि कवि द्वारा कोई दोष हो जाता है तो कवि की प्रतिभा उसे दूर कर देती है, पर प्रतिभा के अभाव से जन्य दोष तो तुरंत ज्ञात हो जाता है।
3. मम्मट के अनुसार शास्त्र पठन तो गुरु के उपदेश द्वारा जड़मति के लिए भी संभव है, पर काव्य-निर्माण के लिए प्रतिभा अपेक्षित है। (काव्यालंकार 1.5)
4. वामन और मम्मट के शब्दों में – प्रतिभा ही कवित्व का बीज है।
(काव्यालंकारसूत्रवृति 1.6.36)(काव्यप्रकाश 1.3)
5. हेमचन्द्र ने प्रतिभा को तो काव्य का हेतु माना और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को परिष्कारक हेतु कहा।
6. जगन्नाथ ने या भी माना की व्युत्पत्ति और अभ्यास के अभाव में कभी-कभी अदृष्ट भी प्रतिभा का उत्पादक कारण बन जाता है। अदृष्ट कहते हैं – किसी देवता अथवा महापुरुष की कृपा से प्राप्त वरदान को। (रसगंगाधर)
उक्त मंतव्यों में से हेमचन्द्र का मंतव्य सर्वाधिक पुष्ट है कि काव्य-रचना का एकमात्र हेतु है-प्रतिभा। व्युत्पत्ति और अभ्यास, ये दोनों प्रतिभा के परिष्कारक हेतु हैं, न कि काव्य के।
वस्तुत: इनमें से कोई भी अकेला सिद्धान्त काव्य सर्जन का कारण नहीं माना जा सकता। इनका समन्वित रूप ही स्वीकार हो सकता है। इस संबंध में डा॰ नगेंद्र के निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
1. काव्य के पीछे आत्माभिव्यक्ति की प्रेरणा है।
2. यह प्रेरणा व्यक्ति के अंतरंग; अर्थात् उसके भीतर होने वाले आत्म और अनात्म के संघर्ष से उद्भुत होती है।
3. हमारे आत्म का निर्माण जिन प्रवृतियों से होता है, उनमें कामवृत्ति का प्राधान्य है। अत: हमारा आत्म-अनात्म का संघर्ष मुख्यत: काममय है, और ललित साहित्य चूंकि रचनात्मक होता है, अत: उसकी प्रेरणा में कामवृत्ति की प्रमुखता असंदिग्ध है।