गुण
भरत के अनुसार गुण – एते दोषास्तु विज्ञेया —- एत एव विपर्यस्ताः गुणाः। (नाट्यशास्त्र)
भरत ने पहले प्रगूढ़, अर्थान्तर आदि दस दोष बताये और फिर श्लेष, प्रसाद आदि दस गुण। उनके अनुसार दस गुण उक्त दस दोषों के विपर्यस्त हैं।
दण्डी के अनुसार गुण – ‘दोषाः विपत्तये तत्र गुणाः सम्पत्तये तथा। (काव्यादर्श) अर्थात् दोष यदि काव्य की विपत्ति के लिए होता है तो गुण काव्य की सम्पत्ति के लिए। इन्होंने भी दस गुण माने हैं।
वामन के अनुसार गुण – ‘काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः।’ (काव्यादर्श सूत्रवृत्ति) अर्थात् काव्य की शोभा करने वाले धर्म गुण कहलाते हैं। इन्होंने दस शब्दगुण और दस अर्थ गुण मानते हुए बीस गुण माने हैं।
आनन्दवर्धन के अनुसार गुण – तमर्थमवलम्बन्ते ये {िîõनं ते गुणाः स्मृताः। (ध्वन्यालोक) अर्थात् जो काव्य के अंगीभूत अर्थात् रस का अवलम्बन करते हैं वे गुण कहलात हैं। इन्होंने केवल तीन गुण माधुर्य, ओज और प्रसाद ही माने।
मम्मट और विश्वनाथ – गुण रस का धर्म होने के कारण उसके साथ अचल भाव से रहता है और उसका उत्कर्षक (साधक) है, साथ ही वह गौण रूप से शब्दार्थ का भी धर्म है।
तीन प्रमुख गुणों के लक्षण
1- माधुर्य गुण – यह गुण संयोग शृंगार, करुण, विप्रलम्भ शृंगार और शांत रसों में क्रम से बढ़ा हुआ रहता है। इस गुण के व्यंजक वर्ण है – ट, ठ, ड और ड़ को छोड़कर शेष स्पर्श वर्ण। इस गुण में समास का सर्वथा अभाव होता है, या समास छोटा होता है। रचना मधुर होती है। इसमें वैदर्भी रीति और उपरागरिका वृत्ति होती है।
2- ओज गुण – वीर, बीभत्स और रौद्र रसों में क्रम से इस गुण की अधिकता रहती है। इस गुण के व्यंजक वर्ण हैं – वर्गों के पहले अक्षर के साथ मिला हुआ उसी वर्ग का दूसरा अक्षर, और तीसरे अक्षर के साथ मिला हुआ उसी वर्ग का चौथा अक्षर। जैसे क्ख, ग्घ, च्छ, ज्झ आदि। इसके अतिरिक्त आगे या पीछे रकार से युक्त अक्षर। जैसे र्क, क्र आदि तथा ट, ठ, ड, ढ, श, ष। इस गुण में लम्बे-लम्बे समास होते हैं तथा रचना उद्धत होती है। इसमें गौड़ी रीति और परुषा वृत्ति होती है।
3- प्रसाद गुण – प्रसाद गुण के व्यंजक ऐसे सरल और सुबोध पद होते हैं जिनके सुनते ही इनके अर्थ की प्रतीति हो जाए। यह गुण सभी रसों और सभी प्रकार की रचनाओं में रह सकता है। इसकी रचना सबोध होती है। इसमें पांचाली रीति और कोमला वृत्ति होती है।
दोष
दण्डी के अनुसार दोष – दोषाः विपत्तये तत्र गुणाः सम्पत्तये तथा। (काव्यादर्श) अर्थात् दोष काव्य की विपत्ति के लिए होता है।
वामन के अनुसार दोष – गुणविपर्ययात्मनो दोषाः। (काव्यदर्श सूत्रवृत्ति) अर्थात् दोष गुण से विपर्ययात्मक (विपरीत) होते हैं।
भरत के अनुसार दोष – एते दोसास्तु विज्ञेयाः —– एत एव विपर्यस्ताः गुणाः। (नाट्यशास्त्र)
आनन्दवर्धन के अनुसार दोष – जहाँ कोई दोष रस का अपकर्ष करता है वहाँ तो वह दोष है, किन्तु जहाँ इससे रस में अपकर्ष नहीं आता, वहाँ दोष की स्वीकृत्ति नहीं की जानी चाहिए। इसी आधार पर उन्होंने दोष के नित्य और अनित्य रूप की व्यवस्था की।
मम्मट के अनुसार दोष – मुख्यार्थहतिर्दोषः, रसश्च मुख्य। हतिरपकर्षः। (काव्यपकाश) अर्थात् दोष उसे कहते हैं जो मुख्यार्थ अर्थात् रस का अपकर्ष करता है।
दोष-भेद
(क) पद-दोष
- श्रुतिकटु पद-दोष
- च्युतसंस्कृति पद-दोष
- अप्रयुक्त पद-दोष
- क्लिष्टता पद-दोष
(ख) वाक्य-दोष
- वर्ण-प्रतिकूलता
- न्यूनपदता
- अधिकपदता
- कथितपदता
- समाप्तनरात्तता
- संकीर्णता
- गर्भिता
(ग) अर्थ-दोष
- पुनरुक्त
- दुष्क्रम
- संदिग्ध
(घ) रस-दोष
- स्वशब्दवाच्य
- विभाव और अनुभाव की कष्ट-कल्पना
- प्रतिकूल-विभावदि का ग्रहण
- रस की बार-बार दीप्ति
- अकाण्ड (अनवसर) पर रस का प्रतिपादन
- अकाण्ड (अनवसर) पर रस का विच्छेद
- अंग की अति विस्तृति
- अंगी की उपेक्षा
- प्रकृति का विपर्यय
- अनंग-कथन अर्थात् अप्रासंगिक वर्णन