(क) यादृच्छिकता – यादृच्छिकता का अर्थ है ‘जैसी इच्छा हो’ या ‘माना हुआ’। हमारी भाषा में किसी वस्तु या भाव का किसी शब्द से सहज-स्वाभाविक या तर्कपूर्ण संबंध नहीं है, वह समाज की इच्छानुसार मात्र माना हुआ संबंध है। यदि सहज-स्वाभाविक संबंध होता तो सभी भाषाओं में एक वस्तु के लिए एक ही शब्द होता।
एक विशेष प्रकार के फूल को हम इसलिए कहते हैं कि हम परंपरागत रूप से उसको गुलाब कहते आ रहे हैं।
चिड़िया को हम खग ही कहें यह आवश्यक नहीं है उसे हम पक्षी भी कह सकते है। उसमें स्वत: ऐसा गुण नहीं है जिसके कारण हमें उसे खग कहना पड़ता हो। वह आकाशगामी है इसलिए उसे खग कहते हैं यह तर्क भाषा की यादृच्छिकता का खंडन नहीं करता। यदि ऐसा ही है तो हम वायुयान और अंतरिक्ष यात्रियों को भी खग लगते। हम पक्षियों को खग इसलिए कहते हैं क्योंकि परंपरागत अनुसार खग में इसी शब्द का समावेश करते रहे हैं।
(ख) सृजनात्मकता (उत्पादन क्षमता) – भाषा स्वरों और व्यंजनों के रूप में उपलब्ध सीमित साधनों का उपयोग कर असीमित वाक्य रचना कर सकती है किसी भी भाषा का अंतिम वाक्य आज तक बोला अथवा लिखा नहीं गया है।
(ग) द्वयात्मकता अभिरचना – किसी संदेश को व्यक्त करने की प्रक्रिया पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि उसके दो निश्चित स्तर हैं। पहले स्तर का संबंध अर्थ से है। अभिव्यक्ति के दूसरे स्तर का संबंध अभिव्यक्ति माध्यम (ध्वनि) की इकाइयों से रहता है।
उदाहरण के लिए अगर विचार की न्यूनतम इकाई जल है तब उसकी अभिव्यक्ति की न्यूनतम इकाई है – ज् + अ + ल् + अ। ध्वनि की इन इकाइयों का अपना कोई अर्थ नहीं होता। केवल इनका अपना रूप और प्रकार्य होता है और यह अर्थभेदक होती हैं।
पहले स्तर को रूपिम कहा जाता है दूसरे को स्वनिम कहते हैं यह अभिलक्षण इस और संकेत करता है कि मानव भाषा एक साथ दो अभिरचनाओं के प्रतिफलन का परिणाम है।
(घ) अंतर्विनियमता – भाषा का अस्तित्व तभी संभव है जब कोई एक वक्ता और कोई एक श्रोता हो। साथ ही वक्ता और श्रोता की भूमिका भी बदलती रहनी चाहिए।
(ङ) विस्थापन – भाषा का एक प्रमुख लक्षण यह है कि हम एक ही समय में भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के संबंध में बातचीत कर सकते हैं। मनुष्य तथ्यों के अतिरिक्त काल्पनिक चीजों के बारे में भी बातें कर लेता है। साहित्य का आधार यह कल्पना ही है।
(च) विविक्तता – मानव भाषा का स्वरूप ऐसा नहीं है जो पूरा अविच्छिन्न रूप से एक हो। वह तत्वतः कई घटको या इकाइयों में विभाज्य है।
उदाहरण के लिए वाक्य एकाधिक शब्दों से बनता है और शब्द एकाधिक ध्वनियों से। यह विभाज्यता अन्य जीवों की भाषा में नहीं मिलती।
(छ) मौखिक श्रव्य माध्यम – इसमें मौखिक श्रव्य दोनों माध्यमों का उपयोग करना पड़ता है। यह अभिलक्षण इस ओर भी संकेत करता है कि भाषा मूलतः मौखिक होती है। उसका लिखित रूप इस मौखिक रूप पर ही आधारित होता है।
भाषा की इसी विशेषता के कारण गार्ड का झंडी हिलाना, मधुमक्खियों का नृत्य करके संप्रेषण करना आदि भाषा की श्रेणी में नहीं आ सकते।
(ज) परिवर्तनशीलता – कुत्ते पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही प्रकार की भाषा का प्रयोग करते आ रहे हैं। संस्कृत का कर्म, प्राकृत काल में कम्म हो गया और आधुनिक युग में काम।
(झ) विशेषज्ञता – भाषा का यह है वैशिष्ट्य है कि अन्य कार्य करते हुए भी संप्रेषण प्रक्रिया में लिप्त रहा जा सकता है। मानव भाषा प्रयोग का इतना अभ्यस्त हो जाता है कि अन्य किसी भी कार्य से भाषा में व्यवधान उत्पन्न नहीं होता।
उदाहरण के लिए स्वेटर बुनती तथा खाना बनाती हुई महिला अन्य कामों में भी लगी रहने के साथ-साथ आसानी से बातचीत भी करती रहती है।
(ञ) अनुकरण ग्राह्यता – जन्म से कोई व्यक्ति भाषा नहीं जानता वह अनुकरण के कारण ही भाषा सीखता है और उसका प्रयोग करता है
(ट) सांस्कृतिक संचरण अथवा परंपरा – किसी हिंदी भाषी बच्चे को यदि प्रारंभ से ही अंग्रेजी बोलने वाले समाज में रखा जाए तो वह अंग्रेजी ही सीखेगा हिंदी नहीं।
(ठ) वाक्छल – कभी कभी किसी भाषा का वाक्य व्याकरणिक दृष्टि से तो शुद्ध हो सकता है किंतु यह आवश्यक नहीं है कि वह वाक्य अर्थ की दृष्टि से भी शुद्ध हो। जैसे – वह पत्थर से पेड़ को सींचता है।