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माता का अँचल
(पाठ का सार)
शब्दार्थ : मृदंग – एक तरह का वाद्य यंत्र। तड़के – सवेरे। लिलार – ललाट, माथा। त्रिपुंड – एक प्रकार का तिलक जिसमें ललाट पर तीन आड़ी या अर्धचंद्राकार रेखाएँ बनाई जाती हैं। उतान – पीठ के बल लेटना। सानकर – मिलाना, लपेटना, गूँथना। अफर – भर पेट से अधिक खा लेना। ठौर – स्थान, अवसर। महतारी – माता। कड़वा तेल – सरसों का तेल। बोथकर – सराबोर कर देना। चंदौआ – छोटा शामियाना। ज्योनार – भोज, दावत। जीमने – भोजन करना। अमोले – आम का उगता हुआ पौधा। ओहार – पर्दे के लिए डाला हुआ कपड़ा। कसोरे – मिट्टी का बना छिछला कटोरा। रहरी – अरहर। अँठई – कुत्ते के शरीर में चिपके रहने वाले छोटे कीड़े, किलनी। चिरौरी – दीनतापूर्वक की जाने वाली प्रार्थना, विनती। ओसारे – बरामदे। अमनिया – साफ, शुद्ध।
‘माता का आंचल’ के लेखक शिवपूजन सहाय हैं। दरअसल ‘माता का अंचल’ शिवपूजन सहाय के सन 1926 में प्रकाशित उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ का एक छोटा सा अंश (छोटा सा भाग) हैं। इस कहानी में लेखक ने माता पिता के वात्सल्य, दुलार व प्रेम, अपने बचपन, ग्रामीण जीवन तथा ग्रामीण बच्चों द्वारा खेले जाने वाले विभिन्न खेलों का बड़े सुंदर तरीके से वर्णन किया है। साथ में बात-बात पर ग्रामीणों द्वारा बोली जाने वाली लोकोक्तियों का भी कहानी में बड़े खूबसूरत तरीके से इस्तेमाल किया गया है। यह कहानी मातृ प्रेम का अनूठा उदाहरण है। यह कहानी हमें बताती है कि एक नन्हे बच्चे को सारी दुनिया की खुशियाँ, सुरक्षा और शांति की अनुभूति सिर्फ माँ के आंचल तले ही मिलती है।
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माता का अँचल
(प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – प्रस्तुत पाठ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बच्चे का अपने पिता से अधिक जुड़ाव था, फिर भी विपदा के समय वह पिता के पास न जाकर माँ की शरण लेता है। आपकी समझ से इसकी क्या वजह हो सकती है?
उत्तर – यह बात बिलकुल सत्य है कि बालक लेखक को अपने पिता से अधिक लगाव था। उसके पिता उसका लालन-पालन करने के साथ-साथ उसके साथ मित्र जैसा व्यवहार भी करते थे। लेकिन विपत्ति आने पर उसे अत्यधिक लाड़, ममता और माँ की गोदी की जरूरत थी। जो उसे अपनी माँ से मिल सकती थी, पिता से नहीं। माँ का लाड़ घाव को भरने वाले मरहम का काम करता है। इसी कारण से संकट में बच्चे को माँ की याद आती है, पिता की नहीं।
प्रश्न – आपके विचार से भोलानाथ अपने साथियों को देखकर सिसकना क्यों भूल जाता है?
उत्तर – शिशु की स्वाभाविक आदत है कि उसे अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलना अच्छा लगता है। अपनी उम्र के साथ जिस रुचि से खेलता है वह रुचि बड़ों के साथ नहीं होती है।
दूसरा एक मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है – बालक को अपने साथियों के बीच रोने में हीनता का अनुभव होता है। यही कारण है कि भोलानाथ अपने साथियों को देखकर सिसकना भूल जाता है।
प्रश्न – आपने देखा होगा कि भोलानाथ और उसके साथी जब-तब खेलते-खाते समय किसी नकिसी प्रकार की तुकबंदी करते हैं। आपको यदि अपने खेलों आदि से जुड़ी तुकबंदी याद हो तो लिखिए।
उत्तर – छात्र स्वयं अपने अनुभव लिखें।
प्रश्न – भोलानाथ और उसके साथियों के खेल और खेलने की सामग्री आपके खेल और खेलने की सामग्री से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर – भोलानाथ और उसके साथियों के खेल और खेलने की सामग्री से हमारे खेल और खेल सामग्रियों में कल्पना से अधिक अंतर आ गया है।
भोलानाथ के समय में खेलने की स्वच्छंदता थी। बाहरी घटनाओं-अपहरण आदि का डर नहीं था। खेल की सामग्री स्वयं बच्चों द्वारा निर्मित होती थीं। घर की अनुपयोगी वस्तु ही उनके खेल की सामग्री बन जाती थी, जिससे किसी प्रकार ही हानि की संभावना नहीं थी। धूल- मिट्टी से खेलने में पूर्ण आनंद की अनुभूति होती थी।
आज के समय में खेल और खेल सामग्री पर बड़ों का निर्देशन और सुरक्षा का डर हावी रहता है। आज खेल सामग्री स्वनिर्मित न होकर बाज़ार से खरीदी हुई होती है। खेलने की समय-सीमा भी तय कर दी जाती है। धूल-मिट्टी से बच्चों का परिचय ही नहीं होता है। अतः बच्चों की स्वच्छंदता समाप्त-सी हो गई है।
प्रश्न – पाठ में आए ऐसे प्रसंगों का वर्णन कीजिए जो आपके दिल को छू गए हों?
उत्तर – पाठ का सबसे रोमांचक प्रसंग वह है जब एक साँप सब बच्चों के पीछे पड़ जाता है। तब वे बच्चे किस प्रकार गिरते-पड़ते भागते हैं और माँ की गोद में छिपकर सहारा लेते हैं-यह प्रसंग पाठक के हृदय को भीतर तक हिला देता है।
इस पाठ में गुदगुदाने वाले प्रसंग भी अनेक हैं। जैसे
- बच्चे के पिता का मित्रतापूर्वक बच्चों के खेल में शामिल होना मन को छू लेता है। जैसे ही बच्चे भोज, शादी या खेती का खेल खेलते हैं, बच्चे का पिता बच्चा बनकर उनमें शामिल हो जाता है। पिता का इस प्रकार बच्चा बन जाना बहुत सुखद अनुभव है जो सभी पाठकों को गुदगुदा देता है।
प्रश्न – इस उपन्यास अंश में तीस के दशक की ग्राम्य संस्कृति का चित्रण है। आज की ग्रामीण संस्कृति में आपको किस तरह के परिवर्तन दिखाई देते हैं।
उत्तर – आज की ग्रामीण संस्कृति को देखकर और इस उपन्यास के अंश को पढ़कर ऐसा लगता है कि कैसी अच्छी रही होगी वह समूह-संस्कृतिए जो आत्मीय स्नेह और समूह में रहने का बोध कराती थी। आज ऐसे दृश्य दिखाई नहीं देते हैं। पुरुषों की सामूहिक-कार्य प्रणाली भी समाप्त हो गई है। अतः ग्रामीण संस्कृति में आए परिवर्तन के कारण वे दृश्य नहीं दिखाई देते हैं जो तीस के दशक में रहे होंगे-
आज घर सिमट गए हैं। घरों के आगे चबूतरों का प्रचलन समाप्त हो गया है। आज परिवारों में एकल संस्कृति ने जन्म ले लियाए जिससे समूह में बच्चे अब दिखाई नहीं देते। आज बच्चों के खेलने की सामग्री और खेल बदल चुके हैं। खेल खर्चीले हो गए हैं। जो परिवार खर्च नहीं कर पाते हैं वे बच्चों को हीन-भावना से बचाने के लिए समूह में जाने से रोकते हैं। आज की नई संस्कृति बच्चों को धूल-मिट्टी से बचना चाहती है। घरों के बाहर पर्याप्त मैदान भी नहीं रहेए लोग स्वयं डिब्बों जैसे घरों में रहने लगे हैं।
प्रश्न – पाठ पढ़ते-पढ़ते आपको भी अपने माता-पिता का लाड़-प्यार याद आ रहा होगा। अपनी इन भावनाओं को डायरी में अंकित कीजिए।
उत्तर – छात्र स्वयं अपने अनुभव लिखें।
प्रश्न – यहाँ माता-पिता का बच्चे के प्रति जो वात्सल्य व्यक्त हुआ है उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – पिता का अपने साथ शिशु को नहला-धुलाकर पूजा में बैठा लेनाए माथे पर तिलक लगाना फिर कंधे पर बैठाकर गंगा तक ले जाना और लौटते समय पेड़ पर बैठाकर झूला झुलाना कितना मनोहारी दृश्य उत्पन्न करता है।
पिता के साथ कुश्ती लड़नाए बच्चे के गालों का चुम्मा लेनाए बच्चे के द्वारा पूँछे पकड़ने पर बनावटी रोना रोने का नाटक और शिशु को हँस पड़ना अत्यंत जीवंत लगता है।
माँ के द्वारा गोरस-भातए तोता-मैना आदि के नाम पर खिलानाए उबटनाए शिशु का शृंगार करना और शिशु का सिसकनाए बच्चों की टोली को देख सिसकना बंद कर विविध प्रकार के खेल खेलना और मूसन तिवारी को चिढ़ाना आदि अद्भुत दृश्य उकेरे गए हैं। ये सभी दृश्य अपने शैशव की याद दिलाते हैं।
प्रश्न – माता का अँचल शीर्षक की उपयुक्तता बताते हुए कोई अन्य शीर्षक सुझाइए।
उत्तर – बच्चे का पिता के साथ लगाव
शैशव की मस्त क्रीड़ाएँ।
माँ का वात्सल्य
“माता का अँचल” इन तीनों में से केवल अंतिम को ही व्यक्त करता है। अतरू यह एकांगी और अधूरा शीर्षक है। इसका अन्य शीर्षक हो सकता है
मेरा शैशव
कोई लौटा दे मेरे रस-भरे दिन!
प्रश्न – बच्चे माता-पिता के प्रति अपने प्रेम को कैसे अभिव्यक्त करते हैं?
उत्तर – हमारा बचपन इस पाठ में वर्णित बचपन से पूरी तरह भिन्न है। हमें अपने पिता का ऐसा लाड़ नहीं मिला। मेरे पिता प्रायः अपने काम में व्यस्त रहते हैं। प्रायः वे रात को थककर ऑफिस से आते हैं। वे आते ही खा-पीकर सो जाते हैं। वे मुझसे प्यार-भरी कुछ बातें जरूर करते हैं। मेरे लिए मिठाईए चाकलेटए खिलौने भी ले आते हैं। कभी-कभी स्कूटर पर बिठाकर घुमा भी आते हैंए किंतु मेरे खेलों में इस तरह रुचि नहीं लेते। वे हमें नंग-धडंग तो रहने ही नहीं देते। उन्हें मानो मुझे कपड़े से ढकने और सजाने का बेहद शौक है। मुझे बचपन में ए-एप्पलए सी-कैट रटाई गई। हर किसी को नमस्ते करनी सिखाई गई। दो ढाई साल की उम्र में मुझे स्कूल भेजने का प्रबंध किया गया। तीन साल के बाद मेरे जीवन से मस्ती गायब हो गई। मुझे मेरी मैडमए स्कूल-ड्रेस और स्कूल के काम की चिंता सताने लगी। तब से लेकर आज तक मैं 90ः अंक लेने के चक्कर में अपनी मस्ती को अपने ही पाँवों के नीचे रौंदता चला आ रहा हूँ। मुझे हो-हुल्लड़ करने का तो कभी मौका ही नहीं मिला। शायद मेरा बचपन बुढ़ापे में आएघ् या शायद मैं अपने बच्चों या पोतों के साथ खेल कर सकें।
प्रश्न – इस पाठ में बच्चों की जो दुनिया रची गई है वह आपके बचपन की दुनिया से किस तरह भिन्न है?
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
प्रश्न – फणीश्वरनाथ रेणु और नागार्जुन की आंचलिक रचनाओं को पढ़िए।
उत्तर – छात्र रेणु और नागार्जुन की आंचलिक रचनाओं को पढ़ें।
टेस्ट/क्विज
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