कक्षा 10 » राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद – तुलसीदास

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राम लक्ष्मण परशुराम संवाद 
(कविता की व्याख्या)
छंद 1
नाथ     संभुधनु      भंजनिहारा।
आयेसु  काह  कहिअ किन मोही।
सेवकु    सो    जो  करै   सेवकाई।
सुनहु  राम जेहि सिवधनु   तोरा।
सो    बिलगाउ   बिहाइ  समाजा।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने।
बहु     धनुही    तोरी    लरिकाईं।
येहि   धनु  पर  ममता केहि हेतू।
होइहि   केउ  एक   दास    तुम्हारा।।
सुनि    रिसाइ   बोले    मुनि कोही।।
अरिकरनी   करि     करिअ लराई।।
सहसबाहु    सम    सो   रिपु  मोरा।।
न      त  मारे जैहहि      सब राजा।।
बोले     परसुधरहि         अवमाने।।
कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
सुनि   रिसाइ  कह   भृगुकुलकेतू।।
रे  नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।

शब्दार्थ –

भंजनिहारा – भंग करने वाला, तोड़ने वाला। रिसाइ – क्रोध करना। रिपु – शत्रु ।  बिलगाउ – अलग होना। अवमाने – अपमान करना। लरिकाईं – बचपन में। परसु – फरसा, कुल्हाड़ी की तरह का एक शस्त्र (यही परशुराम का प्रमुख शस्त्र था)। भृगुकुलकेतु – भृगु वंश के वंशज (परशुराम)।

संदर्भ –

प्रस्तुत पद्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग 2 में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से अवतरित है। यह संवाद तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’  महाकाव्य के ‘बालकांड’ से लिया गया है।

प्रसंग –

राम-लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सीता स्वयंवर में पहुँचते हैं। स्वयंवर में आए देश-विदेश के राजा और राजकुमार शिवधनुष पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा सके, तब राम गुरु की आज्ञा से शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं। इसी क्रम में राम के हाथ से शिवधनुष टूट जाता हैं। इससे दिव्यद्रष्टा परशुराम क्रोधित होकर सभा में पहुँचते हैं और राम पर क्रोधित होते हैं।

व्याख्या –

परशुराम का क्रोध शांत करने के लिए राम कहते हैं – हे नाथ! शिवधनुष को तोड़ने का साहस तो आपके दास में ही हो सकता है। अतः वह आपका कोई दास ही होगा, जिसने इस धनुष को तोड़ा है। क्या आज्ञा है? मुझे आदेश दें। यह सुनकर परशुराम जी और क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं कि सेवक वही हो सकता है, जो सेवकों जैसा काम करता है। इस धनुष को तोड़कर उसने शत्रुता का काम किया है और इसका परिणाम युद्ध ही है। उसने इस धनुष को तोड़कर मुझे युद्ध हेतु ललकारा है, इसलिए वो मेरे सामने आए। परशुराम श्रीराम से कहते हैं, जिसने भी शिवधनुष को तोड़ा है, वह इस स्वयंवर से अलग हो जाए, अन्यथा इस दरबार में उपस्थित समस्त राजाओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ सकता है। परशुराम के क्रोध से भरे स्वर को सुनकर लक्ष्मण उनका उपहास करते हुए कहते हैं कि हे मुनिवर! हम बचपन में खेल-खेल में ऐसे कई धनुष तोड़ चुके हैं, तब तो आप क्रोधित नहीं हुए। किन्तु यह धनुष आपको इतना प्रिय क्यों है? जो इसके टूट जाने पर आप इतना क्रोधित हो उठे हैं और जिसने यह धनुष तोड़ा है, उससे युद्ध करने के लिए तैयार हो गए हैं।  परशुराम जी कहते हैं, हे राजा के बेटे! तुम काल के वश में हो, अर्थात तुम में अहंकार समाया हुआ है और इसीलिए तुम्हें यह नहीं ज्ञात कि तुम क्या बोल रहे हो। तुम धनुषों की तुलना आपस में कर रहे हो। क्या तुम्हें बचपन में तोड़े गए धनुष एवं शिवजी के इस धनुष में कोई अंतर नहीं दिख रहा? 

विशेष –

  1. राम का शांत स्वभाव, परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की वाक्पटुता दर्शनीय है।
  2. अवधी भाषा है।
  3. निम्नलिखित पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है-
    1. आयेसु  काह  कहिअ किन मोही।
    2. सेवकु    सो    जो  करै   सेवकाई।
    3. अरिकरनी   करि     करिअ लराई।।
    4. सो    बिलगाउ   बिहाइ  समाजा।
  4. निम्नलिखित पंक्तियों में उपमा अलंकार है-
    1. सहसबाहु    सम    सो   रिपु  मोरा।।
    2. धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।
  5. रौद्र रस है।
  6. दोहा-चौपाई छंद है।
छंद 2
लखन कहा हसि हमरे जाना।
का छति लाभु जून धनु तोरें।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू।
बोले चितै परसु की ओरा।
बालकु बोलि बधौं नहि तोही।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा।
सुनहु देव सब धनुष समाना।।
देखा राम नयन के भोरें।।
मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।
रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।।
बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

शब्दार्थ –

परसु – फरसा, कुल्हाड़ी की तरह का एक शस्त्र (यही परशुराम का प्रमुख शस्त्र था)। कोही – क्रोधी। महिदेव – ब्राह्मण। बिलोक – देखकर। अर्भक – बच्चा।

संदर्भ –

प्रस्तुत पद्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग 2 में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से अवतरित है। यह संवाद तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के ‘बालकांड’ से लिया गया है।

प्रसंग –

राम-लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सीता स्वयंवर में पहुँचते हैं। स्वयंवर में आए देश-विदेश के राजा और राजकुमार शिवधनुष पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा सके, तब राम गुरु की आज्ञा से शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं। इसी क्रम में राम के हाथ से शिवधनुष टूट जाता हैं। इससे दिव्यद्रष्टा परशुराम क्रोधित होकर सभा में पहुँचते हैं और राम पर क्रोधित होते हैं।

व्याख्या – 

परशुराम की बात सुनने के उपरांत लक्ष्मण मुस्कुराते हुए व्यंगपूर्वक उनसे कहते हैं कि, हमें तो सारे धनुष एक जैसे ही दिखाई देते हैं, किसी में कोई फर्क नजर नहीं आता। फिर इस पुराने धनुष के टूट जाने पर ऐसी क्या आफ़त आ गई है? जो आप इतना क्रोधित हो उठे हैं। जब लक्ष्मण परशुराम जी से यह बात कह रहे थे, तब उन्हें श्री राम तिरछी आँखों से चुप रहने का इशारा कर रहे थे। आगे लक्ष्मण कहते हैं, इस धनुष के टूटने में श्री राम का कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस धनुष को श्री राम ने केवल छुआ मात्र था और यह टूट गया। आप व्यर्थ ही क्रोधित हो रहे हैं। परशुराम, लक्ष्मण जी की इन व्यंग से भरी बातों को सुनकर और भी ज्यादा क्रोधित हो जाते हैं। वे अपने फ़रसे की तरफ देखते हुए बोलते हैं, हे मूर्ख लक्ष्मण! लगता है, तुझे मेरे व्यक्तित्व के बारे में नहीं पता। मैं अभी तक बालक समझकर तुझे क्षमा कर रहा था। परन्तु तू मुझे एक साधारण मुनी समझ बैठा है। मैं बचपन से ही ब्रह्मचारी हूँ। सारा संसार मेरे क्रोध को अच्छी तरह से पहचानता है। मैं क्षत्रियों का सबसे बड़ा शत्रु हूँ। अपने बाजुओं के बल पर मैंने कई बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का सर्वनाश किया है और इस पृथ्वी को जीतकर ब्राह्मणों को दान में दिया है। इसलिए हे राजकुमार लक्ष्मण! मेरे फरसे को तुम ध्यान से देख लो, यही वह फरसा है, जिससे मैंने सहस्त्रबाहु का संहार किया था। हे राजकुमार बालक! तुम मुझसे भिड़कर अपने माता-पिता को चिंता में मत डालो, अर्थात अपनी मृत्यु को न्यौता मत दो। मेरे हाथ में वही फरसा है, जिसकी गर्जना सुनकर गर्भ में पल रहे बच्चे का भी नाश हो जाता है।

विशेष –

  1. राम का शांत स्वभाव, परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की वाक्पटुता दर्शनीय है।
  2. अवधी भाषा है।
  3. निम्नलिखित पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है-
    1. लखन कहा हसि हमरे जाना।
    2. मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।
    3. रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
    4. बालकु बोलि बधौं नहि तोही।
    5. केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
    6. बाल ब्रह्मचारी अति कोही।
    7. भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही।
    8. बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
  4. रौद्र रस है।
  5. दोहा-चौपाई छंद है।
छंद 3
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।
देखि कुठारु सरासन बाना।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई।
बधें पापु अपकीरति हारें।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
अहो मुनीसु महाभट मानी।।
चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।
जे तरजनी देखि मरि जाहीं ।।
मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।।
हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।।
मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।।

शब्दार्थ –

महाभट – महान योद्धा। मही – धरती। कुठारफ़ – कुल्हाड़ा। कुम्हड़बतिया – बहुत कमजोर, निर्बल व्यक्ति, काशीफल या कुम्हड़े का बहुत छोटा फल। तरजनी – अँगूठे के पास की उँगली। कुलिस – कठोर। सरोष – क्रोध सहित।

संदर्भ –

प्रस्तुत पद्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग 2 में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से अवतरित है। यह संवाद तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के ‘बालकांड’ से लिया गया है।

प्रसंग –

राम-लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सीता स्वयंवर में पहुँचते हैं। स्वयंवर में आए देश-विदेश के राजा और राजकुमार शिवधनुष पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा सके, तब राम गुरु की आज्ञा से शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं। इसी क्रम में राम के हाथ से शिवधनुष टूट जाता हैं। इससे दिव्यद्रष्टा परशुराम क्रोधित होकर सभा में पहुँचते हैं और राम पर क्रोधित होते हैं।

व्याख्या –

परशुराम की डींगें सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराते हुए बड़े प्रेमभरे स्वर में बोलते हैं कि परशुराम तो जाने-माने योद्धा निकले। आप तो अपना फरसा दिखा कर ही मुझे डराना चाहते हैं, मानो फूंक से ही पहाड़ उड़ाना चाहते हों। परन्तु मैं कोई छुइमुई का वृक्ष नहीं, जिसे आप अपनी तर्जनी ऊँगली दिखा कर मुरझा सकते हैं। मैं आपकी इन बड़ी-बड़ी डींगों से डरने वालों में से नहीं हूँ। इन पंक्तियों में लक्ष्मण कहते हैं, मैंने आपके हाथ में कुल्हाड़ा और कंधे पर टँगे तीर-धनुष देखकर, आपको एक वीर योद्धा समझा और अभिमानपूर्वक कुछ कह दिया। आपको ऋषि भृगु का पुत्र मानकर एवं काँधे पर जनेऊ देखकर आपके द्वारा किये गए सारे अपमान सहन कर लिए और क्रोध की अग्नि को जलने नहीं दिया। वैसे भी हमारे कुल की यह परंपरा है कि हम देवता, ब्राह्मण, भक्त एवं गाय के ऊपर अपनी वीरता नहीं आजमाते। आप तो ब्राह्मण हैं और मैं आपका वध करूँ, तो पाप मुझे ही लगेगा। आप अगर मेरा वध भी कर देते हैं, तो मुझे आपके चरणों में झुकना पड़ेगा। यही हमारे कुल की मर्यादा है। फिर आगे लक्ष्मण कहते हैं कि आपके वचन ही किसी व्रज की भाँति कठोर हैं, तो फिर आप को इस कुल्हाड़े और धनुष की क्या ज़रूरत है। यह सुनकर ऋषि विश्वामित्र जी ने परशुराम जी से कहा कि हे मुनिवर! यदि इस बालक ने आपका अपमान किया है, आपको कुछ अनाप-शनाप बोला है, तो कृपया इसे क्षमा कर दें।

विशेष –

  1. राम का शांत स्वभाव, परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की वाक्पटुता दर्शनीय है।
  2. अवधी भाषा है।
  3. निम्नलिखित पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है-
    1. इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।
    2. मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।
    3. जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।।
    4. मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।
    5. कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
    6. ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।
  4. निम्नलिखित पंक्तियों में उपमा अलंकार है-
    1. कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
  5. निम्नलिखित पंक्तियों में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है-
    1. पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु।
  6. रौद्र रस है।
  7. दोहा-चौपाई छंद है।
छंद 4
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु।
भानुबंस राकेस कलंकू।
कालकवलु होइहि छन माहीं।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा।
कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।।
निपट निरंकुसु अबुधु असंकू।।
कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।
कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
गारी देत न पावहु सोभा।।
सूर समर करनी करहि कहि न जनावहि आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रतापु।।

शब्दार्थ –

कौसिक – विश्वामित्र। भानुबंस – सूर्यवंश। निरंकुस – जिस पर किसी का दबाब न हो, मनमानी करने वाला। असंकू – शंका रहित। घालकु – नाश करने वाला। कालकवलु – जिसे काल ने अपना ग्रास बना लिया हो, मृत। अबुधु – नासमझ। खोरि – दोष। हटकह – मना करने पर। अछोभा – शांत, धीर, जो घबराया न हो।

संदर्भ –

प्रस्तुत पद्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग 2 में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से अवतरित है। यह संवाद तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के ‘बालकांड’ से लिया गया है।

प्रसंग –

राम-लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सीता स्वयंवर में पहुँचते हैं। स्वयंवर में आए देश-विदेश के राजा और राजकुमार शिवधनुष पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा सके, तब राम गुरु की आज्ञा से शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं। इसी क्रम में राम के हाथ से शिवधनुष टूट जाता हैं। इससे दिव्यद्रष्टा परशुराम क्रोधित होकर सभा में पहुँचते हैं और राम पर क्रोधित होते हैं।

व्याख्या –

विश्वामित्र की बात सुनकर परशुराम कहते हैं, हे विश्वामित्र! यह बालक बहुत ही मंद बुद्धि वाला और मूर्ख एवं उदंड है, जिसके कारण यह अपने ही कुल का नाश कर बैठेगा। इसे सत्य का ज्ञान नहीं है। यह चंद्रमा में लगे दाग की तरह अपने कुल के लिए एक कलंक है। इसको काल ने घेर रखा है। मैं चाहूँ तो छण-भर में इसका अंत कर सकता हूँ। फिर मुझे तुम दोष मत देना। अगर तुम इस बालक की सलामती चाहते हो, तो मेरे प्रताप, बल और क्रोध के बारे में बतलाकर इसे समझाओ एवं शांत करो। प्रस्तुत पंक्तियों में परशुराम की बात सुनकर लक्ष्मण कहते हैं, हे मुनिवर! आप अपनी वीरता का बखान करते हुए थक नहीं रहे हो। आपने कई प्रकार से अपनी वीरता के बारे में बतलाया है। आपके बल और साहस के बारे में आपसे अच्छा भला कौन बता सकता है। अगर इतने से भी आपका मन न भरा हो, तो अपना क्रोध सहन कर खुद को पीड़ा न दें। अपितु फिर से अपनी वीरता का बखान कर लें। आप एक वीर पुरुष हैं, जिनमें धैर्य और क्षमा व्याप्त है। आपके मुँह से अपशब्द शोभा नहीं देते। शूरवीर युद्ध में अपनी शूरवीरता का प्रदर्शन करते हैं। वे अपने मुँह मिया-मिट्ठू नहीं बनते अर्थात स्वयं के मुख से स्वयं की प्रशंसा नहीं करते और रणभूमि में अपने शत्रु को सामने पाकर कायरों की तरह बातों में व्यर्थ समय नहीं बिताते, अपितु युद्ध करके अपनी वीरता का परिचय देते हैं।

विशेष –

  1. राम का शांत स्वभाव, परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की वाक्पटुता दर्शनीय है।
  2. अवधी भाषा है।
  3. निम्नलिखित पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है-
    1. कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।।
    2. निपट निरंकुसु अबुधु असंकू।।
    3. नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू।
    4. जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
    5. सूर समर करनी करहि कहि न जनावहि आपु।
    6. बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहि प्रतापु।।
  4. रौद्र रस है।
  5. दोहा-चौपाई छंद है।
छंद 5
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
सुनत लखन के बचन कठोरा।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू।
खर कुठार मैं अकरुन कोही।
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे।
न त येहि काटि कुठार कठोरे।
बार बार मोहि लागि बोलावा।।
परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।
कटुबादी बालकु बधजोगू।।
अब येहु मरनिहार भा साँचा।।
बाल दोष गुन गनहि न साधू।।
आगे अपराधी गुरुद्रोही।।
केवल कौसिक सील तुम्हारे।।
गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।

शब्दार्थ –

बधजोगू – मारने योग्य। अकरुन – जिसमें करुणा न हो। गाधिसूनु – गाधि के पुत्र यानी विश्वामित्र
अयमय – लोहे का बना हुआ। नेवारे – मना करना। ऊखमय – गन्ने से बना हुआ।

संदर्भ –

प्रस्तुत पद्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग 2 में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से अवतरित है। यह संवाद तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के ‘बालकांड’ से लिया गया है।

प्रसंग –

राम-लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सीता स्वयंवर में पहुँचते हैं। स्वयंवर में आए देश-विदेश के राजा और राजकुमार शिवधनुष पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा सके, तब राम गुरु की आज्ञा से शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं। इसी क्रम में राम के हाथ से शिवधनुष टूट जाता हैं। इससे दिव्यद्रष्टा परशुराम क्रोधित होकर सभा में पहुँचते हैं और राम पर क्रोधित होते हैं।

व्याख्या –

प्रस्तुत पंक्तियों में लक्ष्मण जी परशुराम से कहते हैं कि हे मुनिवर! ऐसा लग रहा है कि आप मृत्यु को मेरे लिए हाँक लगा-लगाकर बुला रहे हो। लक्ष्मण के इस व्यंग को सुनकर परसुराम बहुत ही क्रोधित हो जाते हैं और अपने फरसे को हाथ में ले कर बोलते हैं कि इस बालक के वध के लिए संसार मुझे दोष न दे, क्योंकि इसने खुद अपने कटु वचनों के सहारे अपनी मौत को बुलाया है। मैंने इसे बालक समझकर कई बार क्षमा किया, परन्तु अब यह मरने-योग्य हो गया है। विश्वामित्र जी परशुराम से कहते हैं कि परशुराम जी! आप तो साधू हैं। साधु कभी बालकों के अपराध पर ज्यादा ध्यान नहीं देते और उन्हें क्षमा कर देते हैं। इसलिए लक्ष्मण को भी क्षमा कर दें। यह सुनकर परशुराम जी विश्वामित्र से कहते हैं कि तुम जानते हो कि मैं कितना कठोर एवं निर्दयी हूँ। मुझमें क्रोध कितना भरा हुआ है। मेरे सामने यह मेरे गुरु का अपमान किये जा रहा है और मेरे हाथों में फरसा होने के बावजूद भी मैंने अभी तक इसका वध नहीं किया है। अगर यह जीवित खड़ा है, तो सिर्फ तुम्हारे प्रेम और सदभाव के लिए। नहीं तो अभी तक मैं अपने फरसे से बिना किसी परिश्रम के इसे काटकर इसका वध कर देता और अपनी गुरु-दक्षिणा चुका देता। यह सुनकर विश्वामित्र जी मन ही मन हँसने लगते हैं और सोचते हैं कि परशुराम जी ने सभी क्षत्रियों को हराया है, तो वे राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय मानकर उन्हें आसानी से हराने के बारे में सोच रहे हैं। परन्तु उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि उनके समक्ष कोई गन्ने के रस से बना गुड़ नहीं है, अपितु लोहे के फौलाद से बनी तेज तलवार है। अर्थात राम एवं लक्षमण को वे साधारण क्षत्रिय समझने की भूल कर रहे हैं, जबकि दोनों ही शूरवीर एवं पराक्रमी है।

विशेष –

  1. राम का शांत स्वभाव, परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की वाक्पटुता दर्शनीय है।
  2. अवधी भाषा है।
  3. निम्नलिखित पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है-
    1. अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू।
    2. कटुबादी बालकु बधजोगू।।
    3. बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा।
    4. कौसिक कहा छमिअ अपराधू।
    5. बाल दोष गुन गनहि न साधू।।
    6. आगे अपराधी गुरुद्रोही।।
    7. केवल कौसिक सील तुम्हारे।।
    8. न त येहि काटि कुठार कठोरे।
    9. गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
  4. निम्नलिखित पंक्तियों में उत्प्रेक्षा अलंकार है-
    1. तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
  5. निम्नलिखित पंक्तियों में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है-
    1. बार बार मोहि लागि बोलावा।।
  6. रौद्र रस है।
  7. दोहा-चौपाई छंद है।
छंद 6
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा।
माता पितहि उरिन भये नीकें।
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे।
को नहि जान बिदित संसारा।।
गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें।।
दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।।
तुरत देउँ मैं थैली खोली।।
हाय हाय सब सभा पुकारा।।
बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही।।
द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।।
रघुपति सयनहि लखनु नेवारे।।
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

शब्दार्थ –

कृसानु – अग्नि

संदर्भ –

प्रस्तुत पद्यांश पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग 2 में संकलित ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से अवतरित है। यह संवाद तुलसीदास द्वारा रचित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य के ‘बालकांड’ से लिया गया है।

प्रसंग –

राम-लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सीता स्वयंवर में पहुँचते हैं। स्वयंवर में आए देश-विदेश के राजा और राजकुमार शिवधनुष पर प्रत्यंचा नहीं चढ़ा सके, तब राम गुरु की आज्ञा से शिवधनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं। इसी क्रम में राम के हाथ से शिवधनुष टूट जाता हैं। इससे दिव्यद्रष्टा परशुराम क्रोधित होकर सभा में पहुँचते हैं और राम पर क्रोधित होते हैं।

व्याख्या –

लक्ष्मण परशुराम जी से कहते हैं कि हे मुनिवर! आपके शील स्वभाव से पूरा संसार भली-भाँति परिचित है। आप अपने माता-पिता के कर्ज से तो पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं, परन्तु अभी तक आपके ऊपर गुरु-ऋण बाकी बचा हुआ है। जिसे आप जल्द से जल्द उतारना चाहते हैं और इसी कारण आप मेरा वध करने पर तुले हुए हैं। यह ठीक भी है, क्योंकि बहुत दिन हो चुके हैं, अब तक तो आपके ऊपर गुरु-ऋण का बहुत ब्याज चढ़ चुका होगा। तो फिर देर करने की ज़रूरत नहीं है, किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लीजिए। मैं देर किए बिना अपनी थैली खोल कर सारी धन राशि चुका दूँगा। लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर परशुराम अपने क्रोध की आग में जलने लगते हैं और अपने फरसे को पकड़ कर आक्रमण की मुद्रा में आते हैं, जिसे देखकर दरबार में उपस्थित सारे लोग हाय-हाय करने लगते हैं। यह देख कर लक्ष्मण परशुराम से कहते हैं कि आप मुझे अपना फरसा दिखाकर भयभीत करना चाहते हैं और मैं यहाँ आपको ब्राह्मण समझकर आप से युद्ध नहीं करना चाहता। ऐसा प्रतीत होता है, मानो आपका अभी तक युद्ध भूमि में किसी पराक्रमी से पाला नहीं पड़ा। इसलिए आप अपने आप को बहुत शूरवीर समझ रहे हैं। यह बात सुनकर दरबार में उपस्थित सारे लोग अनुचित-अनुचित कह कर पुकारने लगते हैं और श्री राम अपनी आँखों के इशारे से लक्ष्मण जी को चुप होने का इशारा करते हैं। इस प्रकार लक्ष्मण द्वारा कहा गया प्रत्येक वचन आग में घी की आहुति के सामान था और परशुराम जी को अत्यंत क्रोधित होते देखकर श्री राम ने अपने शीतल वचनों से उनकी क्रोधाग्नि को शांत किया।

विशेष –

  1. राम का शांत स्वभाव, परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की वाक्पटुता दर्शनीय है।
  2. अवधी भाषा है।
  3. निम्नलिखित पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार है-
    1. दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।।
    2. अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली।
    3. हाय हाय सब सभा पुकारा।।
    4. बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही।।
  4. निम्नलिखित पंक्तियों में उपमा अलंकार है-
    1. लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
  5. निम्नलिखित पंक्तियों में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है-
    1. हाय हाय सब सभा पुकारा।।
  6. रौद्र रस है।
  7. दोहा-चौपाई छंद है।

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राम लक्ष्मण परशुराम संवाद
(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न – परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए?

उत्तर – परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण जी ने धनुष टूट जाने को लेकर निम्न तर्क दिए –

  1. धनुष काफ़ी पुराना था, इसलिए राम भैया के छूने मात्र से ही यह टूट गया।
  2. मुनिवर! हमने बचपन में खेल-खेल में काफ़ी धनुष तोड़े हैं, तब तो आपने कभी हम पर इतना क्रोध नहीं किया, तो अब इतने क्रोध का कारण क्या है?
  3. ये धनुष भी तो किसी अन्य साधारण धनुष जैसा ही है, फिर आपका इससे इतना ज्यादा लगाव क्यों है, जो आप इतना क्रोधित हो रहे हैं।

प्रश्न – परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – लक्ष्मण के स्वभाव में बचपना है, वह पूरे संवाद में व्यंग्य करते रहते हैं। लक्ष्मण जी अपने क्रोध को अधिक समय तक काबू में नहीं रख पाते हैं और जब परशुराम जी ने क्रोध में आकर कटु वचन कहने शुरू किये, तो लक्ष्मण जी ने भी अपनी तरफ से तर्क-वितर्क करना शुरू कर दिया। मगर, वह बहुत तर्कशील और बुद्धिमान भी हैं, इसीलिए वह कभी परशुराम को गुस्सा दिला रहे थे, तो कभी उनकी तारीफ करके उन्हें चुप करवा दे रहे थे।

श्री राम बहुत ही विनम्र, बुद्धिमान और शांत स्वभाव के हैं। वो पहले बातों को सुनते और समझते हैं, फिर शांत मन से, बिना उत्तेजित हुए स्थिति को संभालते हैं। इसीलिए जब महर्षि परशुराम क्रोधित हुए, तो उन्होंने उनसे कहा कि मुनिवर मैं तो आपका भक्त ही हूँ, आप शांत हो जाइए। आप इतने बड़े और विन्रम हैं कि आपके सामने नतमस्तक होने का मन होता है। जब लक्ष्मण और परशुराम जी के बीच बहस बढ़ने लगी, तभी श्री राम जी बीच-बचाव में आगे आए और आग के समान क्रोध में तप रहे ऋषि को अपने शीतल वचनों से ठंडा किया।

प्रश्न – लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिखिए।

उत्तर- लक्ष्मण: ऋषिवर, धनुष तो हम बचपन से तोड़ रहे हैं, लेकिन आज आप इतना ज्यादा क्रोधित क्यों हो रहे हैं?

परशुराम: हे मूर्ख! क्या तुम्हें ये धनुष साधारण लग रहा है, ये महादेव का धनुष है!

प्रश्न – परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए-

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

उत्तर – परशुराम अपने बारे में लक्ष्मण जी को बताते हैं कि हे मूर्ख बालक! मैं साधारण मुनि नहीं हूँ। तू मेरे क्रोध के बारे में नहीं जानता है। मैं बाल ब्रह्मचारी हूँ। मैंने अपने बाहुबल के दम पर इस दुनिया से सारे राजाओं को मिटा डाला था और सारे राज्य ब्राह्मणों को दान में दे दिए थे। यह सारा विश्व जानता है कि मैं क्षत्रियों का विद्रोही हूँ, मैंने अपने इस फरसे से सहस्रबाहु नामक राजा को मौत के घाट उतार दिया था। हे राजपुत्र! तुम मेरा यह फरसा देखो! अगर मैंने तुझे मार दिया, तो यह सोच कि तेरे माता-पिता की क्या दशा होगी। मेरे इस फरसे से तो गर्भ में पल रहे बच्चे भी नष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न – लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताईं?

उत्तर – राम लक्ष्मण परशुराम संवाद कविता में लक्ष्मण जी ने वीर योद्धा की कई विशेषताएं बताई हैं। उन्होंने कहा है कि वीर योद्धा अपनी शूरवीरता का बखान खुद नहीं करते हैं, बल्कि वह अपनी वीरता का प्रदर्शन युद्ध के मैदान में करते हैं और दुनिया स्वयं उनका गुणगान करने लगती है। उनकी बोली कड़वी होती है, पर वो किसी का अपमान नहीं करते हैं। साथ ही, वो किसी चीज से ज़रूरत से ज्यादा मोह नहीं रखते और बात-बात पर क्रोध नहीं करते हैं।

प्रश्न – साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर –

मनुष्य में साहस और शक्ति के साथ विनम्रता का होना बेहद आवश्यक है। ये महान गुण मनुष्य के व्यक्तित्व को और निखारते हैं। साहस और शक्ति के दम पर आप बड़ी से बड़ी परेशानियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। मगर, विनम्रता के आभाव में लोग उन्हें घमंडी और अकड़ू समझ सकती है। इसलिए अगर वो साहसी और शक्तिमान होने के साथ ही, विनम्र भी होंगे, तो दुनिया उनका गुणगान करेगी।

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद कविता के आधार पर देखें, तो लक्ष्मण जी साहसी और शक्तिशाली तो थे, लेकिन उनमें विनम्रता का अभाव था, जिसकी वजह से मुनि परशुराम उन पर अत्यंत क्रोधित हो गए। वहीं श्री राम साहसी व शक्तिशाली होने के साथ ही विनम्र भी थे। इसीलिए उन्होंने धैर्य के साथ परशुराम जी को अपनी बात समझाई और क्षमा मांगी, जिससे बात ज्यादा नहीं बिगड़ी और परशुराम जी शांत हो गए।

प्रश्न – भाव स्पष्ट कीजिए-

(क) बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूंँकि पहारू।।

उत्तर – प्रस्तुत पंक्तियाँ राम लक्ष्मण परशुराम संवाद कविता का अंश हैं। इनमें परशुराम जी की बातें सुन कर लक्ष्मण हँसते हुए मीठी आवाज़ में कह रहे हैं कि हे मुनिवर! आप बड़े ही महान योद्धा हैं। फिर आप मुझे बार-बार फरसे का भय क्यों दिखा रहे हैं। क्या आप फूँक मार कर पहाड़ उड़ाना चाहते हैं? अर्थात लक्ष्मण जी पर महर्षि परशुराम की बहादुरी और धमकी भरी बातों का कोई असर नहीं हो रहा था।

(ख) इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

उत्तर – प्रस्तुत पंक्तियाँ राम लक्ष्मण परशुराम संवाद कविता का अंश हैं। यहां लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे महामुनि! क्या आपने हमें कद्दू यानि काशीफल जैसा नाजुक समझ रखा है कि हम आपके छूने मात्र से ही ढेर हो जाएंगे? अभी तक मैंने आपसे जो भी कहा है, आपको एक योद्धा समझ कर और आपका सम्मान करते हुए कहा है।

(ग) गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।

उत्तर – प्रस्तुत पंक्तियाँ राम लक्ष्मण परशुराम संवाद कविता का अंश हैं। इन पंक्तियों में महर्षि विश्वामित्र, परशुराम जी की बातें सुनकर हँसने लगते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं कि मुनि परशुराम किसी सावन के अंधे की तरह व्यव्हार कर रहे हैं, इसीलिए उन्हें हर क्षत्रिय एक जैसा दिखाई पड़ता है। अभी वे जानते नहीं हैं कि ये दोनों बालक कौन हैं। महर्षि परशुराम को तो ये किसी खेत में खड़े गन्ने की भांति लग रहे हैं।

प्रश्न – पाठ के आधार पर तुलसी के भाषा सौंदर्य पर दस पंक्तियाँ लिखिए।

उत्तर –

  1. उन्होंने अपनी अधिकतम रचनाएं अवधि भाषा में लिखी हैं।
  2. उन्होंने अपनी रचनाओं में सरल और सटीक शब्दों का प्रयोग किया है।
  3. तुलसीदास ने अधिकतर रचनाएं चौपाई, दोहों और छंद के रूप में लिखी हैं।
  4. वे अपनी हर बात को तर्क और उदाहरणों से स्पष्ट करते हैं।
  5. उन्होंने अपने काव्यों में व्यंग्यात्मक भावों का सुंदर प्रयोग किया है।
  6. तुलसीदास जी की रचनाओं में हमें उपमा और रूपक अलंकार काफी ज्यादा देखने को मिलते हैं।
  7. उन्होंने अपनी रचनाओं में मुहावरों और लोकोक्तियों का काफी प्रयोग किया है।
  8. उन्होंने बाल सुलभ बातों को काफी रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है।
  9. तुलसीदास जी की रचनाओं में हमें विभिन्न पर्यायवाची शब्द देखने को मिलते हैं, जिनसे उनकी रचनाओं का सौंदर्य काफी बढ़ जाता है।
  10. उन्होंने अपने काव्यों में बड़ी गहरी और ज्ञान भरी बातें कही हैं, जिन्हें समझ कर हम संसार में सही तरह से जीने की कला सीख सकते हैं।

प्रश्न – इस पूरे प्रसंग में व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य है। उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

इस व्यंग में मुझे वह छंद काफी अच्छा लगा, जिसमें परशुराम जी श्री राम के सामने अपनी बड़ाई करते हैं:

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

इस दोहे में परशुराम अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए कहते हैं कि मैंने अपने इस फरसे से कई राक्षसों का वध किया है। मेरे इस फरसे से तो गर्भ में पल रहे बच्चे भी नहीं बच पाते हैं। हे राजपुत्र! ऐसे में तुम यह सोचो कि मेरे फरसे से तुम्हारी क्या दशा होगी। अपने माता-पिता के बारे में सोचो, तुम्हारे बिना उनका क्या होगा।

प्रश्न – निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लिखिए-
(क) बालकु बोलि बधौं नहि तोही।

उत्तर – अनुप्रास अलंकार।

(ख) कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।

उत्तर – अनुप्रास और उपमा अलंकार।

(ग) तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
बार बार मोहि लागि बोलावा।।

उत्तर – उत्प्रेक्षा और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार।

(घ) लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

उत्तर – उपमा और रूपक अलंकार।

 

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