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कबीर के पद
(व्याख्या)
अरे इन दोहुन राह न पाई।
हिदू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई।
बेस्या के पायन-तर सोवै यह देखो हिदुआई।
मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहै घरहि में करै सगाई।
बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।
सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।
हिदुन की हिदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहैं कबीर सुनों भाई साधो कौन राह ह्नै जाई।।
शब्दार्थ –
दोहुन – दोनों ने। गागर – मटका। बेस्या – वेश्या या कुमार्गगामी स्त्री। पाइन-तर – पैरों के पास। पीर – गुरु, अल्लाह का पैगंबर। औलिया – संत, महात्मा, फकीर। खाला – मौसी। सखियाँ – सगे-संबंधी। जेवन – जीमना, भोजन करना। तुरकन – कबीर के समय में जो लोग बाहर (विशेषकर तुर्कीस्तान या पश्चिम एशिया) से भारत आए।
संदर्भ – व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 1 में संकलित कबीर के पद से संकलित है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद में कबीर ने हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मों के अनुयायियों को उनके आचरण के लिए खरी-खोटी सुनाई है।
व्याख्या – कबीर कहते हैं कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही अपने धर्म से भटके हुए हैं, इनको सही राह नहीं मिल रही है। हिंदू अपने धर्म की बहुत बड़ाई करता है लेकिन निम्न समझी जाने वाली जातियों के लोगों को अपनी गागर या मटका तक छूने नहीं देता। उनके साथ भेदभाव करता है। अपने आप का बड़ा कहने वाला हिंदू वेश्या के पैरों में सोता है अर्थात् वेश्यागमन करता है।
कबीर ने मुस्लिम धर्म की भी कुरीतियों पर प्रहार करते हुए कहा है कि मुसलमान के पीर-औलिया अर्थात् धर्म के ठेकेदार समझे जाने वाले लोग मुर्गा-मुर्गी का माँस खाते हैं। इनके यहाँ मौसी की बेटी के साथ बयाह रचा लिया जाता है और घर में सगाई हो जाती है। घर में होने वाले मांगलिक कार्यों में बाहर से मरा हुआ जीव लाया जाता है और उसको धोकर पकाने के लिए चढ़ाया जाता हैै। इसके बाद घर के सभी सदस्य, संबंधी आदि उसको जीमने अर्थात् खाने के लिए बैठते है और पूरे घर में ऐसे घृणित कार्य की बड़ाई की जाती है।
अंत में कबीर कहते है कि हमने हिंदू की हिंदुवाई देख ली और तुरकन की तुरकाई भी देख ली। दोनों ही धर्मों में अनेक बुराइयाँ हैं। अब यह नहीं समझ में आ रहा कि धर्म के किस मार्ग पर चला जाए।
विशेष –
1- हिंदू और मुसलमान दोनों के धर्माचरण पर प्रहार है।
2- कबीर की निर्भिकता देखने योग्य है।
3- शांत रस का प्रयोग है।
4- प्रसाद गुण है।
5- सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है।
6- तुकान्तता और गेयता है।
7- मुर्गी मुर्गा, बेटी ब्याहै, धोय-धाय, सब सखियाँ, कहैं कबीर में अनुप्रास अलंकार है।
पद –2
बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोकों लगत लाज रे।
दिल से नहीं लगाया, तब लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह-बन धरै न धीर रे।
कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे।
है कोई ऐसा पर-उपकारी, पिवसों कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे।।
शब्दार्थ – बालम – पति, प्रिय। गेह – घर। लाज – लज्जा, शर्म। मोकों – मुझको। दिल से लगाना (मुहावरा) – अत्यधिक प्रेम के कारण निकट रहना। तब लग – तब तक। सनेह – प्रेम।
संदर्भ – व्याख्येय पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक अंतरा भाग-1 के कबीर के पद से उद्धृत है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद में कबीर ने स्वयं को ऐसी विरहिणी स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया है जो अपने प्रिय के घर लौटने की राह देख रही है।
व्याख्या – कबीर ईश्वर के निराकार रूप में साकार की कल्पना करते हुए कहते हैं कि ये आत्मा रूपी प्रेमिका, परमात्मा रूपी प्रिय के दर्शनों की प्यासी है और निवेदन करती है कि ‘हे मेरे प्रियतम! तुम्हारे वियोग में मेरा शरीर अत्यधिक दुख भोग रहा है, इसलिए तुम मेरे घर आ जाओ। सारा समाज मुझे आपकी नारी अर्थात् पत्नी कहता है लेकिन तुम मुझको आकर अपने हृदय से नहीं लगाते। इसलिए उन लोगों की बातें सुनकर मुझकर संकोचवश लाज आ जाती है। जब तक तुम मेरे पास नहीं आओगे तब तक तुम्हारे और मेरा स्नेह या प्रेम पूर्ण नहीं होगा। आगे वे कहते हैं कि इस प्रिय के दर्शन की अभिलाषी इस आत्मा को परमात्मा के वियोग में न तो अन्न (भोजन) ही भाता है और न ही नींद ही आती है। इस आत्मा से घर रूपी वन में धैर्य भी धारण नहीं किया जाता। आगे कबीर कहते है कि जिस प्रकार प्रेम की इच्छा रखने वाली स्त्री (कामिनी) को अपना प्रेमी अच्छा लगता है और प्यासे व्यक्ति को जल पाने की इच्छा होती है, वैसे ही मेरे मन में परमात्मा से मिलने की तड़प है।
कबीर कहते हैं कि मेरी आत्मा लोगों से गुहार लगा रही है। कह रही कि अगर इस संसार में कोई दूसरों को उपकार करने वाला कोई जीव हो तो वह मेरे प्रेम की पुकार और मेरी दशा के बारे मे परमात्मा को सुना दे। परमात्मा के वियोग में अब मेरा जीना बेहाल हो गया है और मुझे लगता है प्रिय को बिना देखा अब मुझसे जिया ही नहीं जाएगा।
विशेष –
- कबीर ने निराकार ईश्वर में साकार की कल्पना की है।
- माधुर्य भक्ति का पद है।
- परमात्मा के वियोग में आत्मा की विरह दशा का वर्णन है।
- शृंगार रस के वियोग पक्ष का सुंदर वर्णन है।
- सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है।
- छंद – पद
- लक्षणा शब्दशक्ति है।
- ‘दुखिया देह’, ‘कोई कहै’ ‘तुम्हारी नारी’, ‘लगत लाज’ आदि में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘ज्यों प्यासे को नीर’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- ‘गृह-बन’ में रूपक अलंकार है।
- पद में तुकांतता होने के कारण गेयता है।
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कबीर के पद (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – ‘अरे इन दोहुन राह न पाई’ से कबीर का क्या आशय है और वे किस राह की बात कर रहे हैं?
उत्तर – ‘अरे इन दोहुन राह न पाई’ के द्वारा कबीर हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के अनुयायियों के बारे में बता रहे है कि इन दोनों को परमात्मा से मिलने का रास्ता नहीं मिला है। ये दोनों ही अपने-अपने धर्मों की कुरीतियों को बढ़ावा देते हैं और धर्म-पालन करने का अहंकार करते हैं। कबीर यहाँ ईश्वर-प्राप्ति के लिए अहिंसा के मार्ग पर चलने की बात कर रहे हैं।
प्रश्न – इस देश में अनेक धर्म, जाति, मजहब और संप्रदाय के लोग रहते थे किंतु कबीर हिंदू और मुसलमान की ही बात क्यों करते हैं?
उत्तर – इस देश मेें अनेक धर्म, जाति, मज़हब और संप्रदाय के होते हुए भी कबीर केवल हिंदू और मुसलमान की ही बात इसलिए करते हैं क्योंकि इन दोनों धर्मों में अन्य धर्मों के मुकाबले अधिक कुरीतियाँ थी और इन दोनों धर्मों को मानने वाले लोगों की संख्या भी बहुत ज्यादा थी।
प्रश्न – ‘हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई’ के माध्यम से कबीर क्या कहना चाहते हैं? वे उनकी किन विशेषताओं की बात करते हैं?
उत्तर – ‘हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई’ के माध्यम से कबीर इन दोनों धर्मों की निम्नलिखित कुरीतियों की ओर संकेत करते हैं-
1- हिंदू अपने घर की गागर छूने नहीं देता, लेकिन रात को वेश्या के पैरों में सोता है।
2- हिंदू अपने धर्म की बढ़ाई करता है और निम्न जातियों के साथ भेदभाव करता है।
3- मुसलमान अपने ही घर में सगाई कर लेते है और अपनी ही मौसी की बेटी से ब्याह रचा लेते हैं
4- मुसलमानो के पीर-ओलिया मुर्गा-मुर्गी बनाकर खाते हैं और जीव की हत्या पर सारा मुस्लिम समाज एक-दूसरे को बधाई देता हैै।
प्रश्न – ‘कौन राहैं जाई’ का प्रश्न कबीर के सामने भी था। क्या इस तरह का प्रश्न आज समाज में मौजूद है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – उस समय कबीर ने हिंदू और मुस्लिम धर्म की कुरीतियोें को देखा और सोचा कि धर्म के किस मार्ग पर चलकर परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है? यह प्रश्न आज भी हमारे समाज में मौजूद है। जो बुराइयाँ तत्कालीन हिंदू-मुस्लिम समाज में थीं वे आज भी ज्यों की त्यों या थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ आज भी मौजूद हैं। दोनों ही धर्मों में कुछ कुरीतियाँ तो पहले से ज्यादा दृढ़ हो चुकी हैं। जैसे आज भी ग्रामीण व पिछड़े समझे जाने वाले क्षेत्रें में ऊँच-नीच का भेदभाव बहुत अधिक पाया जाता है। त्योहारों पर आज भी मुस्लिम समाज में बेजुबान जीव की बलि दी जाती है।
प्रश्न – ‘बालम आवो हमारे गेह रे’ में कवि किसका आह्वान कर रहा है और क्यों?
उत्तर – ‘बालम आवो हमारे गेह रे’ में कवि स्वयं को परमात्मा की प्रेयसी मान कर परमात्मा रूपी प्रेमी का आह्वान कर रहा है। कवि की आत्मा अपने प्रियतम से मिलने के तड़प रही है। परमात्मा के वियोग में कवि का शरीर कष्ट पा रहा है।
प्रश्न – ‘अन्न न भावै नींद न आवै’ का क्या कारण है? ऐसी स्थिति क्यों हो गई है?
उत्तर – कबीर कहते हैं कि प्रिय के दर्शन की अभिलाषी इस आत्मा को परमात्मा के वियोग में न तो अन्न (भोजन) ही भाता है और न ही नींद ही आती है। ऐसी स्थिति इसलिए हो गई है क्योंकि इस आत्मा से घर रूपी वन में धैर्य भी धारण नहीं किया जाता।
प्रश्न – ‘कामिन को है बालम प्यारा, ज्यों प्यासे को नीर रे’ से कवि का क्या आशय है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कबीर कहते है कि जिस प्रकार प्रेम की इच्छा रखने वाली स्त्री (कामिनी) को अपना प्रेमी अच्छा लगता है और प्यासे व्यक्ति को जल पाने की इच्छा होती है, वैसे ही मेरे मन में परमात्मा से मिलने की तड़प है।
प्रश्न – कबीर निर्गुण संत परंपरा के कवि हैं और यह पद (बालम आवो हमारे गेह रे) साकार प्रेम की ओर संकेत करता है। इस संबंध में आप अपने विचार लिखिए।
उत्तर – यह सही है कि कबीर निर्गुण संत परंपरा के कवि है और यह पद साकार प्रेम की ओर संकेत करता है। किंतु इस पद के मूल में निराकार प्रेम ही है। यहाँ वास्तव में निर्गुण का ही गुणगान है।
प्रश्न – उदाहरण देते हुए दोनों पदों का भाव-सौंदर्य और शिल्प-सौंदर्य लिखिए।
उत्तर –
पद-1 अरे इन दोहुन राह न पाई। ————————————————राह ह्नै जाई।।
भाव-सौंदर्य –
कबीर कहते हैं कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही अपने धर्म से भटके हुए हैं, इनको सही राह नहीं मिल रही है। कबीर कहते है कि हमने हिंदू की हिंदुवाई देख ली और तुरकन भी तुरकाई भी देख ली। दोनों ही धर्मों में अनेक बुराइयाँ हैं। अब यह नहीं समझ में आ रहा कि धर्म के किस मार्ग पर चला जाए।
शिल्प-सौंदर्य –
- शांत रस का प्रयोग है।
- प्रसाद गुण है।
- सुधक्कड़ी भाषा का प्रयोग है।
- तुकान्तता और गेयता है।
- मुर्गी मुर्गा, बेटी ब्याहै, धोय-धाय, सब सखियाँ, कहैं कबीर में अनुप्रास अलंकार है।
पद-2 बालम, आवो हमारे गेह रे। —————————————————-जिव जाय रे।।
भाव-सौंदर्य – प्रस्तुत पद में कबीर ने स्वयं को ऐसी विरहिणी स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया है जो अपने प्रिय के घर लौटने की राह देख रही है। कबीर ईश्वर के निराकार रूप में साकार की कल्पना करते हुए कहते हैं कि ये आत्मा रूपी प्रेमिका, परमात्मा रूपी प्रिय के दर्शनों की प्यासी है और निवेदन करती है कि ‘हे मेरे प्रियतम! तुम्हारे वियोग में मेरा शरीर अत्यधिक दुख भोग रहा है, इसलिए तुम मेरे घर आ जाओ। कबीर कहते हैं कि मेरी आत्मा लोगों से गुहार लगा रही है। कह रही कि अगर इस संसार में कोई दूसरों को उपकार करने वाला कोई जीव हो तो वह मेरे प्रेम की पुकार और मेरी दशा के बारे मे परमात्मा को सुना दे। परमात्मा के वियोग में अब मेरा जीना बेहाल हो गया है और मुझे लगता है प्रिय को बिना देखा अब मुझसे जिया ही नहीं जाएगा।
शिल्प-सौंदर्य –
- शृंगार रस के वियोग पक्ष का सुंदर वर्णन है।
- सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है।
- छंद – पद
- लक्षणा शब्दशक्ति है।
- ‘दुखिया देह’, ‘कोई कहै’ ‘तुम्हारी नारी’, ‘लगत लाज’ आदि में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘ज्यों प्यासे को नीर’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
- ‘गृह-बन’ में रूपक अलंकार है।
- पद में तुकांतता होने के कारण गेयता है।
क्विज/टेस्ट
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