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आवारा मसीहा (पाठ का सार)
शब्दार्थ :- नवासा – बेटी का बेटा, नाती। पैरेलल बार – समानांतर बाड़ (बाँस की बनी रोक)। निस्तब्धता – खामोशी। यायावर प्रकृति – घुमक्कड़ी स्वभाव। कृतार्थ – परोपकार, पुरुषार्थ, संतुष्ट। अपरिग्रही – किसी से कुछ ग्रहण न करने वाला। स्वल्पाहारी – कम मात्र में भोजन करने वाला। आच्छन्न – घिरा हुआ। स्निग्धहरित प्रकाश – ऐसा हरा प्रकाश जिसमें चमक और शीतलता हो। आँखें जुड़ाने लगीं – आँखों में तृप्ति का भाव। पुलक – प्रसन्नता। विदीर्ण – भेदना। मनस्तत्व – विद्या संबंधी। पारितोषिक – पुरस्कार। शाद्वल – नयी हरी घास से युक्त। अपरिसीम – जिसकी कोई सीमा न हो। आजानबाहु – जिसकी घुटनों तक बाहें हों। प्रत्युत्पन्नमति – प्रतिभाशाली, जिसे उचित उत्तर तत्काल सूझ जाए। हतप्रभ विमूढ़ – हैरान, कुछ समझ में न आना। आत्मोत्सर्ग – आत्मबलिदान। सरंजाम – तैयारी, प्रबंध (होना, करना), काम का नतीजा। मूड़ी – मुरमुरे, चावल का भुना रूप। निरुद्वेग – शांत, उद्वेगरहित। खिरनियाँ – पीला फल, एक फलवृक्ष। कमचियाँ – बाँस आदि की पतली टहनी। निविड़ – घना, घोर। स्फुरण – काँपना, हिलना, फड़कना। गल्प – कथा, कहानी। धर्मशीला – वह स्त्री जो धर्म के अनुसार आचरण करे। पदस्खलन – अपने मार्ग से भटकना, पतन होना। अपाठ्य पुस्तकें – न पढ़ी जाने योग्य पुस्तकें। अभिज्ञता – जानना।
“आवारा मसीहा” विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित कथाकार शरतचंद्र की जीवनी है। इस जीवनी के तीन भाग हैं – दिशाहारा, दिशा की खोज और दिशांत। यह पाठ आवारा मसीहा के प्रथम पर्व दिशाहारा का अंश है। इसमें विष्णु प्रभाकर ने शरदचंद्र के बचपन से किशोरावस्था तक के जीवन के विभिन्न पहलुओं को वर्णित किया है। इसमें बचपन की शरारतों में भी शरद के एक अत्यंत संवेदनशील और गंभीर व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं। उनके रचना संसार के समस्त पात्र वस्तुतः उनके वास्तविक जीवन के ही पात्र हैं। शरद के पिता यायावर प्रवृत्ति (घुम्मकड़) के थे। वह कभी भी एक जगह बंध कर नहीं रहे। उन्होंने कई नौकरियां की तथा छोड़ी। वह कहानी, नाटक, उपन्यास इत्यादि रचनाएं लिखना तो प्रारंभ करते किंतु उनका शिल्पी मन किसी दास्ता को स्वीकार नहीं कर पाता। इसलिए रचनाएं पूर्ण नहीं हो पाती थी। जब पारिवारिक भरण-पोषण असंभव हो गया तब शरद की माता सपरिवार अपने पिता के घर आ गई। भागलपुर विद्यालय में ‘सीता-बनवास’ ‘चारु-पीठ’ ‘सद्भाव-सद्गुरु’ तथा “प्रकांड व्याकरण” इत्यादि पढ़ाया जाता था। प्रतिदिन पंडित जी के सामने परीक्षा देनी पड़ती थी और विफल होने पर दंड भोगना पड़ता था। तब लेखक को लगता था कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनुष्य को दुख पहुंचाना ही है। नाना के घर में शरद का पालन-पोषण अनुशासित रीति और नियमों के अनुसार होने लगा। घर में बाल सुलभ शरारत पर भी कठोर दंड दिया जाता था। फेल होने पर पीठ पर चाबुक पढ़ते थे। नाना के विचार से बच्चों को केवल पढ़ने का अधिकार है, प्यार और आदर से उनका जीवन नष्ट हो जाता है। वहां सृजनात्मकता के कार्य भी लुक-छुप कर करने पड़ते थे।
शरद को घर में निषिद्ध कार्यों को करने में विशेष आनंद आता था। निषिद्ध कार्यों को करने में उन्हें स्वतंत्रता का तथा जीवन में ताजगी का अनुभव होता था। शरद को पशु-पक्षी पालना, तितली पकड़ना, उपवन लगाना, नदी या तालाब में मछलियां पकड़ना, नाव लेकर नदी में सैर करना और बाग में फूल चुराना अति प्रिय था। शरद और उनके पिता मोतीलाल दोनों के स्वभाव में काफी समानताएँ थी। दोनों साहित्य प्रेमी, सौंदर्य बोधी, प्रकृति प्रेमी, संवेदनशील तथा कल्पनाशील और यायावर घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे। कभी-कभी शरद किसी को कुछ बताए बिना गायब हो जाता, पूछने पर वह बताता कि तपोवन गया था। वस्तुतः तपोवन लताओं से घिरा गंगा नदी के तट पर एक स्थान था, जहां शरद सौंदर्य उपासना करता था।
अघोरनाथ अधिकारी के साथ गंगा घाट पर जाते हुए शरद ने जब अपने अंधे पति की मृत्यु पर एक गरीब स्त्री के रुदन का करुण स्वर सुना तो शरद ने कहा कि दुखी लोग अमीर आदमियों की तरह दिखावे के लिए जोर-जोर से नहीं रोते ए उनका स्वर तो प्राणों तक को भेद जाता है ए यह सचमुच का रोना है। छोटे से बालक के मुख से रुदन की अति सूक्ष्म व्याख्या सुनकर अघोरनाथ के एक मित्र ने भविष्यवाणी की थी कि जो बालक अभी से रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है ए वह भविष्य में अपना नाम ऊंचा करेगा। अघोरनाथ के मित्र की भविष्यवाणी सच साबित हुई। शरद के स्कूल में एक छोटा सा पुस्तकालय था ए शरद ने पुस्तकालय का सारा साहित्य पढ़ डाला था।
व्यक्तियों के मन के भाव को जानने में शरद का महारत हासिल थी ए पर नाना के घर में उसकी प्रतिभा को पहचानने वाला कोई ना था। शरद छोटे नाना की पत्नी कुसुम कुमारी को अपना गुरु मानते रहे। नाना के परिवार की आर्थिक हालत खराब होने पर शरद के परिवार को देवानंदपुर लौट कर वापस आना पड़ा। मित्र की बहन धीरू कालांतर में देवदास की पारो, श्रीकांत की राजलक्ष्मी ए बड़ी दीदी की माधवी के रूप में उभरी। शरद को कहानी लिखने की प्रेरणा अपने पिता की अलमारी में रखी हरिदास की गुप्त बातें और भवानी पाठ जैसी पुस्तकों से मिली। इसी अलमारी में उन्हें पिता द्वारा लिखी अधूरी रचनाएं भी मिली, जिन्होंने शरद के लेखन का मार्ग प्रशस्त किया। शरद ने अपनी रचनाओं में अपने जीवन की कई घटनाओं एवं पात्रों को सजीव किया है। शरद में कहानी गढ़कर सुनाने की जन्मजात प्रतिभा थी। वह पंद्रह वर्ष की आयु में इस कला में पारंगत होकर गांव में विख्यात हो चुका था। गांव के जमींदार गोपाल दत्त ए मुंशी के पुत्र अतुल चंद ने उसे कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया। अतुल चंद्र शरद को थिएटर दिखाने कोलकाता ले जाता और शरद से उसकी कहानी लिखने को कहता। शरद ऐसी कहानियां लिखता की अतुल चकित रह जाता। अतुल के लिए कहानियां लिखते-लिखते शरद ने मौलिक कहानियां लिखना आरंभ कर दिया।
शरद का कुछ समय “डेहरी आन सोन” नामक स्थान पर बिता। शरद ने गृहदाह उपन्यास में इस स्थान को अमर कर दिया। श्रीकांत उपन्यास का नायक श्रीकांत स्वयं शरद है ए काशी कहानी का नायक उनका गुरु पुत्र था, जो शरद का घनिष्ठ मित्र था। लंबी यात्रा के दौरान परिचय में आई विधवा स्त्री को लेखक ने चरित्रहीन उपन्यास में जीवंत किया है। विलासी कहानी के सभी पात्र कहीं ना कहीं लेखक से जुड़े हैं। “शुभदा” में हारुण बाबू के रूप में अपने पिता मोतीलाल की छवि को उकेरा है।
श्रीकांत और विलासी रचनाओं में सांपों को वश में करने की घटना शरत का अपना अनुभव है तपोवन की घटना ने शरद को सौंदर्य का उपासक बना दिया। देवानंद गांव में शरतचंद्र का संघर्ष और कल्पना से परिचय हुआ। बातें उनकी साधना की नियुक्ति इसलिए संरक्षण कभी भी देवानंद गांव के ऋण से मुक्त नहीं हो पाए।
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आवारा मसीहा (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न :-‘उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दुख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।’ लेखक ने ऐसा क्यों कहा? आपके विचार से साहित्य के कौन-कौन से उद्देश्य हो सकते हैं?
उत्तर :- शरत जब बचपन में अपने नाना के घर रहने लगा तब उसके नाना ने खेलकूद आदि पर प्रतिबंध लगा दिया था। उनका मानना था कि अधिक लाड-प्यार से बालक बिगड़ जाते हैं। नाना के घर बालकों की शरारत पर सख्त प्रतिबंध था। अध्याय को सही से याद न करने और परीक्षा में कम अंक आने पर कोड़े से पिटाई की जाती थी। इन सभी दुखद अनुभव के कारण बालक शरत यही सोचता था कि साहित्य केवल मनुष्य को दुख पहुँचाने के लिए बना है।
साहित्य के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं-
- शिक्षित करना
- मनोरंजन करना
- जागरूकता फैलाना
- ज्ञान का प्रसार
- रुचि का विस्तार
प्रश्न :- पाठ के आधार पर बताइए कि उस समय के और वर्तमान समय के पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों में क्या अंतर और समानताएँ हैं? आप पढ़ने-पढ़ाने के कौन से तौर-तरीकों के पक्ष में हैं और क्यों?
उत्तर :- अंतर
1) उन दिनों सभी को एक ही पाठ्यक्रम का अध्ययन कराया जाता था। लेकिन आज छात्र अपनी क्षमता के आधार पर पाठ्यक्रम का अध्ययन कर रहे हैं।
2) उन दिनों सभी को खेल और अन्य गतिविधियों के लिए अनुमति नहीं थी। लेकिन आज छात्र पढ़ाई के साथ-साथ खेल को भी प्राथमिकता दे रहे हैं।
3) उन दिनों शिक्षक छात्रों को दंड देता है। लेकिन आज दंड हटाए जा रहे हैं।
समानताएँ
1) पहले भी छात्रों को अध्ययन के बारे में अनुशासित किया जाता था और आज भी ऐसा ही हो रहा है।
2) योजनाबद्ध परीक्षाओं का आयोजन पहले भी होता था और आज भी होता है।
हमारा पक्ष
1 अनुशासन आवश्यक है लेकिन छात्रों के साथ हिंसा नहीं होनी चाहिए।
2 पाठ्यक्रम का अत्यधिक बोझ नहीं होना चाहिए।
3 व्यावसायिक शिक्षा के लिए प्रावधान होना चाहिए।
प्रश्न :- पाठ में अनेक अंश बाल सुलभ चंचलताओं, शरारतों को बहुत रोचक ढंग से उजागर करते हैं। आपको कौन-सा अंश अच्छा लगा और क्यों?
उत्तर :- पाठ शरतचंद्र की बहुत-सी बाल सुलभ चंचलताओं और शरारतों से भरा पड़ा है। जैसे –
- उनका तितली पकड़ना
- तालाब में नहाना
- उपवन लगाना
- पशु-पक्षी पालना
- पिता के पुस्तकालय से पुस्तकें पढ़ना
- पुस्तकों में दी गई जानकारी का प्रयोग करना
हमें शरतचंद्र द्वारा उपवन लगाना और पशु-पक्षी पालने वाला अंश अच्छा लगा। ये कार्य हमें प्रकृति के समीप लाते हैं। इससे हमारा पशु-पक्षियों के प्रति प्रेमभाव बढ़ता है।
प्रश्न :- नाना के घर किन-किन बातों का निषेध था? शरत् को उन निषिद्ध कार्यों को करना क्यों प्रिय था?
उत्तर :- नाना मानते थे कि बच्चों का कार्य केवल पढ़ना होना चाहिए। अतः नाना के घर निम्न बातों का निषेध था-
- तालाब में नहाना
- पशु तथा पक्षियों को पालना
- बाहर जाकर खेलना
- उपवन लगानाए घूमना
- पतंगए लट्टू
- गिल्ली-डंडा तथा गोली इत्यादि खेल खेलना
जो उनकी बातें नहीं मानता था, उसे कठोर दंड दिया जाता था। शरत् स्वभाव से स्वतंत्रतापूर्वक जीने का इच्छुक था। नाना की सख्ती उसे बंधन लगती थी। वह एक विद्रोही के समान सब बंधनों को तोड़ता था। इसके लिए साहस की आवश्यकता होती है और जो उसमें बहुत था।
प्रश्न :- आपको शरत् और उसके पिता मोतीलाल के स्वभाव में क्या समानताएँ नजर आती हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- शरत तथा उसके पिता मोतीलाल स्वभाव में निम्नलिखित समानताएँ नजर आती हैं-
- दोनों की रुचि लगभग मिलती थी
- दोनों साहित्य प्रेमी थे
- सौंदर्य बोधी थे
- प्रकृति प्रेमी थे
- संवेदनशील थे
- कल्पनाशील थे।
- दोनों घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे।
प्रश्न :- क्या अभाव, अधूरापन मनुष्य के लिए प्ररेणादायी हो सकता है?
उत्तर :- हाँ, अभाव, अधूरापन मनुष्य के लिए प्ररेणादायी हो सकता है। जब जीवन में अपूर्णता होती है, तो उसे पूर्ण करने हेतु मानव परिश्रम करता है और हिम्मत के साथ आगे बढ़ता है। दुनिया भर के अधिकांश महान और प्रेरक व्यक्तित्वों की जीवन-यात्रा को पढ़कर हम जानते हैं कि वे सभी अभाव और अधूरापन के खिलाफ लड़े व उसी से प्रेरित होकर आगे बढ़े।
प्रश्न :- ‘जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।’ अघोर बाबू के मित्र की इस टिप्पणी पर अपनी टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :- अघोर बाबू के मित्र कहते थे कि साहित्य निर्माण हेतु व्यक्ति का संवेदनशील होना आवश्यक है। शरत में छोटी उम्र से ही संवेदनशीलता का गुण आ गया था। वह अपने आस पास घट रही घटनाओ का बारीकी से निरीक्षण करने में सक्षम और कुशल था। इसलिए अघोर बाबू के मित्र को यह महसूस हुआ किए बच्चे के पास यदि इस समय इस प्रकार की क्षमता मौजूद है, तो बाद में यह बच्चा मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा और ऐसा बालक उस पूरी संवेदना को कागज पर पात्रों के जरिये उकेर पायेगा । उनकी यह बात बाद में सत्य साबित हुई, शरतचंद्र की प्रत्येक रचना इस बात का प्रमाण देती है।
प्रश्न :- शरतचंद्र के जीवन की घटनाओं से आपके जीवन की जो भी घटना मेल खाती है उसके बारे में लिखिए।
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
प्रश्न :- क्या आप अपने गाँव और परिवेश से कभी मुक्त हो सकते हैं?
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
क्विज/टेस्ट
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