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पद्माकर के पद
(व्याख्या)
औरै भाँति कुंजन में गुंजरत भीर भौंर,
औरे डौर झौरन पैं बौरन के ह्वै गए।
कहैं पद्माकर सु औरै भाँति गलियानि,
छलिया छबीले छैल औरै छबि छ्वै गए।
औरै भाँति बिहग-समाज में अवाज होति,
ऐसे रितुराज के न आज दिन द्वै गए।
औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै तन औरै मन औरै बन ह्वै गए।।
शब्दार्थ – औरै – और ही प्रकार का। कुंजन – झाड़ियों में। भीर-भौंर – भौरों का समूह। छबीले-छैल – सुंदर नवयुवक।
प्रसंग – व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित पद्माकर के पद से उद्धृत है। इसमें कवि ने वसंत ऋतु में प्रकृति के सौंदर्य का अद्भुत वर्णन किया है।
व्याख्या – कवि पद्माकर कहते हैं कि वसंत ऋतु के आगमन पर बाग-बगीचों में भौंरों की गुंजार बढ़ जाती है। पेड़ की डालों पर बौर के गुच्छे बढ़ने लगते है अर्थात् बौर के बाद फल लगने का समय निकट आ जाता है। नवयुवकों पर भी वसंत का प्रभाव इस प्रकार पड़ता है कि गलियों में उनकी गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं। नव युवक छैल-छबीले बनकर गलियों में मदमस्त होकर घूमते दिखाई देते हैं। उनके मन में प्रेम की भावना बढ़ जाती है। ऋतुराज के आते ही पक्षियों की चहचहाहट बढ़ जाती है और उनकी आवाज़ में विशेष मिठास सुनाई देने लगती है। पद्माकर कवि कहते हैं कि ऐसे ऋतुराज वसंत के अभी केवल दो ही दिन बीते हैं और प्रकृति में इतना परिर्वतन हो गया है। अर्थात् अभी तो वसंत का पूरा महीना शेष है। इससे प्रकृति की बढ़ने वाली शोभा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। वसंत के आते ही प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन आते हैं जिससे रस, रीति, राग, रंग आदि अलग तरह का आनन्द देने लगते हैं। प्रकृति के साथ-साथ हमारे तन और मन भी उत्साह से भर जाते हैं।
विशेष-
- वसंत ऋतु का मनमोहक चित्रण है।
- शृंगार और अद्भुत रस का प्रयोग है।
- माधुर्य काव्य गुण है।
- लक्षणा शब्द शक्ति है।
- ब्रजभाषा का सहज प्रयोग है।
- कवित्त छंद है।
- ‘भीर भौंर’, ‘छलिया छबीले छैल और छबि छ्वै गए’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘दिन द्वे गए’ मुहावरे का प्रयोग है।
- चित्रत्मक वर्णन है।
- तुकांतता के कारण गेयता और संगीतात्मकता विद्यमान है।
गोकुल के कुल के गली के गोप गाउन के
जौ लगि कछू-को-कछू भाखत भनै नहीं।
कहैं पद्माकर परोस-पिछवारन के,
द्वारन के दौरि गुन-औगुन गनैं नहीं।
तौ लौं चलित चतुर सहेली याहि कौऊ कहूँ,
नीके कै निचौरे ताहि करत मनै नहीं।
हौं तो स्याम-रंग में चुराई चित चोराचोरी,
बोरत तौं बोर्यौ पै निचोरत बनै नहीं।।
शब्दार्थ –
गाउन – गाँवों के। भाखत भनै नहीं – कहा नहीं जा सकता, वर्णन करते नहीं बनता। दवारन – दरवाजों पर। दौरि – दौड़कर। औगुन – अवगुण, दोष। गनै नहीं – गिनते नहीं। चलित – चंचल। याहि – इस को। स्याम रंग – काला रंग, कृष्ण-प्रेम का रंग। चित – हृद्य। बोरत – डुबोना। निचौरे – निचोड़ना।
प्रसंग –
व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित पद्माकर के पद से उद्धृत है। इसमें गोपियाँ लोक-निंदा और सखी-समाज की कोई परवाह किए बिना कृष्ण के प्रेम में डूबे रहना चाहती हैं।
व्याख्या –
होली के अवसर पर गोकुल के विभिन्न परिवारों की गलियों और गाँवों के ग्वाल-बाल होली की मस्ती में डूबे हुए हैं। इन ग्वालों के मस्ती को देखकर कुछ नहीं कहा जा सकता कि ये क्या कर दें। वे किसी की बात नहीं मान रहे और होली खेल रहे हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि वे मस्ती में किसी गुण-अवगुण की परवाह किए बिना पड़ोस व पिछवाड़े के दरवाजों से भाग-भाग कर जा रहे हैं। उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं है और न ही किसी के द्वारा कोई बात कहे जाने का भय है। एक चतुर चंचल सखी गोपी पर रंग डाल देती है। सखी गोपी को अपने कपड़े का रंग निचोड़ने के लिए कहती है। लेकिन वह सखी की बात नहीं मानती। वह उसी स्याम रंग में भीगे रहना चाहती है और उसका मन कपड़े निचोडने का नहीं करता। वह यह कहते हुए श्याम रंग (कृष्ण के प्रेम का रंग) निचोड़ने से मना कर देती है कि प्रेम के इस रंग ने मेरा हृद्य चुपके से चुरा लिया है। अब मैं इस रंग में पूरी तरह डूब गयी हँू। गोपी को डर है कि कहीं श्याम-रंग को निचोड़ते ही वह कृष्ण के प्रेम से अलग न हो जाए।
विशेष –
1- होली के त्योहार पर गोप-गोपियों के श्याम रंग में डूबने का मोहक वर्णन है।
2- संयोग शंृगार रस है।
3- माधुर्य काव्य गुण है।
4- लक्षणा शब्द शक्ति है।
5- सरस ब्रजभाषा है।
6- ‘स्याम रंग’ में श्लेष अलंकार है। स्याम का एक अर्थ काला और दूसरा अर्थ कृष्ण निकलता है।
7- ‘गोकुल के कुल’, ‘चलित चतुर’, ‘परोस-पिछवारन’, ‘गली के गोप गाउन’, ‘चुराई चित चोराचोरी’, ‘बोर तो बार् यौ’ आदि में अनुप्रास अलंकार है।
8- कवित्त छंद है।
9- कवित्त में तुकान्तता है।
10- कवित्त में संगीतात्मकता के साथ-साथ गेयता भी विद्यमान है।
भौंरन को गुंजन बिहार बन कुंजन में,
मंजुल मलारन को गावनो लगत है।
कहैं पद्माकर गुमानहूँ तें मानहुँ तैं,
प्रानहूँ तैं प्यारो मनभावनो लगत है।
मोरन को सोर घनघोर चहुँ ओरन,
हिंडोरन को बृंद छवि छावनो लगत है।
नेह सरसावन में मेह बरसावन में,
सावन में झूलिबो सुहावनो लगत है।।
शब्दार्थ –
भौंरन – भौंरों का। कुंजन – बाग-बगीचों। मंजुल – सुंदर। गावनो – गाना। गुमानहूँ – रूठ जाना। मानहूँ – मान करना। मलारन – मल्हार राग। प्राणहूँ – प्राणों से। मनभावनो – मन को भाने वाला। सोर – शोर। हिंडोरन – झूले। वृंद – समूह। नेह – प्रेम। मेह – वर्षा। सुहावनो – अच्छा।
प्रसंग –
व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित पद्माकर के पद से उद्धृत है। इस कवित्त में पद्माकर ने वर्षा ऋतु में प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य और क्रियाओं का वर्णन किया है।
व्याख्या –
इस पद में रीतिकालीन कवि पद्माकर वर्षा ऋतु के वातावरण का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वर्षा ऋतु में भौरों की गुंजार सुंदर मल्हार राग की भांति प्रतीत होती है। भौंरों को आवाज सुनकर लगता है जैसे वे मल्हार गा रहे हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि वर्षा ऋतु में प्रियतम चाहे रूठ जाए या मान करे, तब भी प्रेमिका को वह अपने प्राणों से प्यारा लगता है। वर्षा ऋतु में मोरों का घनघोर शोर चारों ओर हो रहा है और हिंडोलों (झूलों) पर लोगों का समूह मन को भाने वाले लग रहे हैं। सावन मास में प्रिय को स्नेह के रस से परिपूर्ण कर देना, बादलों का बरसना और झूला झूलना बहुत ही सुहावना लगता है।
विशेष –
1- वर्षा ऋतु का मनोहारी चित्रण है।
2- संयोग शंृगार रस है।
3- माधुर्य गुण विद्यमान है।
4- लक्षणा शब्द शक्ति है।
5- सरस ब्रजभाषा है।
6- कवित्त छंद है।
7- ‘बिहार बन’, ‘मंजुल मलारन’, ‘छवि छावनो’, ‘प्रानहुँ तै प्यारो’ आदि में अनुप्रास अलंकार है।
8- चित्रत्मक वर्णन है।
9- तुकात्मकता है।
10- संगीतात्मकता के साथ-साथ गेयता है।
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पद्माकर के पद
(प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – पहले छंद में कवि ने किस ऋतु का वर्णन किया है?
उत्तर – पहले छेद में कवि ने वसंत ऋतु का मादक वर्णन किया है।
प्रश्न – इस ऋतु में प्रकृति में क्या परिवर्तन होते हैं?
उत्तर – कवि पद्माकर कहते हैं कि वसंत ऋतु के आगमन पर बाग-बगीचों में भौंरों की गुंजार बढ़ जाती है। पेड़ की डालों पर बौर के गुच्छे बढ़ने लगते है। ऋतुराज के आते ही पक्षियों की चहचहाहट बढ़ जाती है और उनकी आवाज़ में विशेष मिठास सुनाई देने लगती है। पद्माकर कवि कहते हैं कि ऐसे ऋतुराज वसंत के अभी केवल दो ही दिन बीते हैं और प्रकृति में इतना परिर्वतन हो गया है। अर्थात् अभी तो वसंत का पूरा महीना शेष है। इससे प्रकृति की बढ़ने वाली शोभा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। वसंत के आते ही प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन आते हैं जिससे रस, रीति, राग, रंग आदि अलग तरह का आनन्द देने लगते हैं। प्रकृति के साथ-साथ हमारे तन और मन भी उत्साह से भर जाते हैं।
प्रश्न – ‘औरै’ की बार-बार आवृत्ति से अर्थ में क्या विशिष्टता उत्पन्न हुई है?
उत्तर – कवि ने प्रथम छंद में ‘औरे’ शब्द की बार-बार आवृत्ति की है। इस शब्द को दोहराकर वसंत के आगमन पर प्रकृति में होने वाले विशेष प्रकार के बदलावों की ओर संकेत किया गया है। यहाँ तक कि प्रकृति के साथ-साथ लोगों के तन-मन, राग, रस, रंग आदि सभी में विशेष बदलाव महसूस होता है। प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति पाठक के मानस पटल पर अंकित हो जाती है।
प्रश्न – ‘पद्माकर के काव्य में अनुप्रास की योजना अनूठी बन पड़ी है।’ उक्त कथन को प्रथम छंद के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – पद्माकर रीतिकालीन कवि हैं। रीतिकालीन कवि होने के कारण अलंकारप्रियता उनके काव्य का स्वभाविक गुण है। पद्माकर के काव्य में अनुप्रास की अनूठी योजना है। प्रथम छंद में इस विशेषता को सहज ही देखा जा सकता है। जैसे – ‘भीर भौंर’, ‘छलिया छबीले छैल और छबि छ्वै गए’ आदि के द्वारा पद्माकर अनूठी संगीतात्मकता और ध्वनिचित्र उपस्थित करते हैं। अन्त्यानुप्रास के कारण उनके काव्य में लय तथा गेयता का गुण उत्पन्न होता है।
प्रश्न – होली के अवसर पर सारा गोकुल गाँव किस प्रकार रंगों के सागर में डूब जाता है? दूसरे छंद के आधार पर लिखिए।
उत्तर – होली के अवसर पर गोकुल के विभिन्न परिवारों की गलियों और गाँवों के ग्वाल-बाल होली की मस्ती में डूबे हुए हैं। इन ग्वालों के मस्ती को देखकर कुछ नहीं कहा जा सकता कि ये क्या कर दें। वे किसी की बात नहीं मान रहे और होली खेल रहे हैं। पद्माकर कवि कहते हैं कि वे मस्ती में किसी गुण-अवगुण की परवाह किए बिना पड़ोस व पिछवाड़े के दरवाजों से भाग-भाग कर जा रहे हैं। उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं है और न ही किसी के द्वारा कोई बात कहे जाने का भय है।
प्रश्न – ‘बोरत तौं बोर्यौ पै निचोरत बनै नहीं’ इस पंक्ति में गोपिका के मन का क्या भाव व्यक्त हुआ है?
उत्तर – एक चतुल चंचल सखी गोपी पर रंग डाल देती है। सखी गोपी को अपने कपड़े का रंग निचोड़ने के लिए कहती है। लेकिन वह सखी की बात नहीं मानती। वह उसी स्याम रंग में भीगे रहना चाहती है और उसका मन कपड़े निचोडने का नहीं करता। वह यह कहते हुए श्याम रंग (कृष्ण के प्रेम का रंग) निचोड़ने से मना कर देती है कि प्रेम के इस रंग ने मेरा हृद्य चुपके से चुरा लिया है। अब मैं इस रंग में पूरी तरह डूब गयी हँू। गोपी को डर है कि कहीं श्याम-रंग को निचोड़ते ही वह कृष्ण के प्रेम से अलग न हो जाए।
प्रश्न – पद्माकर ने किस तरह भाषा शिल्प से भाव-सौंदर्य को और अधिक बढ़ाया है? सोदाहरण लिखिए।
उत्तर – भाषा पर पद्माकर की अद्भुत पकड़ है। वे भाषा-शिल्प के द्वारा भाव-सौंदर्य की वृद्धि करने में सिद्धहस्त हैं। उनके काव्य में चित्रत्मकता के कारण भाव-सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है। जैंसे –
‘‘मोरन को सोर घनघोर चहुँ ओरन,
हिंडोरन को बृंद छवि छावनो लगत है।’’
आलंकारिक प्रयोग के द्वारा भी पद्माकर भाव-सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। जैसे –
अनुप्रास – ‘छलिया छबीले छैल औरै छबि छ्वै गए।’
श्लेष – ‘हौं तो स्याम-रंग में चुराई चित चोराचोरी।’
प्रश्न – तीसरे छंद में कवि ने सावन ऋतु की किन-किन विशेषताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है?
उत्तर – रीतिकालीन कवि पद्माकर वर्षा ऋतु के वातावरण का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वर्षा ऋतु में भौरों की गुंजार सुंदर मल्हार राग की भांति प्रतीत होती है। भौंरों को आवाज सुनकर लगता है जैसे वे मल्हार गा रहे हैं। वर्षा ऋतु में मोरों का घनघोर शोर चारों ओर हो रहा है और हिंडोलों (झूलों) पर लोगों का समूह मन को भाने वाले लग रहे हैं। सावन मास में प्रिय को स्नेह के रस से परिपूर्ण कर देना, बादलों का बरसना और झूला झूलना बहुत ही सुहावना लगता है।
प्रश्न – ‘गुमानहँू तें मानहँु तैं’ में क्या भाव-सौंदर्य छिपा हैं?
उत्तर – पद्माकर कवि कहते हैं कि वर्षा ऋतु में प्रियतम चाहे रूठ जाए या मान करे, तब भी प्रेमिका को वह अपने प्राणों से प्यारा लगता है। वर्षा ऋतु में वातावरण इतना मोहक हो जाता है कि अगर प्रेमी अभिमानपूर्वक रूठ भी जाए तो भी बुरा नहीं लगता और उसे मनाना अच्छा लगता है।
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