कक्षा 11 » जग तुझको ; सब आँखों के (महादेवी वर्मा)

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL
जाग तुझको दूर जाना
(कविता की व्याख्या)

चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कंप हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जागकर विद्युत-शिखाओं में निठुर तूप़्ाफ़ान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ –

चिर – सदा रहने वाला, लंबे समय से। सजग – जागरुक, सावधान। उनींदी – नीद से भरी हुई। व्यस्त बाना – अस्त-व्यस्त पहनावा। अचल – दृढ़ संकल्प। हिमगिरि – बर्फ से ढका हुआ पहाड़। कंप – कंपन। प्रलय – नाश। मौन – चुपचाप। अलसित – आल्यस्य में भरा हुआ। व्योम – आकाश। आलोक – प्रकाश। डोले – हिल जाए। तिमिर – अंधकार। विद्युत – बिजली। शिखाओं – चोटियाँ। निठुर – निष्ठुर। नाश-पथ – प्रलय का रास्ता।

संदर्भ – व्याख्येय पंक्तियाँ छायावादी कविता की आधार स्तंभ कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ से उद्धृत हैं। यह कविता महादेवी जी के काव्य-संग्रह ‘सांध्य गीत’ में संकलित है।

प्रसंग – यहाँ कवयित्री स्वतंत्रता संग्राम में शामिल वीरों को उद्बोधित करती हुई उनको बंधनों से मुक्त होकर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।

व्याख्या – कवयित्री संघर्षशील देशवासियों का आह्वान करते हुए करती है कि तुम्हें स्वतंत्रता के रास्ते पर बहुत दूर तक जाना है इसलिए तू जाग जा। तुम तो लगातार जागरुक बने रहते हो फिर आज क्यों तुम्हारी आँखे नींद से भरी हुई दिख रही हैं और तुम्हारी वेशभूषा कैसे अस्त-व्यस्त हो गई है। तुम्हारा लक्ष्य अभी दूर है और रास्त उबड़-खाबड़ कठिनाइयों से भरा हुआ है। रास्ते की मुश्किलों को दूर करते हुए तुम्हें आलस को त्यागना होगा। दृढ़ हिमालय के कठोर हृदय में आज भले ही कंपन आ जाए या मौन रहने वाला आकाश भले ही आज आँसू बहाने लगे लेकिन तुमको अपने रास्ते पर बढ़ते रहना है। आज चाहे अधंकार की छाया प्रकाश को मिटा दे या बिजली की गड़गड़ाहट से घनघोर तूफान घिर आए। लेकिन तुझे इस नाशवान पथ पर अपनी सफलता के निशान छोड़ने होंगे ताकि अन्य लोग भी तुम्हारा अनुसरण कर सकें।

विशेष –

  • कवयित्री ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देशवासियों का आह्वान किया है।
  • ‘हिमगिरि के हृद्य’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
  • ‘विद्युत-शिखाओं’ और ‘नाश-पथ’ में सामासिकता का प्रयोग है।
  • वीर रस का प्रयोग है।
  • ओज काव्य गुण है।
  • गीत शैली का प्रयोग है।

बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ –

मोम के बंधन – कमजोर बंधन। पंथ – रास्ता, मार्ग। बाधा – रुकावट। तितलियों – सुंदर व आकर्षक स्त्रियों के लिए प्रतीक। पर रंगीले – आकर्षक बंधन। क्रंदन – विलाप, दुःख। मधुप – भौंरा। गुनगुन – गुंजार, आवाज। कारा – जेल।

संदर्भ – व्याख्येय पंक्तियाँ छायावादी कविता की आधार स्तंभ कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ से उद्धृत हैं। यह कविता महादेवी जी के काव्य-संग्रह ‘सांध्य गीत’ में संकलित है।

प्रसंग – यहाँ कवयित्री स्वतंत्रता संग्राम में शामिल वीरों को प्रकृति के झूठे बंधनों से विचलित न होने के लिए प्रेरित कर रही है।

व्याख्या – कवयित्री स्वतंत्रता संग्राम में शामिल वीरों को संबोधित करते हुए कहती है कि क्या तुझे मोम के समान कोमल बंधन अथवा सांसारिक मोह-माया बाँध लेंगे। तुझे इन बंधनों में बंधना नहीं है। क्या तुझे स्त्रियों के रूप में रंग-बिरंगी तितलियों का आकर्षण मोह लेगा और तुम्हारे पथ की रुकावट बनेगा? तुझे इस झूठे आकर्षण में दूर रहना है। क्या तुम्हारे कानों में पड़नी वाली भौंरे की मधुर गुंजार संसार की पराधीनता की पीड़ा भुला देगी? क्या तुझे फूल पर पड़ी ओस की बूँदे दुःख बनकर डुबा देंगी? तुझे अपनी छाया अथवा सुख-भोग का अपने पैरो के लिए जेल नहीं बनाना है। तुम्हें संसार के सभी बधनों और सुख-साधनों का मोह त्यागकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते रहना है।

विशेष –

  • कवयित्री ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देशवासियों का आह्वान किया है।
  • ‘मधुप की मधुर’ अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘तितलियों’ में लाक्षणिकता है।
  • ‘मोम के बंधन’ नवीन प्रयोग है।
  • वीर रस है।
  • ओज गुण हैं
  • प्रश्नवाचक गीत शैली है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

वज्र का उर एक छोटे अश्रु-कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया?
सो गई आँधी मलय की वात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया?
अमरता-सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ –

वज्र – पत्थर जैसा कठोर। उर – हृद्य। अश्रु-कण – आँसू की बूँदें। सुधा – अमृत। मदिरा – शराब। मलय की वात – दक्षिण दिशा की ओर से बहने वाली सुगंधित हवा। उपधान – सहारा, तकिया। चिर – लंबे समय तक। अमरता-सुत – अमर ब्रह्म के पुत्र।

संदर्भ – व्याख्येय पंक्तियाँ छायावादी कविता की आधार स्तंभ कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ से उद्धृत हैं। यह कविता महादेवी जी के काव्य-संग्रह ‘सांध्य गीत’ में संकलित है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री मनुष्य को अमरता का पुत्र कहती है और उसे दुख के साधनों से दूर रहने के लिए चेताती है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि हे संघर्षरत् मानव तेरे हृद्य में उदासीनता क्यों बस गई है। तेरा हृद्य तो दुःखों को सहन करने वाला वज्र की तरह कठोर था वह क्यों छोटे-से आँसू में धुल कर गल गया है। तू किसको अपने जीवन का अमृत देकर दो घूँट मदिरा माँग लाया है? तुम्हारे जीवन में क्रांतिकारी रूप की आँधी मयल पर्वत से चलने वाली सुगंधित वायु का सहारा लेकर सो गई है क्या? क्या समस्त विश्व का अभिशाप तुम्हारे पास कभी न समाप्त होने वाली निद्रा बनकर आ गया है? तुम अमर ब्रह्म की सृष्टि हो तुम अपने हृद्य में मृत्यु का भय क्यों बसा लेना चाहते हो? तुम्हारा मार्ग बहुत लंबा है अतः तुम्हें भौतिक आकर्षणों से दूर रहकर आगे बढ़ते जाना है।

विशेष –

  1. कवयित्री भौतिक आकर्षणों से दूर रहने का संदेश दे रही है।
  2. ‘अश्रु-कण’ ‘अमरता-सुत’ में सामासिकता है।
  3. ‘मदिरा माँग’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. ‘जीवन-सुधा’ में रूपक अलंकार है।
  5. ‘सो गई आँधी’ में मानवीकरण अलंकार है।
  6. प्रश्नवाचक गीत शैली है।
  7. वीर रस है।
  8. ओज गुण है
  9. तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी_
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग को है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शैय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना!

शब्दार्थ –  जलती कहानी – बीते हुए जीवन की दुःख भरी बातें। उर – हृद्य। दृग – आँख। पानी – जल, आत्म-सम्मान। पताका – ध्वज। क्षणिक – पल भर के लिए। अंगार-शैय्या – अंगारों की सेज। मृदुल – कोमल।

संदर्भ – व्याख्येय पंक्तियाँ छायावादी कविता की आधार स्तंभ कवयित्री महादेवी वर्मा की कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ से उद्धृत हैं। यह कविता महादेवी जी के काव्य-संग्रह ‘सांध्य गीत’ में संकलित है।

प्रसंग – इस पद्यांश में कवि मार्ग में आने वाली बाधाओं से न घबराने के लिए प्रेरित कर रही है।

व्याख्या – जो प्राणी जीवन के दुःख और वेदना को ही जीवन का आधार बना लेते हैं कवयित्री उनको संबोधित करते हुए कहती है कि तुम ठंडी साँसों में अपने जीवन की विरह-व्यथा मत कहो। अगर तुम्हारे हृद्य में आग अर्थात् उत्साह होगा तभी तुम्हारी आँखों में आँसू की बूँदें सुशोभित होंगी। भाव है कि हृद्य में जितनी दृढ़ता होगी, तुम्हारी आँखों में आत्मसम्मान भी उतना ही अधिक होगा। ऐसी स्थिति में तुम्हारी हार भी जीत के समान मानी जाएगी। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर जलकर अपना जीवन लुटा देता है लेकिन फिर भी अमर हो जाता है। उसी प्रकार तुम अपने देश पर अपने प्राण न्योछावर करके अमर हो सकते हो। तुम्हें अपने मार्ग में आनी वाली बाधाओं का दूर करना और उनसे प्रेरणा लेते हुए अपनी हार का जीत में बदलना है।

विशेष –

  • कवयित्री मार्ग की बाधाओं का दूर करने की प्रेरणा दे रही है।
  • ‘सजेगा आज पनी’ – पानी में श्लेष अलंकार है।
  • ‘अंगार-शÕया’ पर मृदुल कलियाँ बिछाना’ में विरोधाभास अलंकार है।
  • ‘अंगार-शÕया’ में रूपक अलंकार है।
  • वीर रस है।
  • ओज गुण है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली हिंदी है।

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL
जाग तुझको दूर जाना
(प्रश्न-उत्तर)

1- ‘जाग तुझको दूर जाना’ कविता में कवयित्री मानव को किन विपरीत स्थितियों में आगे बढ़ने के लिए उत्साहित कर रही है?

उत्तर – ‘जाग तुझको दूर जाना’ कविता में कवयित्री मानव को विपरीत परिस्थियों में आगे बढ़ने के लिए उत्साहित कर रही है। कवयित्री कहती है कि अचल और दृढ़ हिमालय के कठोर हृदय में भले ही कंपन हो जाए अथवा मौन आकाश अपना आलस छोड़कर प्रलयंकारी होकर आँसू क्यों न बहाने लगे लेकिन तुझे निरंतर आगे बढ़ते रहना है। घबराकर अपने कदमों को रोकना नहीं है।

प्रश्न – ‘मोम के बंधन’ और ‘तितलियों के पर’ का प्रयोग कवयित्री ने किस संदर्भ में किया है और क्यों?
उत्तर –

  • मोम के बंधन – यह प्रतीक सांसारिक मोह-माया के लिए प्रयोग हुआ है। सांसारिक मोह-बंधन मोम की तरह कोमल और गल जाने वाले होते हैं।
  • तितलियों के पर – यह प्रतीक सुंदर और आकर्षित करने वाली स्त्रियों के लिए हुआ है। स्त्रियों के आकर्षण में बंधा हुआ व्यक्ति मार्ग से भटक जाता है।

प्रश्न – कवयित्री किस मोहपूर्ण बंधन से मुक्त होकर मानव को जागृति का संदेश दे रही है?

उत्तर – कवयित्री सांसारिक मोहपूर्ण बंधन से मुक्त होकर मानव को जागृति का संदेश दे रही है। कवयित्री स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत् मानव को जागृति का संदेश देते हुए कहती है कि तुझे इन बंधनों में बंधना नहीं है। क्या तुझे स्त्रियों के रूप में रंग-बिरंगी तितलियों का आकर्षण मोह लेगा और तुम्हारे पथ की रुकावट बनेगा? तुझे इस झूठे आकर्षण में दूर रहना है। क्या तुम्हारे कानों में पड़नी वाली भौंरे की मधुर गुंजार संसार की पराधीनता की पीड़ा भुला देगी? क्या तुझे फूल पर पड़ी ओस की बूँदे दुःख बनकर डुबा देंगी? तुझे अपनी छाया अथवा सुख-भोग का अपने पैरो के लिए जेल नहीं बनाना है। तुम्हें संसार के सभी बधनों और सुख-साधनों का मोह त्यागकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते रहना है।

प्रश्न – कविता में ‘अमरता-सुत’ का संबोधन किसके लिए और क्यों आया है?

उत्तर – कविता में ‘अमरता-सुत’ का संबोधन अमर ब्रह्म से जन्मी जीवात्मा या मानव के लिए किया गया है। यह अमरता-सुत अपनी शक्तियों से अपरिचित हो मृत्यु का भय अपने हृद्य में बसा रहा है। यह भय ही स्वाधीनता प्राप्ति के लक्ष्य में रुकावट पैदा करता है। जबकि अमरता का बेटा होने के नाते मानव के लिए मृत्यु का भय व्यर्थ है।

प्रश्न – ‘जाग तुझको दूर जाना’ स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा से रचित एक जागरण गीत है। इस
कथन के आधार पर कविता की मूल संवेदना को लिखिए।

उत्तर – ‘जाग तुझको दूर जाना’ स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा से रचित एक जागरण गीत है। इस गीत की मूल संवेदना स्वधीनता के प्रयास करने वाले वीरों को उत्साहित करने से जुड़ी है। कवयित्री इस गीत के माध्यम से वीरों को रास्ते की कठिनाइयों से घबराए बिना आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है। कवयित्री कहती है कि अमरता-सुत होने के नाते मानव का सांसारिक मोह-बधनों से दूर रहना है और अपने हृद्य के भय को दूर करते हुए आगे बढ़ना है।

6- निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-

(क) विश्व का क्रंदन————–अपने लिए कारा बनाना!

भाव-सौंदर्य: कवयित्री कहती है कि क्या तुम्हारे कानों में पड़नी वाली भौंरे की मधुर गुंजार संसार की पराधीनता की पीड़ा भुला देगी? क्या तुझे फूल पर पड़ी ओस की बूँदे दुःख बनकर डुबा देंगी? तुझे अपनी छाया अथवा सुख-भोग का अपने पैरो के लिए जेल नहीं बनाना है। तुम्हें संसार के सभी बधनों और सुख-साधनों का मोह त्यागकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते रहना है।

शिल्प-सौंदर्य:

  • कवयित्री ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देशवासियों का आह्वान किया है।
  • ‘मधुप की मधुर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • वीर रस है।
  • ओज गुण हैं
  • प्रश्नवाचक गीत शैली है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

(ख) कह न ठंडी साँस————–सजेगा आज पानी।

भाव-सौंदर्य: जो प्राणी जीवन के दुःख और वेदना को ही जीवन का आधार बना लेते हैं कवयित्री उनको संबोधित करते हुए कहती है कि तुम ठंडी साँसों में अपने जीवन की विरह-व्यथा मत कहो। अगर तुम्हारे हृद्य में आग अर्थात् उत्साह होगा तभी तुम्हारी आँखों में आँसू की बूँदें सुशोभित होंगी। भाव है कि हृद्य में जितनी दृढ़ता होगी, तुम्हारी आँखों में आत्मसम्मान भी उतना ही अधिक होगा।

शिल्प-सौंदर्य:

  • कवयित्री मार्ग की बाधाओं का दूर करने की प्रेरणा दे रही है।
  • ‘सजेगा आज पनी’ – पानी में श्लेष अलंकार है।
  • वीर रस है।
  • ओज गुण है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली हिंदी है।

(ग) है तुझे अंगार-शÕया————–कलियाँ बिछाना!

भाव-सौंदर्य: जिस प्रकार पतंगा दीपक पर जलकर अपना जीवन लुटा देता है लेकिन फिर भी अमर हो जाता है। उसी प्रकार तुम अपने देश पर अपने प्राण न्योछावर करके अमर हो सकते हो। तुम्हें अपने मार्ग में आनी वाली बाधाओं का दूर करना और उनसे प्रेरणा लेते हुए अपनी हार का जीत में बदलना है।

काव्य-सौंदर्य:

  • कवयित्री मार्ग की बाधाओं का दूर करने की प्रेरणा दे रही है।
  • ‘अंगार-शÕया’ पर मृदुल कलियाँ बिछाना’ में विरोधाभास अलंकार है।
  • ‘अंगार-शÕया’ में रूपक अलंकार है।
  • वीर रस है।
  • ओज गुण है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली हिंदी है।

7- कवयित्री ने स्वाधीनता के मार्ग में आनेवाली कठिनाइयों को इंगित कर मुनष्य के भीतर किन गुणों का विस्तार करना चाहा है? कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – कवयित्री ने स्वतंत्रता के रास्ते में आनेवाली कठिनाइयों की ओर इंगित करते हुए मनुष्य के अंदर निम्न गुणों का विस्तार करना चाहा है-

  • मानव के भीतर की दृढ़ता।
  • निरंतर संघर्षशील रहने की भावना।
  • विपरीत परिस्थितियों में विचलित न होने का आत्म शक्ति।
  • सांसारिक झूठी मोह-माया का त्याग।
  • स्वाधीनता पथ पर बलिदान क भावना।
  • मृत्यु के भय का त्याग।

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL
सब आँखों के आँसू उजले
(व्याख्या)

सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पला!
जिसने उसको ज्वाला सौंपी
उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा!
दोनों संगी, पथ एक कितु कब दीप खिला कब फूल जला?

शब्दार्थ – ज्वाला – आग। मकरंद – फूलों का रस। आलोक – रोशनी। सौरभ – सुगंध। संगी – साथी।

संदर्भ – व्याख्येय पद्यांश छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता ‘सब आँखों के आँसू उजले’ कविता से उद्धृत है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री दीपक और फूल की प्रकृति के माध्यम से वैयक्तिक सत्य का बोध कराती है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि प्रत्येक व्यक्ति की आँखों के आँसुओं में एक ही प्रकार का उजाला या पवित्रता होती है तथा सभी के सपनों व कल्पनाओं में अपना-अपना यथार्थ या सत्य रहता है। जो ईश्वर दीपक को प्रकाश देता है वही ईश्वर फूलों में रस का संचार करता है। दीपक और फूल दोनों का अपना-अपना सत्य होता है। जहाँ एक ओर दीपक स्वयं का समाप्त कर संसार को उजाला देता है वहीं फूल अपनी सुगंध का प्रसार वातावरण में करता है। स्वयं को मिटाकर संसार को को कुछ दे देने के भाव से दीपक और फूल संगी-साथी दिखाई देते हैं। लेकिन दोनों में पर्याप्त भिन्नता भी है। दीपक फूल की तरह कभी खिल नहीं सकता उसी प्रकार फूल जलकर संसार को प्रकाश नहीं दे सकता। यही दोनों का अपना-अपना सत्य है।

विशेष –

  • कवयित्री त्याग की भावना के साथ स्वयं के स्वभाव को बनाए रखने के लिए प्रेरित कर रही है।
  • ‘सबके सपनों में सत्य’, ‘किंतु कब’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘धुल-धुल’ में पुनरुक्ति प्रकश अलंकार है।
  • आँसू उजले पवित्रता का प्रतीक है।
  • लक्षणा शब्द शक्ति है।
  • माधुर्य गुण है।
  • रहस्यवादी भावना का प्रभाव है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बना भू को घेरे
इसका नित उर्मिल करुणा-जल
कब सागर उर पाषाण हुआ, कब गिरि ने निर्मम तन बदला?

शब्दार्थ – अचल – पर्वत, पहाड़। धरा – पृथ्वी। भेंट – उपहार। शत – सौ। निर्झर – झरने। चंचल – झिलमिलाते हुए। चिर – लंबी। परिधि – घेरा। भू – धरती। नित – लगातार बना रहने वाला। उर्मिल – पवित्र। उर – हृदय। पाषाण – पत्थर। गिरि – पर्वत, पहाड़।

संदर्भ – व्याख्येय पद्यांश छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता ‘सब आँखों के आँसू उजले’ कविता से उद्धृत है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री पर्वत और सागर की प्रकृति के माध्यम से वैयक्तिक सत्य का बोध कराती है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि पर्वत सौ-सौ झरनों के रूप में चलायमान होकर धरती को जल भेंट स्वरूप दे देता है। यह समुद्र भी अपने करुणा रूपी जल से लगातार बड़ा घेरा बनाकर धरती को घेरे हुए है। दोनों ही अपने-अपने माध्यम से धरती को भेंट स्वरूप जल देते हैं लेकिन दोनों की प्रकृति एक होते हुए भी भिन्न है। सागर कब अपनी तरल प्रकृति को त्यागकर पर्वत के समान पत्थर के हृद्य का बनता है? दूसरी ओर पर्वत भी कब अपना कठोर स्वभाव छोड़कर सागर के तुल्य सरल बनता है। भावार्थ हैै कि पर्वत और सागर अपना-अपना व्यक्तिगत स्वभाव बनाए रखते हुए संसार को अपने-अपने जल से शोभित करते रहते हैं।

विशेष –

  • पर्वत और सागर के स्वभाव के विषय में बताया है।
  • शत-शत में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘करुणा-जल’ में रूपक अलंकार है।
  • ‘चंचल चिर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘अचल’ में श्लेष अलंकार है।
  • लक्षणा शब्दशक्ति है।
  • माधुर्य गुण है।
  • रहस्यवादी भावना प्रकट हुइ है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

नभ तारक-सा खंडित पुलकित
यह क्षुर-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों-सा झूम रहा,
अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक पिघला?

शब्दार्थ – नभ – आकाश। तारक – तारा। खंडित – टुकड़े में बँटा हुआ। पुलकित – प्रसन्नचित, खुश। क्षुर-धारा – तेज धार। मधु-रस – शहद। केशर-किरणों-सा – सुनहरी किरणों के समान। कंचन – सोना। हिरक – हीरा।

संदर्भ – व्याख्येय पद्यांश छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता ‘सब आँखों के आँसू उजले’ कविता से उद्धृत है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री हीरे और सोने की प्रकृति के माध्यम से वैयक्तिक सत्य का बोध कराती है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि हीरा तराशे जाने के अपने क्रम में आकाश के तारों के समान खंडित होता है और खुश होकर झिलमिलाहट रूपी आकाशगंगा को चूमने लगता है। दूसरी ओर सोना तपाये जाने के क्रम में अंगारों का शहद जैसा रस पीकर सुनहरी किरणाें के समान झूमने लगता है। हीरा और सोना दोनों ही कष्टप्रद क्रम से गुजरकर अनमोल स्थिति प्राप्त करते हैं। लेकिन अनमोल बनने के लिए दोनों अपने मूल स्वभाव को नहीं त्यागते। अनमोल बनने के लिए न तो सोना हीरे की तरह टूटता है और न ही हीरा सोने की तरह पिघलता है।

विशेष –

  • हीरे तथा सोने के सहज सौंदर्य को दर्शाया गया है।
  • ‘कचन’ और ‘हीरक’ का मानवीकरण किया गया है।
  • ‘नभ तारक-सा’, ‘केशर-किरणों-सा’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘केशर-किरणों’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • लक्षणा शब्दशक्ति है।
  • माधुर्य गुण है।
  • रहस्यवादी भावना प्रकट हुइ है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

नीलम मरकत के संपुट दो
जिनमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रूप
उसकी आभा स्पंदन होती!
जो नभ में विद्युत-मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला!

शब्दार्थ –  नीलम – नीलम नाम का मोती। मरकत – पन्ना। संपुट – दोने। जीवन-मोती – जीवन रूपी मोती। आभा – तेज, रोशनी। स्पंदन – कंपन। नभ – आकाश। विद्युत- बिजली। मेघ – बादल। रज – धुल। अंकुर – नन्हा पौधा।

संदर्भ – व्याख्येय पद्यांश छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता ‘सब आँखों के आँसू उजले’ कविता से उद्धृत है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने संपूर्ण सृष्टि को दोने के स्वरूप के समान बताया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि नीला आसमान नीलम से बने दोने की तरह है और धरती पन्न (मरकत) से बने हुए दोने जैसी लगती है। इन दोनों के बीच में ही जीवन रूपी मोती बनता है। इस मोती में अनेक प्रकार के रंग-रूप ढलते रहते हैं। इन रंग-रूपों में उसी परम् सत्ता ईश्वर की झलक कंपित होती रहती है। जो परम् सत्ता आसमान में बादल और बिजली का रूप धारण करता है वही ईश्वर मिट्टी से अंकुर के रूप में फूट पड़ता है।

विशेष –

  • ईश्वर के अलग-अलग रूपों में उद्भासित होने का भाव है।
  • ‘जीवन-मोती’ में रूपक अलंकार है।
  • प्रतीक – मोती को जीवन का प्रतीक, नीलम को आकाश का प्रतीक तथा मरकत को धरती का प्रतीक बताया गया है।
  • रंग-रूप में अनुप्रास अलंकार है।
  • लक्षणा शब्दशक्ति है।
  • माधुर्य गुण है।
  • रहस्यवादी भावना प्रकट हुइ है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

संसृति के प्रति पग में मेरी
साँसों का नव अंकन चुन लो,
मेरे बनने-मिटने में नित
अपनी साधों के क्षण गिन लो!
जलते खिलते बढ़ते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला!
सपने-सपने में सत्य ढला!

शब्दार्थ – संसृति – सृष्टि, संसार। पग – कदम। नव – नया। अंकन – चिह्न। नित – लगातार। साधों – आकांक्षाओं। क्षण – पल। एकाकी – अकेला।

संदर्भ – व्याख्येय पद्यांश छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित कविता ‘सब आँखों के आँसू उजले’ कविता से उद्धृत है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने संपूर्ण सृष्टि में एक ही प्रकार के जीवन-रस, आकांक्षाएँ और सत्य के समाविष्ट होने का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि संसार के प्रत्येक पग में मेरी ही साँसों का नया चिह्न है। तुम भी तुम भी प्रत्येक कदम पर मेरे चिह्नों को चुनते चलो। मेरी आकाक्षाँओ के बनने और समाप्त होने के क्रम के अंतराल में तुम भी अपनी इच्छाओं के पलो को गिन लो। भावार्थ है कि संसार के प्रत्येक प्राणी के मन में समान प्रकार की इच्छाओं का जन्म होता है और समापन होता है। सबको एक प्रकार की पीड़ा का अहसास होता है। जीवन जीते हुए पीड़ा और सुख के अहसास में घुलमिलकर आगे बढ़ते रहना ही प्रत्येक प्राणी का लक्ष्य होता है। इस प्रकार सबके सपनों में एक प्रकार का अपना-अपना सत्य पलता रहता है।

विशेष –

  • संपूर्ण सृष्टि को एक ही सत्ता का रूप बताया गया है।
  • ‘सपने-सपने’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘प्रति पग’, ‘में मेरी’, ‘सपने-सपने में सत्य’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • शांत रस है।
  • लक्षणा शब्दशक्ति है।
  • माधुर्य गुण है।
  • रहस्यवादी भावना प्रकट हुइ है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

 

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL
सब आँखों के आसूँ उजले 
(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न – महादेवी वर्मा ने ‘आसूँ’ के लिए ‘उजले’ विशेषण का प्रयोग किस संदर्भ में किया है और क्यों?

उत्तर – महादेवी वर्मा ने ‘आँसू’ के लिए ‘उजले’ विशेषण का प्रयोग यह बताने के लिए किया है कि यदि मनुष्य के ऊपर कष्ट आ जाएँ तो भी उसकी आँखों में भविष्य के लिए उज्ज्वल सपने रहने ही चाहिए।

प्रश्न – सपनों को सत्य रूप में ढालने के लिए कवयित्री ने किन यथार्थपूर्ण स्थितियों का सामना करने को कहा है?

उत्तर – सपनों को सत्य रूप में ढालने के लिए कवयित्री ने करूणा की भावना, पीड़ा की अनुभूति, सुख का एहसास, स्वयं को उत्सर्ग करने की तत्परता आदि यथार्थपूर्ण स्थितियों का सामना करने को कहा है। कवयित्री कहती है कि परम् सत्ता ने प्रकृति में अनेक वस्तुओं की सृष्टि की है। उन सभी में कहीं-न-कहीं स्वयं को उत्सर्ग कर त्याग करने की प्रवृति निहित है। ये सबका व्यापक सत्य है। जो सबसे समान रूप से व्याप्त है।

प्रश्न – ‘नीलम मरकत के संपुट दो, जिनमें बनता जीवन-मोती’ पंक्ति में ‘नीलम मरकत’ और
‘जीवन-मोती’ के अर्थ को कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – कवयित्री कहती है कि नीला आसमान नीलम से बने दोने की तरह है और धरती पन्न (मरकत) से बने हुए दोने जैसी लगती है। इन दोनों के बीच में ही जीवन रूपी मोती बनता है। इस मोती में अनेक प्रकार के रंग-रूप ढलते रहते हैं। इन रंग-रूपों में उसी परम् सत्ता ईश्वर की झलक कंपित होती रहती है। जो परम् सत्ता आसमान में बादल और बिजली का रूप धारण करता है वही ईश्वर मिट्टी से अंकुर के रूप में फूट पड़ता है।

प्रश्न – प्रकृति किस प्रकार मनुष्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध होती है? कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – कविता के अनुसार प्रकृति के विभिन्न उपदान जैसे दीपक, पर्वत, झरने, समुद्र, पृथ्वी, पुष्प, सोना, आकाश आदि स्वयं का त्याग कर दूसरों का कल्याण करने की सीख देते हैं। यह सीख मानकर मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहँुच सकता है।

प्रश्न – निम्नलिखित पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए –

(क) आलोक लुटाता वह———-कब फूल जला?

उत्तर – जहाँ एक ओर दीपक स्वयं का समाप्त कर संसार को उजाला देता है वहीं फूल अपनी सुगंध का प्रसार वातावरण में करता है। स्वयं को मिटाकर संसार को को कुछ दे देने के भाव से दीपक और फूल संगी-साथी दिखाई देते हैं। लेकिन दोनों में पर्याप्त भिन्नता भी है। दीपक फूल की तरह कभी खिल नहीं सकता उसी प्रकार फूल जलकर संसार को प्रकाश नहीं दे सकता। यही दोनों का अपना-अपना सत्य है।

(ख) नभ तारक-सा———-हीरक पिघला?

उत्तर – कवयित्री कहती है कि हीरा तराशे जाने के अपने क्रम में आकाश के तारों के समान खंडित होता है और खुश होकर झिलमिलाहट रूपी आकाशगंगा को चूमने लगता है। दूसरी ओर सोना तपाये जाने के क्रम में अंगारों का शहद जैसा रस पीकर सुनहरी किरणाें के समान झूमने लगता है। हीरा और सोना दोनों ही कष्टप्रद क्रम से गुजरकर अनमोल स्थिति प्राप्त करते हैं। लेकिन अनमोल बनने के लिए दोनों अपने मूल स्वभाव को नहीं त्यागते। अनमोल बनने के लिए न तो सोना हीरे की तरह टूटता है और न ही हीरा सोने की तरह पिघलता है।

प्रश्न – काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।

संसृति के प्रति पग में मेरी———-एकाकी प्राण चला!

उत्तर –

भाव-सौंदर्य: कवयित्री कहती है कि संसार के प्रत्येक पग में मेरी ही साँसों का नया चिह्न है। तुम भी तुम भी प्रत्येक कदम पर मेरे चिह्नों को चुनते चलो। मेरी आकाक्षाँओ के बनने और समाप्त होने के क्रम के अंतराल में तुम भी अपनी इच्छाओं के पलो को गिन लो। भावार्थ है कि संसार के प्रत्येक प्राणी के मन में समान प्रकार की इच्छाओं का जन्म होता है और समापन होता है। सबको एक प्रकार की पीड़ा का अहसास होता है। जीवन जीते हुए पीड़ा और सुख के अहसास में घुलमिलकर आगे बढ़ते रहना ही प्रत्येक प्राणी का लक्ष्य होता है। इस प्रकार सबके सपनों में एक प्रकार का अपना-अपना सत्य पलता रहता है।

शिल्प-सौंदर्य:

  • संपूर्ण सृष्टि को एक ही सत्ता का रूप बताया गया है।
  • ‘सपने-सपने’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘प्रति पग’, ‘में मेरी’, ‘सपने-सपने में सत्य’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • शांत रस है।
  • लक्षणा शब्दशक्ति है।
  • माधुर्य गुण है।
  • रहस्यवादी भावना प्रकट हुइ है।
  • तत्सम् शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

प्रश्न – ‘सपने-सपने में सत्य ढला’ पंक्ति के आधार पर कविता की मूल संवेदना को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – ‘सपने-सपने में सत्य ढला’ के आधार पर कविता की मूल संवेदना है कि प्रकृति के विभिन्न उपादान जैसे पृथ्वी-आकाश, हीरा-सोना, दीपक-पुष्प, पर्वत-झरना आदि अपने-अपने ढंग से स्वयं का उत्सर्ग कर योगदान देते हैं। मनुष्य को भी इन उपादानों से सीख लेनी चाहिए और स्वयं का बलिदान देकर भविष्य के सपनों को साकार करने का प्रयास करना चाहिए।


क्विज/टेस्ट

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *