कक्षा 11 » बादल को घिरते देखा है (नागार्जुन)

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बादल को घिरते देखा है
(व्याख्या)

बादल को घिरते देखा है
अमल धवल गिरि के शिखराें पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ –

अमल – निर्मल। धवल – सफेद। गिरि – पर्वत। शिखर – चोटी। तुहिन – ओस की बूँदे। स्वर्णिम – सुनहरी।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश प्रगतिवादी कविता के प्रमुख कवि नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा से अवतरित है।

प्रसंग – इस पद्यांश में नागार्जुन ने हिमालय की चोटियाें पर छाए बादलों के सौंदर्य को वर्णित किया है।

व्याख्या – नागार्जुन कहते हैं कि मैंने निर्मल और सफेद पर्वत की ऊँची चोटियों पर बादल को घिरते देखा है। मैंने उस बादल की छोटी-छोटी मोती जैसी ओस की बँूदों को मानसरोवर के स्वर्णिम कमलों पर गिरते हुए देखा है। मैंने बादल को घिरते देखा है।

विशेष –

  1. पर्वतीय प्रदेश का अनुपम वर्णन है।
  2. उपमा अलंकार – छोटे-छोटे मोती जैसे
  3. दृश्य बिंब है।
  4. सरल, सरस खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग है।

तुंग हिमालय वफ़े कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ –

तुंग – ऊँचा। नील – नीले। सलिल – पानी। समतल देश – मैदानी इलाके। कंधे – हिमालय की चोटियाँ। श्यामल – साँवला। पावस – वर्षा। आकुल – व्याकुल। तिक्त तीखे। मधुर – मीठा। विसतंतु – कमलनाल के भीतर कोमल रेशे।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश प्रगतिवादी कविता के प्रमुख कवि नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा से अवतरित है।

प्रसंग – इस पद्यांश में नागार्जुन ने हिमालय पर स्थित झीलों का आकर्षक वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि नागार्जुन कहते हैं कि ऊँचे हिमालय के कंधों अर्थात् चोटियों पर छोटी बड़ी अनेक झीले हैं। इन्हीं झीलों के काले और नीले जल में ऐसे हंसों को कवि ने तैरते हुए देखा है जो पावस अथवा वर्षा के समय की गर्मी से व्याकुल होकर मैदानी क्षेत्रें से पहाड़ी स्थान पर आकर कमल के भीतर स्थित कड़वे और मीठे तंतु खोजते हैं। हिमालय क्षेत्र की चोटियों पर बादलों के घिरते हुए वातावरण को कवि ने साक्षात् अनुभव किया है।

विशेष 

  1. हंसों के व्याकुल होकर पर्वतीय प्रदेश में आने का मनोरम वर्णन है।
  2. दृश्य बिंब है।
  3. ‘आ-आकर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. ‘तुंग हिमालय के कंधों पर’ में मानवीकरण अलंकार है।
  5. सरल, सरस खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे
एक दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर वफ़े तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ –

सुप्रभात – सुबह। अनिल – हवा। बालारुण – सुबह-सुबह का सूर्य। मृदु – कोमल। विरहित – अलग। निशा – रात। चिर-अभिशापित – लंबे समय से अभिशाप से पीड़ित। क्रंदन – रोना। सरवर – तालाब। प्रणय-कलह – प्यार भरी नोंक-झोंक।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश प्रगतिवादी कविता के प्रमुख कवि नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा से अवतरित है।

प्रसंग – इस पद्यांश में नागार्जुन ने वसंत ऋतु में सुबह-सुबह के सूर्य की किरणों के हिमालय की चोटियों पर पड़ने वाली मनोहर छटा का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि नागार्जुन कहते हैं कि वसंत ऋतु के सुंदर सुबह धीरे-धीरे हवा बह रही थी। सुबह-सुबह उदय होने वाले सूर्य की सुनहरी किरणों से आस-पास की पर्वत चोटियाँ सोने के समान चमक रही थीं। ऐसे सुंदर वातावरण के बीच कवि ने ऐसे चकवा-चकवी पक्षी जोड़े को देखा जो सदैव से ही रात्रि में अलग-अलग रहकर रात बिताते आए हैं और सुबह होने पर मिल जाते हैं। सुबह होने पर उन चकवा-चकवी के विरह का क्रंदन (रोना) अब समाप्त हो चुका है अब वे झील किनारे गने वाले शैवालों की हरी-हरी घास पर प्यार भरी नोंक-झोंक (छेड़छाड़) कर रहे हैं। कवि ने पर्वत की चोटियों पर बादल को घिरते देखा है।

विशेष –

  1. शैवाल पर प्रणय-कलह करते चकवा-चकवी का मादक वर्णन है।
  2. ‘शैवालों की हरी दरी’ में रूपक अलंकार है।
  3. ‘मंद-मंद’ और ‘अलग-अलग’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. ‘स्वर्णिम शिखर’, ‘चकवा-चकई’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. दृश्य बिंब है।
  6. संयोग शृंगार रस है।
  7. सरल, सरस खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग है।

दुर्गम बर्फ़ानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठनेवाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
वफ़े पीछे धावित हो-होकर
तरल तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ –

दुर्गम – जहाँ जाना कठिन हो। बरफानी – बर्फ से ढकी हुई। शत-सहस्र – सैंकड़ों-हजारों। अलख – दिखाई न देने वाली। निज – अपने। उन्मादक – मस्त कर देने वाली। परिमल – खुशबू। धावित – दौड़ते हुए। तरण-तरुण – चंचल और युवा। कस्तूरी मृग – ऐसा हिरण जिसकी नाभि में विशेष खुशबू होती है।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश प्रगतिवादी कविता के प्रमुख कवि नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा से अवतरित है।

प्रसंग – इस पद्यांश में नागार्जुन ने अपनी नाभि की सुंगध से उन्मादित कस्तूरी मृग की क्रियाओं का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि नागार्जुन कहते हैं कि सैंकड़ों हजारों फुट ऊँची बर्फ की ऐसी घाटियों में जहाँ जाना बहुत ही कठिन है, वहाँ कवि ने ऐसे चंचल और युवा कस्तूरी मृग को अपने पर चिढ़ते देखा है जो अपनी न दिखने वाली नाभि से उठने वाली मस्त कर देने वाली सुगंध को पाने के लिए इधर-उधर दौड़ रहा है। कवि ने हिमालय पर्वत पर बादलों के घिरते दृश्य को देखा है।

विशेष –

  1. कस्तूरी मृग के सौंदर्य का मनोहारी वर्णन है।
  2. ‘शत-सहस्र’ ‘तरल-तरुण’ ‘परिमल के पीछे’ में अनुप्रास अलंकार है।
  3. ‘हो-होकर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. दृश्य बिंब है।
  5. सरल, सरस खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग है।

कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत परंतु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ –

कुबेर – धन का स्वामी। अलका – कुबेर की नगरी। व्योम-प्रवाही – आकाश में बहने वाले। मेघदूत – कालिदास के नाटक का नायक (बादल)। नभ-चुंबी – आकाश को चूमने वाला। झंझानिल – तूफानी हवा। महामेघ – विशाल बादल।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश प्रगतिवादी कविता के प्रमुख कवि नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा से अवतरित है।

प्रसंग – इस पद्यांश में नागार्जुन ने भीषण ठंठ में कैलाश पर्वत पर तेज हवा से टकराते विशाल बादल का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि हिमालय पर्वत पर रहने वाला धन का स्वामी कुबेर और उसकी नगरी अलका कहाँ चले गए और कवि को कालिदास द्वारा वर्णित आकाश में बहने वाले गंगाजल का भी कोई ठिकाना नहीं मिला। कवि कालिदास ने मेघदूत खंडकाव्य की रचना की थी। उसमें मेघ को दूत बनाकर भेजा जाता है। नागार्जुन कहते हैं कि बहुत ढूँढने पर भी मेघदूत का पता कहीं नहीं मिला। कौन ये बताए कि वह छाया से युक्त बादल कहीं यहीं तो न बरस पड़ा होगा। फिर कवि को याद आता है कि वह तो कालिदास की कल्पना मात्र था। कवि ने तो इस भीषण जाडे़ की ऋतु में गगन को चूमने वाले कैलाश पर्वत के शीर्ष पर विशाल बादलों को भीषण हवा से गरज-गरज कर भिड़ते देखा है। कवि ने हिमालय पर्वत पर बादलों के घिरते हुए मोहक वातावरण को देखा है।

विशेष –

  1. मेघदूत की खोज का भावपूर्ण वर्णन है।
  2. ‘कवि-कल्पित’ में अनुप्रास अलंकार है।
  3. ‘गरज-गरज’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  4. दृश्य बिंब है।
  5. सरल, सरस खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग है।
  6. प्रश्नवाचक शैली है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
मुखरित देवदारफ़ कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रें से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघढ़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखोंवाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

शब्दार्थ –

निर्झर – झरने। निर्झरणी – नदियाँ। कल – जल की कल-कल आवाज। मुखरित – गुँजायमान। कानन – जंगल। शोणित – लाल। धवल – सफेद। भोज पत्र – भोज के पत्ते। कुंतल – बालों की लट। इंद्रनील – नीलमणि। शंख-सरीखे – शंख के समान। सुघढ़ – सुंदर। कुवलय – नीलकमल। वेणी – बालों की चोटी। रजत-रचित – चाँदी से बना हुआ। मणि-खचित – मणियों से जड़ा हुआ। पान-पात्र – पीने का बर्तन (पात्र)। द्राक्षासव – अंगूरी शराब। पूरित – भरा हुआ। लोहित – लाल। निदाघ – दाग रहित। मृगछालों – हिरण की खालों से बने बिछोने। मदिरारुण – शराब पीने से लाल हुई। उन्मद – मस्त। मृदुल – कोमल। मनोरम – मन को सुंदर लगने वाली।

संदर्भ – प्रस्तुत पद्यांश प्रगतिवादी कविता के प्रमुख कवि नागार्जुन की कविता बादल को घिरते देखा से अवतरित है।

प्रसंग – इस पद्यांश में नागार्जुन ने झरनों और नदियों की आवाज से गुँजायमान जंगल में किन्नर-किन्नरियों की सुरा-पान और कला-संगीत की क्रियाओं का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि उसने सैंकड़ो-सैंकड़ों झरनों और नदियों की कल-कल की आवाज से गुँजायमान देवदारु वृक्ष के जंगलों में मदिरा पीने से लाल हुई आँखों वाले मस्त किन्नर-किन्नरियों की कोमल और सुंदर अंगुलियों को वंशी बजाते हुए देखा है। कवि किन्नर-किन्नरियों की शोभा का वर्णन करते हुए कहता है वे लाल-सफेद भोज-पत्रें से छाई हुई कुटी के भीतर बैठे थे। उन्होंने रंग-बिरंगे और सुगंधित फूल बालों की लटों पर सजा रखे थे। वे अपनी शंख से समान सुंदर गलों में इंद्रनील की माला डाले हुए थे। उन्होंने कानों में नीलकमल और चोटी पर लाल कमल लटकाए हुए थे। वे चाँदी से बनी हुई और मणियों से सजी हुई चित्रित सुराही में शराब डालकर अपने-अपने सामने रखे हुए थे और लाल चंदल की तिपाई पर नरम बि ना दाग वाले कस्तूरी बाल हिरण की खाल से बनी चटाई पर पालती मारे बैठे हुए थे।

विशेष –

  1. किन्नर-किन्नरियों की क्रियाओं का भावपूर्ण वर्णन है।
  2. ‘अपने-अपने’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. शृंगार रस है।
  4. ‘रजत रचित’, ‘पान पात्र’, ‘नरम निदाघ’, ‘पर पालथी’, ‘उन उन्मद’, ‘किन्नर-किन्नरियों’, ‘मृदुल मनोरम’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. नाद सौंदर्य है।
  6. श्रव्य और दृश्य बिंब है।
  7. सरल, सरस खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग है।

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बादल को घिरते देखा है
(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न – इस कविता में बादलों के सौंदर्य चित्रण के अतिरिक्त और किन दृश्यों का चित्रण किया गया है?
उत्तर – कवि ने कविता में बादलों के सौंदर्य चित्रण के अतिरिक्त निम्नलिखित दृश्यों का चित्रण किया है –

  1. हिमालय पर स्थित झीलों का आकर्षक वण्ार्न किया है।
  2. वसंत ऋतु में सुबह-सुबह के सूर्य की किरणों के हिमालय की चोटियों पर पड़ने वाली मनोहर छटा का वर्णन किया है।
  3. अपनी नाभि की सुंगध से उन्मादित कस्तूरी मृग की क्रियाओं का वर्णन किया है।
  4. भीषण ठंठ में कैलाश पर्वत पर तेज हवा से टकराते विशाल बादल का वर्णन किया है।
  5. झरनों और नदियों की आवाज से गुँजायमान जंगल में किन्नर-किन्नरियों की सुरा-पान और कला-संगीत की क्रियाओं का वर्णन किया है।

प्रश्न – प्रणय-कलह से कवि का क्या तात्पर्य है?

उत्तर – प्रणय-कलह से कवि का तात्पर्य है कि प्यार भरी छेड़छाल या नोंक-झोंक। देखने में तो यह विवाद-सा लगता है किंतु उसमें अपार स्नेह और प्रेम छिपा रहता है।

प्रश्न – कस्तूरी मृग के अपने पर ही चिढ़ने के क्या कारण हैं?

उत्तर – कस्तूरी मृग की नाभि में होने वाली कस्तूरी की महक अत्यंत मादक होती है। उसी की मादकता से प्रभावित होकर वह कस्तूरी को प्राप्त करने के लिए मृग इधर-उधर फिरता रहता है लेकिन उसे कस्तूरी नहीं मिलती। इसलिए वह स्वयं पर ही चिढ़ने लगता है।

प्रश्न – बादलों का वर्णन करते हुए कवि को कालिदास की याद क्यों आती है?

उत्तर – बादलों का वर्णन करते हुए कवि हिमालय पर्वत की उस जगह चला जाता है जहाँ कालिदास के खंडकाव्य मेघदूत का नायक यक्ष बादल को दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास भेजता है। वहाँ आकाश में छाए हुए बादलों को देखकर कवि को मेघदूत की याद आ जाती है और साथ-साथ उसके रचयिता मेघदूत की कल्पना करने वाले कवि कालिदास का स्मरण भी हो आता है।

प्रश्न – कवि ने ‘महामेघ को झंझानिल से गरज-गरज भिड़ते देखा है’ क्यों कहा है?

उत्तर – कवि इस पंक्ति के माध्यम से बताना चाहता है कि उसने बादलों का भयावह रूप भी देखा है। कवि प्रकट करना चाहता है कि जो मेघ अपने शांत रूप में लोगों को आनंदित करते हैं, वे ही भयंकर हवा से टकराकर मनुष्य के मन में भय भी उत्पन्न कर देते हैं।

प्रश्न – ‘बादल को घिरते देखा है’ पंक्ति को बार-बार दोहराए जाने से कविता में क्या सौंदर्य आया
है? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – इस कविता में कवि ने कहीं पावस ऋतु में, कहीं बसंत ऋतु में, कहीं पहाड़ों पर, कहीं समतल प्रदेशों में, कहीं जंगल में आदि जगहों पर बरसने वाले मेघों को देखा है और उनका वर्णन किया है। इसलिए इस पंक्ति का प्रयोग किया है जिससे कविता के भाव-सौंदर्य में वृद्धि हुई है।

प्रश्न – निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-

(क) निशा काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर वफ़े तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

उत्तर – कवि नागार्जुन कहते हैं कि वसंत ऋतु के सुंदर सुबह धीरे-धीरे हवा बह रही थी। सुबह-सुबह उदय होने वाले सूर्य की सुनहरी किरणों से आस-पास की पर्वत चोटियाँ सोने के समान चमक रही थीं। ऐसे सुंदर वातावरण के बीच कवि ने ऐसे चकवा-चकवी पक्षी जोड़े को देखा जो सदैव से ही रात्रि में अलग-अलग रहकर रात बिताते आए हैं और सुबह होने पर मिल जाते हैं। सुबह होने पर उन चकवा-चकवी के विरह का क्रंदन (रोना) अब समाप्त हो चुका है अब वे झील किनारे गने वाले शैवालों की हरी-हरी घास पर प्यार भरी नोंक-झोंक (छेड़छाड़) कर रहे हैं। कवि ने पर्वत की चोटियों पर बादल को घिरते देखा है।

(ख) अलख नाभि से उठनेवाले
निज वफ़े ही उन्मादक परिमल
वफ़े पीछे धावित हो-होकर
तरल तरफ़ण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।

उत्तर – कवि नागार्जुन कहते हैं कि सैंकड़ों हजारों फुट ऊँची बर्फ की ऐसी घाटियों में जहाँ जाना बहुत ही कठिन है, वहाँ कवि ने ऐसे चंचल और युवा कस्तूरी मृग को अपने पर चिढ़ते देखा है जो अपनी न दिखने वाली नाभि से उठने वाली मस्त कर देने वाली सुगंध को पाने के लिए इधर-उधर दौड़ रहा है। कवि ने हिमालय पर्वत पर बादलों के घिरते दृश्य को देखा है।

 

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