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संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है। यहाँ उनकी छोटी-छोटी तीन कविताएँ दी गई हैं।
हँसी की चोट
साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि।।
‘देव’ जियै मिलिबेही की आस कि, आसहू पास अकास रह्यो भरि,
जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।।
शब्दार्थ :- तनुता – कृशता, दुबलापन, कमजोरी। हेरी – देखकर। हरि – हरने वाला, कृष्ण।
संदर्भ :- व्याख्येय सवैया अंतरा भाग – 1 में संकलित कवि ‘देव’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- इस सवैये में कृष्ण को प्रेम करने वाली गोपियों के विरह अवस्था का मार्मिक चित्रण है।
व्याख्या :- कृष्ण के चले जाने पर गोपी कहती है कि जब से कृष्ण ने उनसे मुँह मोड़ है, तब से उनकी साँसों की वायु चली गई है अर्थात् साँस तो चल रही है पर जान चली गई है। उनके आँसू रुक नहीं रहे हैं। जिससे उनके शरीर का सारा पानी बह गया है। अपने सारे गुण अर्थात् शक्ति को साथ लिए हुए तेज़ भी चला गया है। वियोग में कमज़ोर होने के कारण भूमि तत्व चला गया है। देव कहते हैं कि गोपियाँ कृष्ण से मिलने की आशा में जी रही हैं। उस आशा के पास ही आकाश खालीपन भर रहा है। कृष्ण ही गोपियों के जीवित रहने का एकमात्र सहारा है। गोपियाँ कहती हैं कि कान्हा ने उनकी हँसी का भी हरण कर लिया है, वे हँसना भूल गई हैं। वे उसे ढूँढती फिर रही हैं, जिसने उनके हृदय को हर लिया है।
कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपियाँ हँसना ही भूल गई हैं। वे कृष्ण को खोज-खोज कर हार गई हैं। अब तो वे कृष्ण के मिलने की आशा पर ही जीवित हैं। उनके शरीर के पंच तत्त्वों में से अब केवल आकाश तत्त्व ही शेष रह गया है।
विशेष :-
- नायिका का मनोदश का मार्मिक चित्रण है।
- वियोग शृंगार रस है।
- ब्रज भाषा का प्रयोग है।
- ‘सौं समीर’ ‘हरै हँसि’ ‘हेरि हियो’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘हरि जो हरि’ में यमक अलंकार है।
- सवैया छंद है।
- काव्यांश में गेयता है।
सपना
झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं ‘चलौ झूलिबे को आज’
फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं।।
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौ न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदैं मेरे आँसु ह्नै दृगन में।।
शब्दार्थ :- झहरि – बरसाती बूँदों की झड़ी लगना। निगोड़ी – निर्दयी।
संदर्भ :- व्याख्येय कवित्त अंतरा भाग – 1 में संकलित कवि ‘देव’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- इस छंद में कृष्ण स्वप्न में गोपी को अपने साथ झूला झूलने को कहते हैं। तभी गोपी की नींद टूट जाती है और उसका स्वप्न खंडित हो जाता है।
व्याख्या :- गोपी कहती है कि उसने सपने में देखा कि झर-झर की आवाज के साथ हल्की-हल्की बूँदे गिर रही हैं। आकाश में गड़गड़ाहट करते हुए बादल छाए हुए हैं। उसी समय कृष्ण आकर कहते है कि चलो झूला झूलते है। गोपी आनंद में मग्न होकर बहुत खुश हो जाती है। वह कृष्ण के साथ चलने के लिए उठना ही चाहती थी कि अभागी नींद खुल गई। उसका भाग्य जागने के साथ ही सो गया। वह कृष्ण के साथ का आनंद न ले सकी। उसकी आँखें खुली तो देखा कि न बादल थे न ही कृष्ण। कृष्ण से मिलन के आंनद में जो बूँदें आकाश से गिर रही थी, अब वे उसकी आँखों से बह रही हैं।
विशेष :- इसमें संयोग-वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है।
दरबार
साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो।।
भेष न सूझ्यो, कह्यो समझ्यो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो।।
शब्दार्थ :- मुसाहिब – राजा के दरबारी। औघट – कठिन, दुर्गम मार्ग। निबरे नट – अपनी कला या प्रतिभा से भटका हुआ कलाकार। मूक – चुप। सगरी – संपूर्ण।
संदर्भ :- व्याख्येय कवित्त अंतरा भाग – 1 में संकलित कवि ‘देव’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- दरबार में पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था पर देव ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
व्याख्या :- कवि कहता है कि वर्तमान समाज में राजा अंधे हो चुके है, दरबारी गूंगे है तथा राजसभा बहरी बन चुकी है। वे लोग सुंदर रंग-रूप में सब कुछ लुटा रहे है। सब अपने फर्ज और जिम्मेदारियों को अनदेखा कर रहे है। वहाँ कला का कोई भी पारखी नहीं है। रास्ता कठिन है और कोई भी सीधे कर्म पर के मार्ग पर नहीं चल रहा है। कोई कर्म नहीं बचा, सब चापलूसी कर रहे हैं। ऐसे दरबार में न तो वेषभूषा समझ आ रही और न ही कुछ कहना। न बताने से कोई सुनता है। राज्य में किसी की रुचि नहीं है। देव कवि कहते हैं जहाँ अपनी कला से भटके हुए कलाकार की मति बिगड़ गई है, वहाँ उसे पूरी रात नचाया जा रहा है। दरबारी चुप है। आम जनता की आवाज़ दब रही है।
विशेष :-
- राजा और दरबारी अपना कर्त्तव्य को भुला कर रूप सौंदर्य में खो रहे है। वे लोग सारे पतित कार्य कर रहे है।
- ब्रज भाषा का प्रयोग है।
- ‘रंग रीझ’, ‘काहू कर्म’, ‘निबरे नट’ और ‘निसि नाच्यो’ में अनुप्रास अलंकार है।
- कवित्त छंद है।
- काव्यांश में गेयता है।
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हँसी की चोट, सपना, दरबार (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न :- ‘हँसी की चोट’ सवैये में कवि ने किन पंच तत्त्वों का वर्णन किया है तथा वियोग में वे किस प्रकार विदा होते हैं?
उत्तर :- ‘हँसी की चोट’ में वायु, जल, आकाश, अग्नि तथा भूमि इन पाँच तत्वों का वर्णन किया गया है। गोपी द्वारा साँस लेने-छोड़ने से वायु तत्व चला गया है। अत्यधिक रोने से जल तत्व विदा हो गया है। तन में व्याप्त गर्मी के जाने से अग्नि तत्व समाप्त हो गया है। वियोग में कमज़ोर होने के कारण भूमि तत्व चला गया है।
प्रश्न :- नायिका सपने में क्यों प्रसन्न थी और वह सपना कैसे टूट गया?
उत्तर :- कृष्ण गोपी के स्वप्न में आकर कहते है कि चलो झूला झूलते है। इसलिए गोपी आनंद में मग्न होकर बहुत खुश हो जाती है। वह कृष्ण के साथ चलने के लिए उठना ही चाहती थी कि अभागी नींद खुल गई और सपना टूट गया।
प्रश्न :- ‘सपना’ कवित्त का भाव-सौंदर्य लिखिए।
उत्तर :- गोपी कहती है कि उसने सपने में देखा कि झर-झर की आवाज के साथ हल्की हल्की बूँदे पड़ रही है। आकाश में गड़गड़ाहट करते हुए बादल छाए हुए है। उसी समय कृष्ण आकर कहते है कि चलो झूला झूलते है। गोपी आनंद में मग्न होकर बहुत खुश हो जाती है। वह कृष्ण के साथ चलने के लिए उठना ही चाहती थी कि अभागी नींद खुल गई। उसका भाग्य जागने के साथ ही सो गया। वह कृष्ण के साथ का आनंद न ले सकी। उसकी आँखें खुली तो देखा कि न बादल थे न ही कृष्ण।
प्रश्न :- ‘दरबार’ सवैये में किस प्रकार के वातावरण का वर्णन किया गया है?
उत्तर :- ‘दरबार’ सवैये को पढ़कर ही पता चलता है कि इसमें दरबार के विषय में कहा गया है। उस समय दरबार में कला की कमी थी। भोग तथा विलास दरबार की पहचान बनती जा रही थी। कर्म का अभाव दरबारियों में था।
प्रश्न :- दरबार में गुणग्राहकता और कला की परख को किस प्रकार अनदेखा किया जाता है?
उत्तर :- दरबार में गुणग्राहकता और कला की परख को चाटुकारों की बातें सुनकर अनदेखा किया गया है। कला की परख करना, तो उन्हें आता ही नहीं है। राजा तथा दरबारी भोग-विलास के कारण अंधे बन गए हैं। ऐसे वातावरण में कला का कोई महत्व नहीं होता है।
प्रश्न :- भाव स्पष्ट कीजिए-
(क) हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।
उत्तर :- कृष्ण ने मुस्कुराहट भरी दृष्टि से गोपी का हृदय हर लिया है और जब उन्होंने गोपी से दृष्टि फेर ली तो वह दुखी हो गई।
(ख) सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
उत्तर :- गोपी कृष्ण से मिलन का सपना देख रही थी। कृष्ण ने उसे अपने साथ झूला झूलने का निमंत्रण दिया था, वह इससे प्रसन्न थी। कृष्ण के साथ जाने के लिए वह उठने ही वाली थी कि उसकी नींद टूट गई। इस विषय पर वह कहती है कि उसका जागना उसके भाग्य को सुला गया। अर्थात उसके नींद से जागने के कारण कृष्ण का साथ छूट गया। यह जागना उसके लिए दुर्भाग्य के समान है।
(ग) वेई छाई बूँदैं मेरे आँसु ह्नै दृगन में।
उत्तर :- प्रस्तुत पंक्ति में बादल द्वारा बरसाई बूँदें आँखों से आँसू रूप में गिर रही हैं।
(घ) साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी।
उत्तर :- प्रस्तुत पंक्ति में देव दरबारी वातावरण का वर्णन कर रहे हैं। वह कहते हैं कि दरबार का राजा अँधा हो गया है। दरबारी गूँगे तथा बहरे हो गए हैं। वे भोग-विलास में इतना लिप्त हैं कि उन्हें कुछ भी सुनाई दिखाई नहीं देता है।
प्रश्न :- देव ने दरबारी चाटुकारिता और दंभपूर्ण वातावरण पर किस प्रकार व्यंग्य किया है?
उत्तर :- देव दरबारी चाटुकारिता और दंभपूर्ण वातावरण का वर्णन करते हुए बताते हैं कि दरबार में राजा तथा दरबारी भोग विलास में लिप्त रहते हैं। दरबारियों के साथ-साथ राजा भी अंधा है, जो कुछ देख नहीं पा रहा है। यही कारण है कि कला तथा सौंदर्य का उन्हें ज्ञान नहीं रह गया है।
प्रश्न :- निम्नलिखित पद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या करिए-
(क) साँसनि ही——तनुता करि।
उत्तर :- व्याख्या के लिए क्लिक करें।
(ख) झहरि——गगन में।
उत्तर :- व्याख्या के लिए क्लिक करें।
(ग) साहिब अंध——बाच्यो।
उत्तर :- व्याख्या के लिए क्लिक करें।
प्रश्न :- देव के अलंकार प्रयोग और भाषा प्रयोग के कुछ उदाहरण पठित पदों से लिखिए।
उत्तर :-
- अतिशयोक्ति अलंकार – पहली रचना में वियोग से व्याकुल गोपी की दशा को दर्शाने के लिए
- यमक अलंकार – हरि शब्द की दो अलग रूपों में पुनः आवृत्ति के कारण
- पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार – ‘झहरि-झहरि’, ‘घहरि-घहरि’ ।
- अनुप्रास अलंकार – ‘घहरि-घहरि घटा घेरी’ ‘मुसाहिब मूक’, ‘रंग रीझ’, ‘काहू कर्म’, ‘निबरे नट’।
- विरोधाभास अलंकार -‘सोए गए भाग मेरे जानि व जगन में’
योग्यता-विस्तार
प्रश्न :- ‘दरबार’ सवैये को भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘अंधेर नगरी’ के समकक्ष रखकर विवेचना कीजिए।
उत्तर :- देव की रचना ‘दरबार’ में तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘अंधेर नगरी’ में दरबारी व्यवस्था का वर्णन लगभग एक-सा है। दोनों ही रचनाओं में राजा तथा सभापद भोग विलास में लिप्त होकर अकर्मण्य बन गए हैं। दरबारी लोग राजा की चाटुकारिता में लगे हुए हैं। वे राजा को प्रसन्न रखना ही अपना कर्तव्य समझते हैं।
प्रश्न :- देव के समान भाषा प्रयोग करने वाले किसी अन्य कवि की रचनाओं का संकलन कीजिए।
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
क्विज/टेस्ट
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