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अपना मालवा...खाऊ उजाडू सभ्यता से
(पाठ का सार)
प्रभाष जोशी का अपना मालवा-खाऊ-उजाड़ू सभ्यता में पाठ जनसत्ता, 1 अक्टूबर 2006 के कागद कारे स्तंभ से लिया गया है। इस पाठ में लेखक ने मालवा प्रदेश की मि‘ी, वर्षा, नदियों की स्थिति, उद्गम एवं विस्तार तथा वहाँ के जनजीवन एवं संस्कृति को चित्रित किया है। पहले के मालवा ‘मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी पग-पग नीर’ की अब के मालवा ‘नदी नाले सूख गए, पग-पग नीर वाला मालवा सूखा हो गया’ से तुलना की है। जो मालवा अपनी सुख-समृद्धि एवं संपन्नता के लिए विख्यात था वही अब खाऊ-उजाड़ू सभ्यता में फँसकर उलझ गया है। यह खाऊ-उजाड़ू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बन गई है। इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई है, पर्यावरण बिगड़ा है। लेखक की पर्यावरण संबंधी चिता सिप़्ाफ़र् मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमिक हो गई है। अमेरिका की खाऊ-उजाड़ू जीवन पद्धति ने दुनिया को इतना प्रभावित किया है कि हम अपनी जीवन पद्धति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। इस बहाने लेखक ने खाऊ-उजाड़ू जीवन पद्धति के द्वारा पर्यावरणीय विनाश की पूरी तसवीर खींची है जिससे मालवा भी नहीं बच सका है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर दिया है। सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। इस पाठ के माध्यम से लेखक ने पर्यावरणीय सरोकारों को आम जनता से जोड़ दिया है तथा पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है।
शब्दार्थ
निथरी – फैली, चमकीली। चौमासा – बारिश के चार महीने। ओटले – मुख्यद्वार। घऊँ-घऊँ – बादलों के गरजने की आवाज। पानी भोत गिरयो – पानी बहुत गिरा, बरसात बहुत हुई। फसल तो गली गई – फसल पानी में डूब गई और सड़-गल गई। पण – परंतु। उनने – उन्होंने। अत्ति – बढ़ा-चढ़ाकर, अतिशयोक्ति में। मालव धरती गहन गंभीर – मालवा की धरती गहन गंभीर है जहाँ डगर-डगर पर रोटी डग-डग रोटी, पग-पग नीर और पग-पग पर पानी मिलता है। यानी मालवा की धरती खूब समृद्ध है। पश्चिम के रिनेसां – पश्चिम का पुनर्जागरण काल । विपुलता की आश्वस्ति – संपन्नता, समृद्धि का आश्वासन । अबकी मालवो खूब पाक्यो है – अबकी मालवा खूब समृद्ध है। यानी इतनी बरसात हुई है कि फसलें हरी-भरी हो गई हैं । पेले माता बिठायंगा – पहले माता की मूर्ति स्थापित करूँगा। रड़का – लुढ़का। मंदे उजाले से गमक रही थी – हलके प्रकाश में सुगंधित हो रही थी। चवथ का चाँद – चतुर्थी का चाँद। छप्पन का काल – 1899 का भीषण अकाल । दुष्काल का साल – बुरा समय, अकाल। पूर – बाढ़। गाद – झाग, कूड़ा-कचरा। कलमल करना – सँकरे रास्ते से पानी बहने की आवाज । सदानीरा – हर वक्त बहने वाली नदियाँ।
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अपना मालवा...खाऊ उजाडू सभ्यता से (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – मालवा में जब सब जगह बरसात की झड़ी लगी रहती है तब मालवा के जनजीवन पर इसका क्या असर पड़ता है?
उत्तर – मालवा में जब सब जगह बरसाती की झड़ी लगी रहती है, तब मालवा के जनजीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। खूब बरसात होती है। मालवा में स्थित नदी-नाले पानी से भर जाते हैं। यहाँ तक की बरसात का पानी घरों में पहुँच जाता है। फसलें लहलहा उठती हैं। मालवा में व्याप्त बाबड़ी, तालाब, कुएँ तथा तलैया सब पानी से लबालब भर जाते हैं। इससे मालवा में लगता है कि भगवान की खूब कृपा हुई है। वहाँ की बरसात की झड़ी मालवा को समृद्धशाली बनाती है।
प्रश्न – अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था। उसके क्या कारण हैं?
उत्तर – अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था। उसके निम्न कारण हो सकते हैं-
- तापवृद्धि का कारण
- आधुनिक उपकरणों का प्रयोग करना
- जंगलों को नष्ट करना
- नदी, तालाब आदि का रखरखाव ना करना
- जल के स्रोतों को दूषित कर देना
आदि के कारण वातावरण में निरंतर परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इस अनदेखी का एक बड़ा परिवर्तन यह भी है कि बरसात पूर्व जैसा नहीं होता।
प्रश्न – हमारे आज के इंजीनियर ऐसा क्यों समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले जमाने के लोग कुछ नहीं जानते थे?
उत्तर – हमारे आज के इंजीनियर समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले जमाने के लोग कुछ नहीं जानते थे क्योंकि उनका मानना है कि ज्ञान तो पश्चिम के रिनेसां के बाद ही आया है। हमारे आज के नियोजकों और इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। नदी-नाले सूख गए। पग-पग नीरवाला मालवा सूखा हो गया।
प्रश्न -‘मालवा में विक्रमादित्य और भोज और मुंज रिनेसां के बहुत पहले हो गए।’ पानी के रखरखाव के लिए उन्होंने क्या प्रबंध किए?
उत्तर – मालवा में विक्रमादित्य और भोज और मुंज रिनेसां के बहुत पहले हो गए। वे और मालवा के सब राजा जानते थे कि इस पठार पर पानी को रोक के रखना होगा। सबने तालाब बनवाए, बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाईं ताकि बरसात का पानी रुका रहे और धरती के गर्भ के पानी को जीवंत रख सकें।
प्रश्न – ‘हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंदे पानी के नाले बना रही है।’ क्यों और कैसे?
उत्तर – आज की सभ्यता के अनुसार हम नदियों को माता नहीं मानते बल्कि उसे उपयोग की वस्तु समझते हैं तथा कई रूपों में उसे दूषित कर रहे हैं –
कूड़ा-कचरा फेंक कर –
लोगों द्वारा अपने घर का कूड़ा कचरा इन नदियों में बहा दिया जाता है। जिसे पूर्णतः वहा ले जाने में असमर्थ नदियां प्रदूषित हो जाती है।
पूजा सामग्री बहाकर –
हिंदू सभ्यता के अनुसार पूजा सामग्री को पवित्र नदियों में बहा दिया जाता है। जिसके कारण नदियां अपवित्र हो रही है।
कल कारखानों का रासायनिक पदार्थ –
उद्योगों कारखानों से निकला सारा रासायनिक पदार्थ नदियों में बहाया जाता है। जिससे नदियों का पानी जहरीला भी हो रहा है।
नदियों का निरंतर रखरखाव ना करना –
नदियों को अनावश्यक समझ कर इसके रखरखाव व सफाई पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता।
प्रश्न – लेखक को क्यों लगता है कि ‘हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है’? आप क्या मानते हैं?
उत्तर – हम लेखक के इस कथन से बिलकुल सहमत है। ऐसी औद्योगिक सभ्यता जिसने विकास के नाम पर प्रदूषणए प्रकृति दोहनए पृथ्वी का विनाश ही किया है। उसे अपसभ्यता ही कहेंगे। यह कौन-सा विकास हैए जो हमें प्रगति के नाम पर विनाश की ओर ले जा रहा है। हम एक आविष्कार करते हैं और उससे पाँच नई समस्याएँ पैदा कर लेते हैं। हम किसी भी विकास के साधनों पर नज़र डालें तो हमें विकास के स्थान पर विनाश ही विनाश दिखाई देगा। मनुष्य ने अपनी उत्पत्ति के साथ से ही पृथ्वी का दोहन करना आरंभ कर दिया था। परन्तु तब दोहन की प्रक्रिया बहुत ही मंद थी। जैसे-जैसे मनुष्य का विकास होता गयाए उसने प्रकृति का दोहन तेज़ी से करना आरंभ कर दिया। उसने रहने के लिए पेड़ों को काटाए आवास के लिए ईंट के निर्माण के लिए मिट्टी का प्रयोग कियाए कोयलेए सीमेंटए धातुए हीरे इत्यादि की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उसने पृथ्वी को खोदा। यह कैसा विकास हैए जिसमें स्वयं की जड़ काटी जा रही है। अतः हम इसे अपसभ्यता कहेंगे।
प्रश्न – धरती का वातावरण गरम क्यों हो रहा है? इसमें यूरोप और अमेरिका की क्या भूमिका है? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर – वातावरण को गरम करनेवाली कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। ये गैसें सबसे ज्यादा अमेरिका और फिर यूरोप के विकसित देशों से निकलती हैं। अमेरिका इन्हें रोकने को तैयार नहीं है। वह नहीं मानता कि धरती के वातावरण के गरम होने से सब गड़बड़ी हो रही है। अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाड़ू जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा।
टेस्ट/क्विज
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