कक्षा 12 » एक कम, सत्य (विष्णु खरे)

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“एक कम”

(कविता की व्याख्या)

1947 के बाद से
इतने लोगों को इतने तरीकों से
आत्मनिर्भर मालामाल और गतिशील होते देखा है
कि अब जब आगे कोई हाथ फैलाता है
पच्चीस पैसे एक चाय या दो रोटी के लिए
तो जान लेता हूँ
मेरे सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है
मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ कंगाल या कोढ़ी
या मैं भला चंगा हूँ और कामचोर और
एक मामूली धोखेबाज़

शब्दार्थ

आत्मनिर्भर – अपने आप पर निर्भर। गतिशील – आगे बढ़ना। कोढ़ी – जिसे कोढ़ का रोग हो। भला चंगा – स्वस्थ।

संदर्भ –

व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘एक कम’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता नई कविता के प्रमुख कवि विष्णु खरे हैं।

प्रसंग –

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने आजादी के बाद के भारत में ईमानदार लोगों की स्थिति को रेखांकित किया है।

व्याख्या –

कवि बताता है कि भारत के आजाद होने के पश्चात् लोगों के जीवन जीने के ढंग में बदलाव आया है। हमारे देश में आजादी के बाद कुछ लोग बहुत अधिक अमीर हो गए और कुछ बहुत गरीब। गरीबी और अमीरी का यह फासला बढ़ता ही गया कम नहीं हुआ। कवि ने अनेक लोगों को विभिन्न तरीकों से आत्मनिर्भर, मालामाल तथा गतिशील होते या आगे बढ़ते हुए देखा है। अर्थात् स्वतंत्रता के बाद अमीर, प्रभावशाली बनने और आगे बढ़ने के लिए अनेक तरीके अपनाए गए हैं। लोगों ने अमीर बनने के लिए ईमानदारी, सच्चाई जैसे मूल्यों को भुलाकर धोखा देने वाला रास्ता अपनाया। बदले माहौल में कवि के सामनेे पच्चीस पैसे, एक चाय या दो रोटी के लिए जब कोई हाथ फैलाता है तो कवि जान जाता है कि उसके सामने एक ईमानदार आदमी, औरत या बच्चा खड़ा है। दूसरे शब्दों में, आजादी के इस दौर में ईमानदार व्यक्ति को जीवन-निर्वाह करने के लिए भीख माँगने पर विवश होना पड़ रहा है। इस स्थिति में कवि अपने को लाचार मानते हुए स्वयं को कंगाल या कोढ़ी कहता है, क्योंकि वह उनकी सहायता नहीं कर सकता। कवि स्वयं को कामचोर, मामूली धोखेबाज मानता है चाहे वह स्वस्थ ही क्यों न हो।

विशेष –

  1. स्वतंत्रता के पश्चात् गरीब और अमीर की दूरी का चित्रण है।
  2. भीख माँगते लाचार लोगाें का दृश्य बिंब है।
  3. ‘हाथ फैलाना’ मुहावरे का प्रयोग है।
  4. ‘पच्चीस पैसे’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
  6. मुक्त छंद का प्रयोग है।
  7. अतुकांत कविता है।
  8. शांत रस का प्रयोग है।
  9. लाक्षणिकता प्रधान शैली है।

लेकिन पूरी तरह तुम्हारे संकोच लज्जा परेशानी
या गुस्से पर आश्रित
तुम्हारे सामने बिलकुल नंगा निर्लज्ज और निराकांक्षी
मैंने अपने को हटा लिया है हर होड़ से
मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं
मुझे कुछ देकर या न देकर भी तुम
कम से कम एक आदमी से तो निश्चित रह सकते हो

शब्दार्थ

संकोच – संदेह। आश्रित – किसी के सहारे। निर्लज्ज – बेशर्म। निराकांक्षी – जिसे किसी चीज की इच्छा न हो। प्रतिद्वंद्वी – विरोधी, विपक्षी, शत्रु। निश्चिंत – बिना चिंता के, चिंता से रहित।

संदर्भ –

व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘एक कम’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता नई कविता के प्रमुख कवि विष्णु खरे हैं।

प्रसंग –

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने आजादी के बाद ईमानदार और गरीब लोगों का साथ न देने पर अपनी बेबसी को उजागर किया है।

व्याख्या –

कवि कहता है कि वह ईमानदारों और गरीबों के लिए कुछ नहीं कर सकता। इस कुछ न कर सकने वाली बेबसी के कारण कवि को लज्जा आनी चाहिए लेकिन वह शर्म या लज्जा भी कवि को नहीं आ रही है। वह उनके संकोच, लज्जा, परेशानी या गुस्से पर आश्रित है। वह उनके सामने निर्लज्ज, नंगा तथा निराकांक्षी है। कवि ने ईमानदार लोगों के साथ हर होड़ में से स्वयं दूर कर लिया है। वह बताता है कि वह उनका विरोधी, प्रतिद्वन्द्वी या हिस्सेदार नहीं है। कवि के भीरत न तो धन कमाने की चाहत है और न ही कवि आगे बढ़ना चाहता है। कवि ईमानदार लोगों के रास्ते में कोई बाधा नहीं बनना चाहता। वे कवि को चाहे कुछ दे या न दें, परन्तु उन्हें यह विश्वास रहेगा कि उनके बीच की एक बाधा अवश्य कम हो जाएगी।

विशेष –

  1. कवि की मनोदशा का वर्णना है।
  2. ‘नंगा निर्लज्ज’ में अनुप्रास अलंकार है।
  3. मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
  4. मुक्त छंद का प्रयोग है।
  5. अतुकांत कविता है।
  6. शांत रस का प्रयोग है।
  7. लाक्षणिकता प्रधान शैली है।

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सत्य

(कविता की व्याख्या)

जब हम सत्य को पुकारते हैं
तो वह हमसे परे हटता जाता है
जैसे गुहारते हुए युधिष्ठिर के सामने से
भागे थे विदुर और भी घने जंगलों में
सत्य शायद जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं

शब्दार्थ :-

गुहारते – पुकारते।

संदर्भ –

व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सत्य’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता नई कविता के प्रमुख कवि विष्णु खरे हैं।

प्रसंग –

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भों तथा पात्रों के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट किया है।

व्याख्या –

कवि कहता है कि आज हम जब सत्य को पुकारते हैं तो वह हमसे पीछे हट जाता है। सत्य केवल पुकारने से नहीं मिलता, उसे प्राप्त करने के लिए सत्यनिष्ठता से तप करना पड़ता है। सत्य के प्रति निष्ठावान होना पड़ता है। कविता में विदुर सत्य का प्रतीक है और युधिष्ठिर सत्य को प्राप्त करने के लिए निष्ठावान व्यक्ति का प्रतीक हैं। विदुर को ढूँढने युधिष्ठिर जंगल में जाते हैं। युधिष्ठिर विदुर को आवाज लगा रहे थे, परंतु विदुर उससे दूर घने जंगलों में भाग रहे थे। विदुर के भागने के दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि पांडवों के साथ हुए अन्याय का विदुर ने विरोध नहीं किया था। दूसरा कारण है शायद सत्य जानना चाहता है कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं।

विशेष –

  1. सत्य को प्राप्त करने के लिए महाभारत के प्रसंग को माध्यम बनाया है।
  2. मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली में सहज अभिव्यक्ति है।
  3. दृश्य बिंब है।
  4. मुक्त छंद है।

कभी दिखता है सत्य
और कभी ओझल हो जाता है
और हम कहते रह जाते हैं कि रुको यह हम हैं
जैसे धर्मराज के बार-बार दुहाई देने पर
कि ठहरिए स्वामी विदुर
यह मैं हूँ आपका सेवक कुंतीनंदन युधिष्ठिर
वे नहीं ठिठकते

शब्दार्थ

ओझल – दिखाई न देने वाला। दुहाई – पुकारना। कुुंतीनंदन – कुंती का बेटा। ठिठकते – रुकते।

संदर्भ –

व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सत्य’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता नई कविता के प्रमुख कवि विष्णु खरे हैं।

प्रसंग –

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भों तथा पात्रों के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट किया है।

व्याख्या –

कवि बताता है कि जब युधिष्ठिर विदुर का पीछा करते हुए जंगल में जाते हैं तो कभी वे दिखाई देते हैं और कभी आखों से ओझल हो जाते हैं। वर्तमान परिवेश भी कुछ ऐसा ही है। आडम्बर और पाखंड का सहारा लेने वाले समाज में आज सत्य को पहचान पाना आसान नहीं है। वास्तविकता हमारी आँखों के होते हुए भी हमें दिखाई नहीं देती। सत्य कभी दिखाई देता है तो कभी ओझल हो जाता है। जिस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर विदुर को रोकने के लिए स्वयं को कुंती का पुत्र बताकर अपना परिचय देते है और इसके बावजदू भी विदुर नहीं रुकते। उसी तरह आम जनता सत्य को पहचानने का प्रयास करती है, परंतु सत्य वर्तमान समाज में कहीं भी दिखाई नहीं देता।

विशेष –

  1. ‘बार-बार’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  2. संवाद शैली का प्रयोग है।
  3. मिश्रित शब्दावली युक्त साहित्यिक खड़ी बोली है।
  4. ‘दुहाई देना’ मुहावरे का सार्थक प्रयोग है।
  5. मुक्त छंद है।

यदि हम किसी तरह युधिष्ठिर जैसा संकल्प पा जाते हैं
तो एक दिन पता नहीं क्या सोचकर रुक ही जाता है सत्य
लेकिन पलटकर सिर्फ़ खड़ा ही रहता है वह दृढ़निश्चयी
अपनी कहीं और देखती दृष्टि से हमारी आँखों में देखता हुआ
अंतिम बार देखता-सा लगता है वह हमें
और उसमें से उसी का हलका सा प्रकाश जैसा आकार
समा जाता है हममें

शब्दार्थ

संकल्प – किसी कार्य को करने की शपथ। दृढ़निश्चयी – पक्का निश्चय करने वाला।

संदर्भ –

व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सत्य’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता नई कविता के प्रमुख कवि विष्णु खरे हैं।

प्रसंग –

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाभारत के पात्र युधिष्ठिर के माध्यम से संदेश दिया है कि हम दृढ़ निश्चियी होकर सत्य को पा सकते हैं।

व्याख्या –

कवि कहते है सत्य को पाना मुश्किल है किंतु असंभव नहीं है। कवि युधिष्ठिर की संकल्प शक्ति का परिचय देते हैं। यदि हम किसी तरीके से युधिष्ठिर जैसा संकल्प कर लें तो एक-न-एक दिन सत्य प्राप्त हो ही जाता है। अगर हम दृढ़निश्चियी होकर सत्य की राह में खड़े हो जाएं तो भी वह कहीं ओर देखता हुआ हमारी आँखों में भी झाँकता है। ऐसा लगता है मानो सत्य हमें अंतिम बार देख रहा है और अपनी नजरें चुरा रहा है। जब युधिष्ठिर के संकल्प से विदुर रुकते हैं तो उसमें से सत्य की निष्ठा के कारण हल्का-सा प्रकाश निकलता है और युधिष्ठिर में समा जाता है। इसी तरह हम भी यदि सत्य की खोज में तप करते हैं तो सत्य का प्रकाश हमारी आत्मा में प्रवेश कर जाता है।

विशेष –

  1. सत्य की महत्ता का वर्णन है।
  2. ‘युधिष्ठिर जैसा’, ‘देखता-सा’, ‘हल्का-सा’ में उपमा अलंकार है।
  3. ‘देखती दृष्टि’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. मिश्रित शब्दावाली युक्त खड़ी बोली है।
  5. मुक्त छंद है।

जैसे शमी वृक्ष के तने से टिककर
न पहचानने में पहचानते हुए विदुर ने धर्मराज को
निर्निमेष देखा था अंतिम बार
और उनमें से उनका आलोक धीरे-धीरे आगे बढ़कर
मिल गया था युधिष्ठिर में
सिर झुकाए निराश लौटते हैं हम
कि सत्य अंत तक हमसे कुछ नहीं बोला
हाँ हमने उसके आकार से निकलता वह प्रकाश-पुंज देखा था
हम तक आता हुआ
वह हममें विलीन हुआ या हमसे होता हुआ आगे बढ़ गया

शब्दार्थ

शमी – वृक्ष का नाम। धर्मराज – युधिष्ठिर। निर्निमेष – बिना पलक झपकाए। आलोक – उजाला। प्रकाश-पुंज – रोशनी का समूह।

संदर्भ –

व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सत्य’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता नई कविता के प्रमुख कवि विष्णु खरे हैं।

प्रसंग –

प्रस्तुत पद्यांश में कवि कहना चाहता है कि आंतरिक शक्ति के बल पर सत्य के आलोक को प्राप्त किया जा सकता है।

व्याख्या –

कवि कहता है युधिष्ठिर के लगातार पीछा करने पर विदुर अंत में शमी वृक्ष के पीछे छिप गये। और वहाँ से युष्ठिष्ठिर को बिना पलक झपकाए देखने लगे। उनका प्रकाश धीर-धीरे आगे बढ़कर युधिष्ठिर में मिल गया था। इसी प्रकार हम यदि सत्य को सामने लाने के लिए प्रयास करें तो एक दिन सत्य सामने आ ही जाएगा। जो लोग सत्य का एक निष्ठ होकर पालन नहीं करते वे यह सोचकर निराश होते हैं कि सत्य ने अंत तक कुछ नहीं कहा। सत्य को केवल सच्चे अंतर्मन के द्वारा प्रकाश पुंज की भांति अपने भीतर समाते हुए देखा जा सकता है। अगर हम सत्य को सही अर्थों में पहचानने का प्रयास नहीं करेंगे तो सत्य हमारे भीतर से गुजरकर भी हमसे निकलकर आगे चला जाएगा। सत्य हमारे पास होते हुए भी अनछुआ रह जाएगा।

विशेष –

  1. आत्मिक शक्ति से सत्य प्राप्त हो सकता है।
  2. ‘धीरे-धीरे’ मेें पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  3. ‘प्रकाश पुंज’ ‘हमसे होता हुआ’ में अनुप्रास अलंकार है।
  4. ‘सिर झुकाना’ मुहावरे का सार्थक प्रयोग है।
  5. मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।

हम कह नहीं सकते
न तो हममें कोई स्फुरण हुआ और न ही कोई ज्वर
कितु शेष सारे जीवन हम सोचते रह जाते हैं
कैसे जानें कि सत्य का वह प्रतिबिब हममें समाया या नहीं
हमारी आत्मा में जो कभी-कभी दमक उठता है
क्या वह उसी की छुअन है
जैसे
विदुर कहना चाहते तो वही बता सकते थे
सोचा होगा माथे के साथ अपना मुकुट नीचा किए
युधिष्ठिर ने
खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए।

शब्दार्थ

स्फुरण – कँपकपी। ज्वर – बुखार। प्रतिबिंब – छाया। दमक – चमक। छुअन – स्पर्श।

संदर्भ –

व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग 2’ में संकलित कविता ‘सत्य’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता नई कविता के प्रमुख कवि विष्णु खरे हैं।

प्रसंग –

प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाभारत के पौराणिक संदर्भों तथा पात्रें के द्वारा जीवन में सत्य की महत्ता को स्पष्ट किया है।

व्याख्या –

कवि बताता है कि जब सत्य हमारे भीतर प्रवेश करता है तो न हो कोई कंपकपी होती है और न ही बुखार होता है। हम सारा जीवन यह सोचते रहते है कि सत्य का परिचय हमसे हुआ या नहीं, सत्य का आलोक हमारे भीतर समाया या नहीं। इसका पता लगाने के लिए हमें कभी-कभी हमारी आत्मा से उठने वाले प्रतिरोध के स्वर को सुनना होगा। विरोध को जो स्वर कभी-कभी हमारी आत्मा से उठकर असत्य को प्रतिकार करता है वह उसी सत्य की हल्की-सी छुअन होती है। युधिष्ठिर खांडवप्रस्थ से इंद्रप्रस्थ लौटते हुए सिर नीचा करके सोचते हुए जा रहे थे कि विदुर चाहते तो वहीं सच बता सकते थे। लेकिन सत्य हमेशा हमारी परीक्षा लेता है कि हम कहाँ तक सत्य को जानने के लिए प्रयास कर सकते हैं।

विशेष –

  1. ‘कभी-कभी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  2. मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली में सहज अभिव्यक्ति है।
  3. दृश्य बिंब है।
  4. मुक्त छंद है।

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“एक कम”

(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न- कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होने के लिए किन तरीकों की ओर संकेत किया है? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर- कवि ने लोगों के आत्मनिर्भर, मालामाल और गतिशील होने के जो तरीके बताए हैं वे अनैतिकता, बेईमानी से भरे हैं। वर्तमान में लोग आगे बढ़ने के लिए धोखाधड़ी का सहारा लेते है। वे मालामाल बनने के लिए गरीबों का शोषण करते हैैं। बेईमानी करके अधिक से अधिक लाभ कमाते हैं। उनके लाभ का कोई भी फायदा गरीब जनता को नहीं होता। इस तरह के चालाक लोग मेहनती तथा ईमानदार लोगों का शोषण करते हैं तथा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं।

प्रश्न- हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार क्यों कहा है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – कवि को लगता है कि अगर हाथ फैलाने वाला व्यक्ति भी बेईमानी से आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो वह आज अमीर होता। हाथ फैलाने वाले व्यक्ति ने अपनी जरूरतों को बढ़ने नहीं दिया। सीमित जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे धोखाधड़ी नही करनी पड़ी। बल्कि वो हाथ फैलाकर ही अपने लिए दो रोटी का इंतजाम कर सकता है। इसलिए कवि ने हाथ फैलाने वाले व्यक्ति को ईमानदार कहा है।

प्रश्न – कवि ने स्वयं को लाचार, कामचोर, धोखेबाज क्यों कहा?

उत्तर – कवि के अनुसार वर्तमान में जहाँ हर जगह धोखेबाजी तथा निर्लज्जता आ गई है वहाँ ईमानदार लोगों की भूमिका समाप्त होती जा रही है। कवि बेईमानी और स्वार्थपरता के इस माहौल को बदलने के लिए स्वयं को असमर्थ मानता है। वह किसी गरीब, शोषित की मदद नहीं कर सकता। वह स्वयं भी बदले वातावरण में जीना सीखकर आगे बढ़ता है, परंतु उसकी सहानुभूति कमजोर और ईमानदार लोगों के साथ है।

प्रश्न – ‘मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं’ कवि का क्या अभिप्राय है?

उत्तर – ‘मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी या हिस्सेदार नहीं’ पंक्ति से कवि कहना चाहता है कि वह बदले हुए माहौल में तटस्थ हैै। कवि ईमानदार, संघर्षशील लोगों के संघर्ष से सहानुभूति रखता है, परंतु वह उनके लिए कुछ कर नहीं पाता। वह शोषण करने वाली व्यवस्था का विरोध नहीं कर पाता। इसलिए स्वयं को गरीबों और ईमानदारों के संघर्ष पथ से दूर कर लेता है। कवि न तो विरोध करने वालों का विरोधी बनना चाहता है और न ही उनका मुकाबला करना चाहता है। वह उनके संघर्ष का हिस्सेदार भी नहीं बनना चाहता। कवि स्वयं को सब तरह के संघर्ष से दूर करना चाहता है।

प्रश्न – भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(क) 1947 के बाद से —– गतिशील होते देखा है।
भाव-सौंदर्य – कवि के अनुसार आजादी से पहले देखा गया आदर्श समाज का स्वप्न धूमिल हो रहा है। आजादी के बाद भारतीय समाज में नैतिक गिरावट ने कवि को आहत किया है। कवि देखता है आगे बढ़ने के लिए गलत तरीके अपनाने वाले लोग आत्मनिर्भर और अमीर बन गए। वे समाज में प्रमुख स्थिति प्राप्त कर गए और गरीबों का शोषण करने लगे। समाज में हर जगह धोखेबाजी, स्वार्थपरता आ गई।

(ख) मानता हुआ कि हाँ मैं लाचार हूँ ——- एक मामूली धोखेबाज़।
भाव-सौंदर्य – कवि के अनुसार वर्तमान में जहाँ हर जगह धोखेबाजी तथा निर्लज्जता आ गई है वहाँ ईमानदार लोगों की भूमिका समाप्त होती जा रही है। कवि बेईमानी और स्वार्थपरता के इस माहौल को बदलने के लिए स्वयं को असमर्थ मानता है। वह किसी गरीब, शोषित की मदद नहीं कर सकता। वह स्वयं भी बदले वातावरण में जीना सीखकर आगे बढ़ता है, परंतु उसकी सहानुभूति कमजोर और ईमानदार लोगों के साथ है।

(ग) तुम्हारे सामने बिल्कुल ——- लिया है हर होड़ से।
भाव-सौंदर्य – कवि कहना चाहता है कि वह बदले हुए माहौल में तटस्थ हैै। कवि ईमानदार, संघर्षशील लोगों के संघर्ष से सहानुभूति रखता है, परंतु वह उनके लिए कुछ कर नहीं पाता। वह शोषण करने वाली व्यवस्था का विरोध नहीं कर पाता। इसलिए स्वयं को गरीबों और ईमानदारों के संघर्ष पथ से दूर कर लेता है। कवि न तो विरोध करने वालों का विरोधी बनना चाहता है और न ही उनका मुकाबला करना चाहता है। वह उनके संघर्ष का हिस्सेदार भी नहीं बनना चाहता। कवि स्वयं को सब तरह के संघर्ष से दूर करना चाहता है।

प्रश्न – शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।

(क) कि अब जब कोई —– या बच्चा खड़ा है।
शिल्प-सौंदर्य –

  1. स्वतंत्रता के पश्चात् गरीब और अमीर की दूरी का चित्रण है।
  2. भीख माँगते लाचार लोगाें का दृश्य बिंब है।
  3. ‘हाथ फैलाना’ मुहावरे का प्रयोग है।
  4. ’पच्चीस पैसे’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
  6. मुक्त छंद का प्रयोग है।
  7. अतुकांत कविता है।
  8. शांत रस का प्रयोग है।
  9. लाक्षणिकता प्रधान शैली है।

(ख) मैं तुम्हारा विरोधी प्रतिद्वंद्वी —– निशि्ंचत रह सकते हो।

  1. कवि की मनोदशा का वर्णना है।
  2.  ‘नंगा निर्लज्ज’ में अनुप्रास अलंकार है।
  3. मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
  4. मुक्त छंद का प्रयोग है।
  5. अतुकांत कविता है।
  6. शांत रस का प्रयोग है
  7. लाक्षणिकता प्रधान शैली है।

 

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"सत्य"
(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्नसत्य क्या पुकारने से मिल सकता है? युधिष्ठिर विदुर को क्यों पुकार रहे हैं – महाभारत के प्रसंग से सत्य के अर्थ खोलें।

उत्तर – नहीं, सत्य मात्र पुकारने से नहीं मिल सकता। सत्य को पाने के लिए कठिन रास्तों से गुजरना पड़ता है।  युधिष्ठिर सत्य को जानने के लिए विदुर को पुकारते हैं लेकिन विदुर युधिष्ठिर की पुकार नहीं सुनते और जंगल में भागे चले जाते हैं। विदुर पांडवों के साथ हुए अत्याचार पर मौन रह गए थे, इस सत्य की विवशता को छिपाने के लिए विदुर युधिष्ठिर से दूर जा रहे हैं

प्रश्न – सत्य का दिखना और ओझल होना से कवि का क्या तात्पर्य है?

उत्तर – सत्य का दिखना और ओझल होना से कवि का तात्पर्य है कि वर्तमान समय में व्यक्ति को सत्य दिखाई तो देता है किंतु वह स्थायी रूप नहीं ले पाता। जो व्यक्ति दृढ़ निश्चय से सत्य की खोज में लग जाता है उसे सत्य मिलता है। इसके विपरीत केवल ऊपर-ऊपर से सत्य की चाह रखने वाले व्यक्ति को सत्य दिखाई नहीं देता।

प्रश्न – सत्य और संकल्प के अंतर्संबंध पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर – मनुष्य समाज में रहते हुए विभिन्न चुनौतियों का सामना करता है। इन चुनौतियों और कठिनाइयों का समाधान ढूँढने के लिए उसे सत्य के विभिन्न पक्षों को जानना होता है। संकल्प ही ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा सत्य को भली प्रकार जाना जा सकता है। सत्य व्यक्ति के पुकारने भर से उसके पास नहीं आता। जो व्यक्ति दृढ़ संकल्प होकर सत्य को पाना चाहता है वह सत्य को अपनी आत्मा में महसूस करता है और जो संकल्प का पालन नहीं कर पाते सत्य उनसे दूर चला जाता है।

प्रश्न – ‘युधिष्ठिर जैसा संकल्प’ से क्या अभिप्राय है?

उत्तर – युधिष्ठिर महाभारत की पौराणिक कथा का प्रमुख पात्र है। उसे सत्य की प्रतिमूर्ति माना जाता है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी सत्य को नहीं त्यागता। वह उच्च संकल्प वाला था। यह उसके दृढ़ निश्चय को दर्शाता है। युधिष्ठिर जैसे दृढ़ निश्चयी व्यक्ति ही विपरीत दशाओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

प्रश्न – सत्य की पहचान हम कैसे करें? कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – कवि बताता है कि सत्य पुकारने भर से नहीं बोलता। वह आत्मा के प्रकाश पुंज की तरह आता या तो मनुष्य में विलीन हो जाता है या उससे होता हुआ आगे बढ़ जाता है। जो व्यक्ति दृढ़ता से सत्य को पहचानते हैं सत्य उनकी आत्मा में बस जाता है। यह सत्य हमारी आत्मा में कभी-कभी दमक उठता है। उसी से हम सत्य की पहचान कर पाते हैं।

प्रश्न – कविता में बार-बार प्रयुक्त ‘हम’ कौन है और उसकी क्या चिंता है?
उत्तर – कविता में कवि ने ‘हम’ शब्द का बार-बार प्रयोग किया है। कविता में प्रयुक्त ‘हम’ आम व्यक्ति का प्रतीक है। आम व्यक्ति की चिंता यह है कि वर्तमान परिवेश ऐसा हो गया है कि सत्य की पहचान तथा पकड़ मुश्किल होती जा रही है। सत्य हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो सकता है।

प्रश्न – सत्य की राह पर चल। अगर अपना भला चाहता है तो सच्चाई को पकड़। इन पंक्तियों के प्रकाश में कविता का मर्म खोलिए।

उत्तर – कवि कहता है कि व्यक्ति को हमेशा सच के रास्ते पर चलना चाहिए। सत्य का मार्ग अपनाकर ही व्यक्ति मंजिल प्राप्त कर सकता है। यही आशय सत्य कविता में बताया गया है। वर्तमान में सत्य का निश्चित रूप नहीं रह गया है। प्रतिपल सत्य के रूप बदलते रहते हैं। सत्य के प्रति संशय बढ़ गया है, परंतु इसके बावजूद सत्य हमारे आत्मा की आंतरिक शक्ति है। इसी आंतरिक शक्ति के आधार पर मनुष्य जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है।


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