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गीत गाने दो मुझे (व्याख्या)
गीत गाने दो मुझे
गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।
चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रफ़कता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।
शब्दार्थ
वेदना – पीड़ा। पाथेय – संबल, सहारा। ठाकुर – मालिक। काल – अंतिम समय। कंठ – गला।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियों में निराला को उस समय की याद आती है, जब सर्वत्र निराशा का वातावरण व्याप्त था। अपनी निराशा से जनित दुःख को भुलाने के लिए कवि गीत गाना चाहता है।
व्याख्या-
कवि कहता है कि मेरी वेदना लगातार बढ़ती जा रही है, उस वेदना से उत्पन्न दुःख को रोकने के लिए मुझे गीत गाने दो। अपनी वेदना को कम करने के लिए कवि गीत गाना चाहता है। कवि का मन लगातार संघर्ष करते-करते थक चुका है, निराशा के अंधकार को देखकर कवि थक चुका है, उसके होश उड़ चुके हैं। जीवन के लगातार संघर्षाें के कारण होश वालों के भी होश उड़ जाते हैं। ऐसा लगता है कि अब जीवन जीना आसान नहीं है। कवि के पास जीवन यापन करने के लिए जो भी साधन या संबल थे, उनको भी ठग-ठाकुरों (शासक और पूँजीपतियों) ने छल के द्वारा लूट लिया है। कवि का गला निरंतर विपत्तियाें का सामना करने से रुँधता आ रहा है। कवि की साँस ठहरती जा रही है और उसको स्वयं का काल नजदीक आता दिखाई दे रहा है।
विशेष-
1- कवि संसार के द्वारा दी गई पीड़ा को भुलाने के लिए गीत सृजन करना चाहता है।
2- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
3- ‘पाथेय’ शब्द में लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
4- सरल-सरस तथा मिश्रित भाषा का प्रयोग है।
5- ‘गीत गाने’ ‘ठग-ठाकुरों’ में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
6- मुक्त छंद का प्रयोग किया गया है।
7- कविता आंशिक तुकांत व लयबद्ध है।
8- ‘होश छूटना’ ‘चोट खाना’ मुहावरों का प्रयोग है।
भर गया है शहर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।
शब्दार्थ :- परिचय – जान-पहचाना। पृथा – पृथ्वी। लौ – ज्योति।
संदर्भ – व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में निराला को उस समय की याद आती है, जब सर्वत्र निराशा का वातावरण व्याप्त था। प्रस्तुत पद्यांश में चारों ओर लूटपाट के वातावरण पर अपना आक्रोश व्यक्त करते हुुए कवि कहाता है-
व्याख्या – यह हारा हुआ संसार ऐसा लगता है जैसे असमानता और विषमता के विष से भर गया है। लोग परस्पर मिलते नहीं हैं और न ही परिचय जानने की कोशिश करते हैं। वे बस एक दूसरे को अजनबी की तरह देखते रहते हैं। पृथ्वी पर मनुष्यों की परस्पर सहिष्णुता की लौ अब बुझ चुकी है। मनुष्य निराशा में डूबता जा रहा है। निराश के बोझ से मानव की संघर्ष करने की शक्ति अब समाप्त होती जा रही है। इस शक्ति को पुनः जगाने के लिए और मनुष्य समाज को बचाने के लिए किसी क्रांति की आवश्यकता है। इस बुझी हुई ज्योति को प्रेम रूपी तेल से सिंचित करने के लिए कवि स्वयं को जलाना और गीत गाना चाहता है।
विशेष –
1- कवि संसार के सद्वृत्ति की लौ को स्वयं की आहुति देकर भी जलाना चाहता है।
2- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
3- ‘जहर’ शब्द में लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
4- सरल-सरस तथा मिश्रित भाषा का प्रयोग है।
5- ‘लोग लोगों’ में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
6- ‘जल उठो फिर सींचने को’ में विरोधाभास अलंकार है।
6- मुक्त छंद का प्रयोग किया गया है।
7- कविता आंशिक तुकांत व लयबद्ध है।
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सरोज स्मृति (व्याख्या)
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होठों में बिजली फँसी स्पंद
उर में भर झूली छबि सुंदर
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
शब्दार्थ :- आमूल – मूल या जड़ तक, पूरी तरह। नवल – नया। स्पंद – कंपन। उर – मन, हृद्य। स्तब्ध – स्थिर, दृढ़। उच्छ्वास – आह भरना। धीति – प्यास, पान। अशब्द – बिना बोले। आलोक – प्रकाश, उजाला। अधर – होंठ। नत – झुके हुए।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की याद में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह का वर्णन किया है।
व्याख्या :- यहाँ कवि निराला अपनी पुत्री सरोज के विवाह को पूरी तरह नया बताते हुए कहते हैं कि इस विवाह में मेहमानों ने विवाह की एक नई रीति देखी थी। जब पुत्री पर कलश से मांगलिक जल डाला गया था तब सरोज अपने पिता को देखकर मुस्काई थी और उसके होठों पर बिजली की एक कंपित लहर दौड़ गई थी। तू अपने हृद्य में अपने प्रिय की सुंदर छवि भरकर खुश हो रही थी जिससे तेरा दांपत्य और संयोग का भाव मुखर हो रहा था। तू गहरी साँस लेकर प्रसन्न हो रही थी और प्रत्येक अंग भविष्य की आशा में बँधकर स्तब्ध या निश्चल हो गया था। तेरे झुके हुए नयनों ने प्रकाश के रेखा तेरे ओठों पर गिरकर थर-थर काँप रही थी। मैंने तेरी वह धीर मूर्ति देखी थी जिसे देखकर मुझे लगा जैसे मेरी युवावस्था की प्रथम गीति का स्फुरण था।
विशेष –
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘थर-थर’ तथा ‘अंग-अंग’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘नत नयनों’ में अनुप्रास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयाग है।
- छायावादी शैली है।
शृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन,
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग_
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
शब्दार्थ :- निराकार – जिसका कोई आकार न हो। रति-रूप – कामदेव की पत्नी के रूप जैसी, अत्यंत सुंदर। मही – पृथ्वी। सेज – बिस्तर। स्वजन – संबंधी, अपने लोग । विवाह-राग – विवाह का गीत। निशि – रात्रि।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह का वर्णन किया है।
व्याख्या :- कवि अपनी बेटी के विवाह का वर्णन करते हुए कहता है कि मैंने उसमें उस शृंगार को देखा जो निराकार रहकर भी मेरी कविता में रस की उमड़ती हुई धारा के समान प्रस्फुटित हो उठा था। उसमें वह संगीत मुखरित हो रहा था। जिसकोे मैंने अपनी पत्नी के साथ गाया था। वह संगीत मेरे प्राणों में आनंद का उद्रेक करता रहता है। मेरी वही शृंगार-भावना तेरे रूप में साकार हो उठी थी। उस दिन आकाश अपने ऊर्ध्व में रहने के स्वभाव को त्यागकर नीचे आकर पृथ्वी के साथ एकाकार हो गया – अभिप्राय यह है कि प्रकृति भी दांपत्य भाव से ओतप्रोत थी। हे पुत्री इस तरह तेरा विवाह संपन्न हो गया था। उसमें कोई भी सगा-संबंधी नहीं आया था क्योंकि उनको निमंत्रण ही नहीं भेजे गए थे। इस प्रकार विविह के अवसर पर कन्या के घर में जो राग-रंग पूर्ण उत्सव औरजागरण चला करता है, वह भी यहाँ नहीं हुआ। उस समय तो नवजीवन के स्तरों पर एक प्रकार का मूक संगीत अवतरित हो रहा था।
विशेष:-
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘रति-रूप’ में रूपक अलंकार है।
- ‘राग-रंग’ ‘रति रूप’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘प्रिय मौन एक संगीत भरा’ में विरोधाभास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- वात्सल्य रस है।
- स्मृति बिंब है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयाग है।
- छायावादी शैली है।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार_
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त_
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरण!
शब्दार्थ :- शकुंतला – कालिदास की नाट्यकृति ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका। समोद – हर्षसहित, खुशी के साथ। जलद – बादल। न्यस्त – निहित। धरा – पृथ्वी। समस्त – सभी। व्यस्त – कार्य में लगे हुए। दृग – आँखें। वर – ग्रहण करना।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के देहांत का वर्णन किया है।
व्याख्या :- निराला अपनी स्वर्गीय पुत्री को संबोधित करते हुए कहते है कि हे पुत्री! माँ के न रहने पर तेरे विवाह के बाद मैंने ही तुझको वे शिक्षाएँ दी थी, जिन्हें नववधू को माता प्रदान करती है। तेरी पुष्प-शैया भी स्वयं ही तैयार की थी। मैं सोच रहा था कि मैं अपनी पुत्री को शकुंतला भी भाँति उसी तरह विदा कर रहा हूँ जैसे शंकुलता का महर्षि कण्व ने विदा किया था, किंतु तू शंकुतला से अलग थी क्योंकि तेरी शिक्षा अलग थी। शकुंतला को उसकी माँ स्वयं छोड़कर गई थी परंतु सरोज की माँ की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी। इसलिए दोनों ही परिस्थितियाँ समान होते हुए भी अलग हैं।
हे पुत्री! तू कुछ दिनों तक अपने घर अर्थात् ससुराल में रहकर फिर अपने ननिहाल में नानी के पास चली गई। वहाँ पर तेरे मामा और मामी सरोज पर उसी प्रकार प्यार की वर्षा करते रहते थे जैसे बादल अपने जल से पृथ्वी को आप्लावित करते रहते हैं। ननिहाल में सभी तेरे दुख-सुख में तेरे साथी और शिक्षक बने रहे और वे सदैव तेरी भलाई में लगे रहते थे। तू जिस लता की कली थी, वह भी वहीं थी। अर्थात् सरोज की माता मनोहरा का पालन पोषण भी वहीं हुआ था। तू उन्हीं की गोद में बचपन से रही थी, अतः किशोरावस्था में उन्हीं से हिली-मिली थी। अपने जीवन की अंतिम घड़ी में भी तूने ननिहाल की स्नहेमयी गोद में शरण ली और अपने सुंदर नेत्रों को बंद करके स्वर्ग को गई थी।
विशेष:-
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘भर जलद धरा को ज्यों अपार’ में उपमा अलंकार है।
- ‘पर पाठ’ में अनुप्रास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयाग है।
- छायावादी शैली है।
मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
शब्दार्थ :- संबल – सहारा। विकल – व्याकुल होना। वज्रपात – भारी विपत्ति, कठोर। स्वजन – अपने लोग। सकल – सभी। शीत – ठंड, पाला। शतदल – कमल। अर्पण – देना, अर्पित करना, चढ़ाना। तर्पण – देवताओं, ऋषियों और पितरों को तिल या तंडुलमिश्रित जल देने की क्रिया।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के निधन पर अपनी भावनाओं का वर्णन किया है।
व्याख्या :- कवि सरोज को संबोधित करते हुए कह रहा है कि हे पुत्री ! मुझ अभागे का एकमात्र तू ही सहारा थी। आज तेरे जाने दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर मैं इस बात को प्रकट कर रहा हँू कि मेरा जीवन तो विपत्तियाें और दुखों की ही कहानी रहा है अर्थात् मुझ पर एक के बाद एक आपत्तियाँ आती रही हैं। इस बात को मैंने अभी तक किसी से कहा नही है तो उसको आज कहकर क्या करूँगा। यदि मेरा धर्म बना रहे तो मेरे सारे कर्मों पर भले ही बिजली टूट पड़े, मैं अपने झुके हुए मस्तक से उसको सहन करता रहँूगा। इस जीवन-मार्ग पर मेरे संपूर्ण कार्य शरद ऋतु में मुरझा जाने वाले कमल की पंखुड़ियों की तरह भले ही नष्ट हो जाएँ अर्थात् चाहे मुझको मेरे कार्यों के लिए प्रशंसा न मिले, तो भी मुझे चिंता नहीं है। हे बेटी! मैं अपने पिछले सभी जन्मों के पुण्य कार्यों के फल तुझको सौंपकर तेरा तर्पण कर रहा हँू अर्थात् श्राद्ध के रूप में तुझको श्रद्धांजलि दे रहा हॅँू।
विशेष:-
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!’ में उपमा अलंकार है।
- ‘क्या कहू’ ‘कर, करता मैं तेरा तर्पण!’ में अनुप्रास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति- का प्रयाग है।
- छायावादी शैली है।
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