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"देवसेना का गीत"
(कविता की व्याख्या)
आह ! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई ।
छलछल थे संध्या के श्रमकण,
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई।
शब्दार्थ :-
वेदना – पीड़ा, दुख। भ्रमवश – भ्रम के कारण। मधुकरियों – भविष्य की सुखद अभिलाषाएँ, पके हुए अन्न। श्रमकण – मेहनत से उत्पन्न पसीना। नीरवता – खामोशी। अनंत – अंतहीन।
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित देवसेना का गीत से उद्धृत है। देवसेना का गीत छायावादी कविता के आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक स्कंदगुप्त का एक अंश है।
प्रसंग :-
मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन देवसेना हूणों के आक्रमण से पराजित हुए अपने भाई की वीरगति के पश्चात अपने जीवन की मधुर स्मृतियों को याद करती हुई कहती है.
व्याख्या :-
देवसेना जीवन के अंतिम क्षणों में निराशा में डूबी हुई कहती है कि मुझे अपने जीवन के इन पलों में वेदना या दुख विदाई के रूप में मिले हैं। मैं स्कंदगुप्त के प्रेम में यह सोचती थी कि स्कंदगुप्त से विवाह करने के पश्चात मेरा जीवन खुशियों से भरा होगा। आज मुझे लगता है कि मेरी वे अभिलाषाएँ मेरा भ्रम मात्र थी। मैंने भ्रम के कारण उत्पन्न सुखद भविष्य की इच्छाओं को देश सेवा में लुटा दिया है। अब मेरे जीवन में केवल दुख और निराशा ही शेष बचे हैं। आज में इन्हीं दुखों से विदा ले रही हूँ। देवसेना अपने जीवन के संघर्षों से थक चुकी है। उसे लगता है कि उसके जीवन की संध्याबेला में उसके परिश्रम से उत्पन्न कण उसकी आँखों से लगातार बहते जा रहे हैं। देवसेना के संघर्षों की यात्रा में अब केवल अनंत नीरवता अर्थात खालीपन ही बचा है। देवसेना स्वयं को निराश, थकी हुई और बिलकुल अकेला अनुभव कर रही है।
विशेष :-
- देवसेना की निराशा का सजीव चित्रण हुआ है।
- वियोग शृंगार और करुण रस का प्रयोग है।
- तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
- स्मृति बिम्ब का प्रयोग है।
- छंद मुक्त और तुकांत है।
- छायावादी शैली का प्रयोग है।
- ‘छलछल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- आँसू-से में उपमा अलंकार है।
- अनंत अँगड़ाई में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘संध्या के श्रमकण’ और ‘नीरवता अनंत अँगड़ाई’ में मानवीकरण अलंकार है।
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन-विपिन की तरु-छाया में,
पथिक उंनींदी श्रुति में किसने-
यह विहाग की तान उठाई।
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह ! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।
शब्दार्थ :-
श्रमित – श्रम से युक्त। मधुमाया – सुख की माया। गहन–विपिन – घने जंगल। तरु-छाया – पेड़ों की छाया। पथिक – राही। उंनींदी – अर्ध निंद्रा। विहाग – आधी रात में गाया जाने वाला राग। सतृष्ण – तृष्णा से युक्त। दीठ – दृष्टि। सकल – सारी।
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित देवसेना का गीत से उद्धृत है। देवसेना का गीत छायावादी कविता के आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक स्कंदगुप्त का एक अंश है।
प्रसंग :-
जीवन के अंतिम क्षणों में स्कन्दगुप्त देवसेना से प्रणय-निवेदन करता है। स्कन्दगुप्त के प्रणय-निवेदन दुखी होकर देवसेना अपने मन में उठने वाली आशाओं की निंदा करती है।
व्याख्या :-
अपने भाई के वीरगति प्राप्त होने के बाद देवसेना अपने देश की सेवा का व्रत ले लेती है। देश- सेवा के श्रम से युक्त स्वप्न के सुख की माया में देवसेना अपने कर्तव्य का पालन करने मे तत्पर है। ऐसे समय मे जब देवसेना स्कंदगुप्त को भूल चुकी है, स्कंदगुप्त देवसेना से प्रणय- निवेदन करता है। देवसेना को स्कंदगुप्त का प्रणय-निवेदन उसी प्रकार कष्ट देता है जैसे घने जंगल के बीच पेड़ों की छाया के नीचे थककर सोये हुए यात्री को आधी रात्री में राग गाकर अर्ध निद्रा में उठा दिया जाता है।
देवसेना कहती है कि जब वह स्कंदगुप्त से प्रेम करती थी उस समय उस पर लोगों की तृष्णा से युक्त दृष्टि लगी रहती थी। लेकिन देवसेना स्वयं को लोगों की दृष्टि से बचा कर रहती थी। अर्थात देवसेना ने स्कंदगुप्त के प्रति अपने प्रेम को लोगों पर जाहिर नहीं होने दिया। अब स्कंदगुप्त के द्वारा किये प्रणय-निवेदन से देवसेना के ह्रदय में फिर से भविष्य की आशा का संचार होने लगता है। देवसेना अपनी इसी आशा को संबोधित करती हुई कहती है कि हे मेरी बावली आशा! मैंने अपने जीवन को राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित कर दिया। देश-सेवा और आत्मत्याग के द्वारा मैंने जो भी कमाई की थी, जीवन के अंतिम क्षणों में स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन पर अपनी आसक्ति दिखा कर तूने वह सारी कमाई खो दी है। मेरे अर्जित कर्मों के महत्व को कम कर दिया है।
विशेष :-
- देवसेना के संघर्ष का सजीव चित्रण हुआ है।
- वियोग शृंगार और करुण रस का प्रयोग है।
- तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
- स्मृति बिम्ब का प्रयोग है।
- छंद मुक्त और तुकांत है।
- छायावादी शैली का प्रयोग है।
- ‘गहन विपिन’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘मेरी आशा आह ! बावली’ में मानवीकरण अलंकार है।
चढ़कर मेरे जीवन – रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर,
उससे हारी – होड़ लगाई।
लौटा लो यह अपनी थाती ,
मेरी करुणा हा-हा खाती।
विश्व ! न सँभलेगा यह मुझसे,
इससे मन की लाज गंवाई।
शब्दार्थ :-
निज – अपना। प्रलय – आपदा, जीवन की विषम परिस्थितियाँ। थाती – धरोहर /प्यार /अमानत।
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित देवसेना का गीत से उद्धृत है। देवसेना का गीत छायावादी कविता के आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक स्कंदगुप्त का एक अंश है।
प्रसंग :-
जीवन के अंतिम क्षणों में स्कन्दगुप्त देवसेना से प्रणय-निवेदन करता है। देवसेना अपने जीवन की विषम परिस्थितियों को प्रलय के समान मानती है और उनके सामने स्वयं को हारा हुआ पाती है।
व्याख्या :-
देवसेना कहती है कि प्रलय अर्थात मेरे जीवन की विषम परस्थितियाँ मेरे जीवन रूपी रथ पर सवार होकर अपने रास्ते पर चला जा रहा है। मैं इन परिस्थितियों का सामना करते-करते थक चुकी हूँ। जीवन के संघर्षों ने मुझे दुर्बल कर दिया है। मैं अपने दुर्बल पैरों के बल पर उन प्रलय रूपी परिस्थितियों से ऐसी प्रतिस्पर्धा की है जिससे मैं कई बार हारी हूँ किन्तु मैंने हार कर भी उन विषम परिस्थितियों से होड़ लगाई है। अर्थात मैं अपने जीवन के संघर्षों का सामना किया। देवसेना कहती है कि हे संसार! तुम अपनी नई उम्मीदों की अमानत को वापस ले लो, मेरी करुणा हाहाकार कर रही है, यह मुझसे नहीं संभल पाएगा। इसी कारण मैंने अपने मन की लज्जा को गवा दिया था।
विशेष :-
- देवसेना की निराशा का सजीव चित्रण हुआ है।
- वियोग शृंगार और करुण रस का प्रयोग है।
- तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
- माधुर्य गुण का प्रयोग है।
- छंद मुक्त और तुकांत है।
- छायावादी शैली का प्रयोग है।
- ‘जीवन रथ में’ रूपक अलंकार है।
- ‘हा-हा’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘पथ पर’, ‘हरी होड़’, ‘लौटा लो’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘प्रलय चल रहा’ में मानवीकरण अलंकार है।
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'देवसेना का गीत' (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न :- ‘मैंने भ्रम-वश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई’ – पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- देवसेना जीवन के अंतिम क्षणों में निराशा में डूबी हुई कहती है कि मुझे अपने जीवन के इन पलों में वेदना या दुख विदाई के रूप में मिले हैं। मैं स्कंदगुप्त के प्रेम में यह सोचती थी कि स्कंदगुप्त से विवाह करने के पश्चात मेरा जीवन खुशियों से भरा होगा। आज मुझे लगता है कि मेरी वे अभिलाषाएँ मेरा भ्रम मात्र थी। मैंने भ्रम के कारण उत्पन्न सुखद भविष्य की इच्छाओं को देश सेवा में लुटा दिया है। अब मेरे जीवन में केवल दुख और निराशा ही शेष बचे हैं। आज में इन्हीं दुखों से विदा ले रही हूँ।
प्रश्न :- कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है?
उत्तर :- कवि ने आशा को बावली इसलिए कहा है क्योंकि जीवन के अंतिम क्षण में स्कंदगुप्त देवसेना से प्रणय-निवेदन करता है। स्कंदगुप्त के द्वारा किये प्रणय-निवेदन से देवसेना के ह्रदय में फिर से आशा का संचार होने लगता है। देवसेना अपनी इसी आशा को संबोधित करती हुई कहती है कि हे मेरी बावली आशा! स्कंदगुप्त के प्रेम से निराश होकर ही मैंने अपने जीवन को राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। देश-सेवा, समर्पण और आत्मत्याग के द्वारा मैंने जो भी कमाई की थी, जीवन के अंतिम क्षणों में स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन पर अपनी आसक्ति दिखा कर तूने वह सारी कमाई खो दी है।
प्रश्न :- “मैंने निज दुर्बल …. होड़ लगाई” इन पंक्तियों में ‘दुर्बल पद बल’ और ‘हारी होड़’ में निहित व्यंजना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- देवसेना कहती है कि प्रलय अर्थात मेरे जीवन की विषम परस्थितियाँ मेरे जीवन रूपी रथ पर सवार होकर अपने रास्ते पर चला जा रहा है। मैं इन परिस्थितियों का सामना करते-करते थक चुकी हूँ। जीवन के संघर्षों ने मुझे दुर्बल कर दिया है। मैं अपने दुर्बल पैरों के बल पर उन प्रलय रूपी परिस्थितियों से ऐसी प्रतिस्पर्धा की है जिससे मैं कई बार हारी हूँ किन्तु मैंने हार कर भी उन विषम परिस्थितियों से होड़ लगाई है। अर्थात मैं अपने जीवन के संघर्षों का सामना किया।
प्रश्न :- काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
(ख) श्रमित स्वप्न की मधुमाया …………………….. तान उठाई।
उत्तर :-
भाव सौन्दर्य –
अपने भाई के वीरगति प्राप्त होने के बाद देवसेना अपने देश की सेवा का व्रत ले लेती है। देश-सेवा के श्रम से युक्त स्वप्न के सुख की माया में देवसेना अपने कर्तव्य का पालन करने मे तत्पर है। ऐसे समय मे जब देवसेना स्कंदगुप्त को भूल चुकी है, स्कंदगुप्त देवसेना से प्रणय-निवेदन करता है। देवसेना को स्कंदगुप्त का प्रणय-निवेदन उसी प्रकार कष्ट देता है जैसे घने जंगल के बीच पेड़ों की छाया के नीचे थककर सोये हुए यात्री को आधी रात्री में राग गाकर अर्ध निद्रा में उठा दिया जाता है।
शिल्प सौन्दर्य-
- देवसेना के संघर्ष का सजीव चित्रण हुआ है।
- वियोग शृंगार और करुण रस का प्रयोग है।
- तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
- स्मृति बिम्ब का प्रयोग है।
- छंद मुक्त और तुकांत है।
- छायावादी शैली का प्रयोग है।
- ‘गहन विपिन’ में अनुप्रास अलंकार है।
(ख) लौटा लो ………………………………… लाज गवाईं।
उत्तर :-
भाव सौन्दर्य –
देवसेना कहती है कि हे संसार! तुम अपनी नई उम्मीदों की अमानत को वापस ले लो, मेरी करुणा हाहाकार कर रही है, यह मुझसे नहीं संभल पाएगा। इसी कारण मैंने अपने मन की लज्जा को गवा दिया था।
शिल्प सौन्दर्य-
- देवसेना की निराशा का सजीव चित्रण हुआ है।
- वियोग शृंगार और करुण रस का प्रयोग है।
- तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
- माधुर्य गुण का प्रयोग है।
- छंद मुक्त और तुकांत है।
- छायावादी शैली का प्रयोग है।
- ‘हा-हा’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘लौटा लो’ में अनुप्रास अलंकार है।
प्रश्न :- देवसेना की हार या निराशा का क्या कारण है?
उत्तर :- देवसेना की हार या निराशा के निम्नलिखित कारण हैं-
भाई की मृत्यु – देवसेना मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन है। हूणों के आक्रमण से बंधुवर्मा सहित परिवार के सभी लोग वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं।
स्कंदगुप्त द्वारा प्रेम निवेदन ठुकराना – देवसेना स्कंगुप्त से प्रेम करती थी, किन्तु स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया से प्रेम करता था।
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"कार्नेलिया का गीत"
कविता की व्याख्या
अरुण यह मधुमय देश हमारा!
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर-नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर-मंगल कुंकुम सारा!
लघु सुरधनु से पंख पसारे-शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए-समझ नीड़ निज प्यारा।
बरसाती आँखों के बादल-बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकराती अनंत की-पाकर जहाँ किनारा।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
शब्दार्थ :-
अरुण – लालिमा युक्त। मधुमय – मिठास से भरा। क्षितिज – जहाँ धरती और आकाश एक साथ मिले हुए दिखाई देते हैं। सारस – रस से युक्त। तामरस – तांबे जैसा लाल रंग। विभा – चमक। तरुशिखा – पेड़ों की शिखा। मनोहर – मन को मुग्ध करने वाली। लघु – छोटे। सुरधनु – देवताओं के धनुष। मलय समीर – दक्षिण की ओर से चलने वाली सुगंधित हवा। खग – पक्षी। नीड़ – घोंसला। अनंत – समुद्र। हेम – हिम। कुंभ – घड़ा। मदिर – मस्ती पैदा करने वाला। रजनी – रात्रि।
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कार्नेलिया का गीत से उद्धृत है। कार्नेलिया का गीत छायावादी कविता के आधार स्तम्भ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित नाटक चन्द्रगुप्त का एक अंश है।
प्रसंग :-
कार्नेलिया सिकंदर के सेनापति सिल्यूकस की बेटी है। सिधु के किनारे ग्रीक शिविर के पास वृक्ष के नीचे बैठी हुई यह गीत गाती है। इस गीत में हमारे देश की गौरवगाथा तथा प्राकृतिक सौंदर्य को भारतवर्ष की विशिष्टता और पहचान के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या :-
सिंधु नदी के तट पर बैठी कार्नेलिया कहती है कि सूर्य की लालिमा युक्त यह हमारा देश मिठास से भरा हुआ है। किसी के लिए भी हमारे हृदय में घृणा का भाव नहीं है। इस देश में सूर्य उदय का दृश्य अत्यंत आकर्षक और मनोहारी है। यहाँ पहुँच कर अंजान क्षितिज को भी सहारा मिल जाता है। अर्थात भारत दूर देश से आए लोगों को भी सहारा देता है। सूर्य उदय के समय कमल खिलकर तालाबों में अपनी छटा बिखेर देते हैं। सूर्य की किरने उन कमलों पर नाचती हुई प्रतीत होती हैं। यहाँ का सारा जीवन सुंदर, सरस और मनोहारी लगता है। भारत की हरियाली से युक्त भूमि पर चारों ओर मांगलिक कुमकुम भिखरा हुआ दिखाई देता है। प्रातःकाल में शीतल, सुगंधित मलय पर्वत की ओर से आने वाले समीर का सहारा लेकर उड़ने वाले पक्षी इंद्र्धनुष के समान आकर्षक दिखाई देते हैं। ये पक्षी जिस ओर भी मुख करके उड़ते हैं वही उसके घोसलें हैं। अर्थात वे पक्षी भारत को ही अपना घर मानते हैं और उनको यहाँ प्रश्रय मिलता है। जैसे बादल पेड़-पौधों पर अपने जल की वर्षा करते हैं और उनको जीवन प्रदान करते हैं वैसे ही भारतवासी अपनी आँखों से करुणा रूपी जल बरसाकर निराश व उदास लोगों के मन में नयी ऊर्जा का संचार करते हैं। बादल लोगों को जीने की प्रेरणा देते हैं। विशाल समुद्र की लहरें भी भारत का किनारा पाकर शांत हो जाती हैं अर्थात समुद्र की लेहरों को भी भारत देश पहुँचकर विश्राम मिलता है। जब रात भर के जागे हुए तारे प्रातः होने पर ऊँघते दिखाई देते हैं तब उषा सूर्य रूपी घड़े में सुख और शांति भरकर भारतवर्ष पर लुढ़का देती है। अर्थात प्रातः होने पर भारतवासी सुखी, समृद्ध और खुशहाल दिखाई देते हैं।
विशेष :-
- देशभक्ति से ओतप्रोत गीत है।
- प्रातः कालीन वातावरण का सजीव चित्रण है।
- तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
- कविता में संगीतात्मकता है।
- दृश्य बिम्ब का प्रयोग है।
- शांत रस का प्रयोग है।
- छंद मुक्त और तुकांत है।
- छायावादी शैली का प्रयोग है।
- ‘पंख पसारे’, ‘समीर सहारे’, ‘नीड़ निज’, ‘बादल-बनते’, ‘भरती ढुलकाती’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘लघु सुरधनु से पंख पसारे’ में उपमा अलंकार है।
- ‘बनते जहां करुणा जल’, ‘हेम कुंभ ले उषा सवेरे’ में रूपक अलंकार है।
- ‘हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे। मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।’ में मानवीकरण अलंकार है।
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"कार्नेलिया का गीत"
(प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न :- कार्नेलिया का गीत कविता मैं प्रसाद ने भारत की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया है?
उत्तर :- कार्नेलिया का गीत कविता मैं प्रसाद ने भारत की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर संकेत किया है-
- यहाँ पर किसी अपरिचित और भटके व्यक्ति को भी सहारा दिया जाता है।
- पक्षी भी यहाँ आकार भारत को ही अपना घर मानने लगते हैं।
- यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत और अद्वितीय है।
- यहाँ के लोग दया, करुणा और सहानुभूति जैसी भावनाओं से भरे हुए हैं।
- भारत की संस्कृति महान है।
प्रश्न :- ‘उड़ते खग’ और ‘बरसाती आँखों के बादल’ से क्या विशेष अर्थ व्यंजित होता है?
उत्तर :-
‘उड़ते खग’ के माध्यम से प्रसाद बताना चाहते हैं कि पक्षी भी भारत को अपना घर मान कर इसकी ओर मुख करके उड़ते हैं। अर्थात यहाँ मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी को आश्रय मिलता है।
‘बरसाती आँखों के बादल’ में अर्थ व्यंजित होता है कि यहाँ के लोग अपरिचित और भटके हुए लोगों को भी अपने घर में सहारा देते हैं। इस देश के लोग अपने दुखों को भुला कर दूसरे के दुखी हृदय को होंसला देते हैं।
प्रश्न :- काव्य-सौंदर्य स्पष्ट करो
हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
उत्तर :-
भाव सौंदर्य-
जब रात भर के जागे हुए तारे प्रातः होने पर मस्ती में ऊँघते दिखाई देते हैं तब उषा रूपी स्त्री सूर्य रूपी सुनहरे घड़े में सुख और शांति भरकर भारतवर्ष पर लुढ़का देती है। अर्थात प्रातः होने पर भारतवासी सुखी, समृद्ध और खुशहाल दिखाई देते हैं।
शिल्प सौंदर्य-
- उषा तथा तारे का मानवीकरण करने के कारण मानवीय अंलकार है।
- काव्यांश में गेयता का गुण विद्यमान है। अर्थात इसे गाया जा सकता है।
- प्रातः कालीन वातावरण का सजीव चित्रण है।
- तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग है।
- कविता में संगीतात्मकता है।
- दृश्य बिम्ब का प्रयोग है।
- शांत रस का प्रयोग है।
- छंद मुक्त और तुकांत है।
- जब-जगकर में अनुप्रास अलंकार है।
- हेम कुंभ में रूपक अलंकार है।
प्रश्न :- ‘जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’- पंक्ति का आशय स्पष्ट करो।
उत्तर :- भारतवर्ष ऐसा देश है जहाँ अनजान और भटके हुए लोगों को भी सहारा मिल जाता है। भरतवासी सम्पूर्ण विश्व को ही अपना परिवार और सभी लोगों को कुटुंब के सदस्य मानते है। इसी कारण भारत देश सबको अपनाने और सबका दुख व संवेदना समझने वाला देश है। इतिहास साक्षी है कि भारत ने अनेक देशों से आये विभिन्न जाति व धर्मों के लोगों को यहाँ शरण दी है। सभी यहाँ की संस्कृति में इस प्रकार रच बस गए हैं कि उनकी भिन्नता का अहसास ही नहीं होता।
प्रश्न :- कविता में व्यक्त प्रकृति चित्रों को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :- सूर्य की लालिमा से युक्त यह भारत देश मिठास से भरा हुआ है। इस देश में सूर्य उदय का दृश्य अत्यंत आकर्षक और मनोहारी है। सूर्य उदय के समय कमल खिलकर तालाबों में अपनी छटा बिखेर देते हैं। सूर्य की किरने उन कमलों पर नाचती हुई प्रतीत होती हैं। यहाँ का सारा जीवन सुंदर, सरस और मनोहारी लगता है। भारत की हरियाली से युक्त भूमि पर चारों ओर मांगलिक कुमकुम भिखरा हुआ दिखाई देता है। प्रातःकाल में शीतल, सुगंधित मलय पर्वत की ओर से आने वाले समीर का सहारा लेकर उड़ने वाले पक्षी इंद्र्धनुष के समान आकर्षक दिखाई देते हैं। विशाल समुद्र की लहरें भी भारत का किनारा पाकर शांत हो जाती हैं अर्थात समुद्र की लेहरों को भी भारत देश पहुँचकर विश्राम मिलता है। जब रात भर के जागे हुए तारे प्रातः होने पर ऊँघते दिखाई देते हैं तब उषा सूर्य रूपी घड़े में सुख और शांति भरकर भारतवर्ष पर लुढ़का देती है।
टेस्ट/क्विज
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nice explanation its very helpfull to us
thanks bhai 🤘🔥
Good 👍
Test