कक्षा 12 » पद – विद्यापति

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विद्यापति के "पद" 
(व्याख्या)

के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।
हिए नहि सहए असह दुख रे भेल साओन मास।।
एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए।।
मोर मन हरि हर लए गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तेजि मधुपुर बस रे कन अपजस लेल।।
विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरु मन आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।।

शब्दार्थ

के – कौन। पतिआ – पत्र, चिट््ठी। सइए – सहना। एक सरि – अकेली। पतिआए – विश्वास करे। अपजस – अपयश। हरि – कृष्ण।

संदर्भ-

प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग-2 में संकलित विद्यापति के पद से उद्धृत हैं। यह पद विद्यापति पदावली से लिया गया है।

प्रसंग –

इस पद में विद्यापति ने सावन मास में विरहिणी नायिका की विरह दशा को व्यक्त किया है।

व्याख्या –

नायिका कहती है कि हे सखी! मेरे प्रियतम के पास कौन मेरा पत्र लेकर जाएगा। ऐसा कोई नहीं है जो मेरे पत्र को मेरे प्रियतम कृष्ण तक पहुँचा दे। सावन का महीना आ गया, इस माह में मेरा हृदय विरह का असह्य दुख नहीं सह सकता। प्रियतम के बिना सूने घर में मुझसे अकेली रहा नहीं जाता। हे सखी, मेरे इस कठोर दुख को संसार में कौन समझ सकता है? अर्थात् मैं ही जानती हँू ये विरह मुझे किस प्रकार कष्ट दे रहा है। मेरे दुख की गहराई को कोई दूसरा नहीं समझ सकता। मेरे मन को हरि (श्रीकृष्ण) हरकर ले गए और उनका अपना मन भी उनके साथ चला गया अर्थात् अब उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं रहा। श्रीकृष्ण अब गोकुल को छोड़कर मथुरा में बस गए हैं और अब लौटने का नाम नहीं ले रहे हैं। इस प्रकार उन्हाेंने कितना ही अपयश ले लिया है। उनकी बदनामी हो रही है। विद्यापति कहते हैं – हे सुंदरी (राधा)! तुम अपने मन में प्रिय के आने की आशा रखो। तुम्हारे मन को भाने वाले इसी कार्तिक माह में आ जाएँगे।

काव्य-सौंदर्य –

  1. विरहिणी नायिका (राधा) के विरह का मार्मिक वर्णन है।
  2. वियोग शृंगार रस है।
  3. मैथिली भाषा है।
  4. ‘पिअतम पास’, ‘मोर मन’, ‘धनि धरु’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. ‘हरि हर’ में यमक अलंकार है।
  6. तुकांत कविता है।

सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।
सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल तिल नूतन होए।।
जनम अबधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।।
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।
कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि न बूझल कइसन केलि।।
लाख लाख जुग हिअ हिअ राखल तइओ हिअ जरनि न गेल।।
कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु न पेख।।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे न मीलल एक।।

शब्दार्थ

पिरित – प्रीत। निहारल – देखा। भेल – हुए। स्रवनहि – कानों में। कत – कितनी। रमस – रमण। कइसन – कैसा। जरनि – जलन। अनुमोदए – अनुमोदन। जुडाइते – जुड़ाने के लिए। कानन – वन। झाँपइ – बंदकर दे। गुनि-गुनि – सोच सोचकर। कुसुमित – प्रफुल्लित। लए जाएत – ले जाए। मोरा–जाय – मुझ से रहा नहीं जाता। साओन मास – सावन का महीना। अनकर – अन्यतम। दारुण – कठोर। मधुपुर – मथुरा। मनभावन – मन को भाने वाला। बखानिअ – बखानकरना। तिरपित – तृप्त, संतुष्ट। सेहो – वही। स्रुति – श्रुति। मधु जामिनि – मधुर रात्रियाँ। गमाओलि – गवाँ दी, गुजार दी, बिता दी। केलि – मिलन का आनन्द। विदग्ध – विदगध, दुखी। पेख – देख।

संदर्भ-

प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग-2 में संकलित विद्यापति के पद से उद्धृत हैं। यह पद विद्यापति पदावली से लिया गया है।

प्रसंग

इस पद में मुग्धा नायिका अपनी सखी को प्रेम के अनुभवों के विषय में बता रही है।

व्याख्या –

नायिका (राधा) अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! मुझसे काम-क्रीड़ा के अनुभवों को क्या पूछती हो? मैं उन अनुभवों के आनंद का वर्णन नहीं कर सकती। मैं जितना उन प्रणय के क्षणों को बखान करती हँू, वो क्षण-क्षण नया होता जाता है। इसे ही प्रीति और अनुराग कहना चाहिए। अर्थात् प्रेम अनुभव की क्रिया है, वर्णन करने की नहीं। इसका वर्णन संभव नहीं है। इसे केवल महसूस किया जा सकता है। मैं जन्मभर प्रिय का रूप निहारती रही परंतु मेरी आँखें मेरे प्रियतम के रूप-सौंदर्य से तृप्त नहीं हुईं। अर्थात् सच्चे प्रेम कभी तृप्त नहीं होता। यही वास्तविक प्रेम होता है। उनकी मधुर वाणी को कानों से सुनती रहीं, किंतु कान तृप्त नहीं होते। बसंत की कितनी रातें मैंने काम-क्रीड़ा में बिता दीं, फिर भी यह नहीं जान पाई कि काम-क्रीड़ा कैसी होती है? अर्थात् जब मैं ही उन रातों के अनुभव को नहीं समझ पाई तो मैं तुम्हें कैसे बता दूँ। लाख-लाख उपायों से उनके हृदय को अपने हृदय में संजोए रखा, फिर भी मेरे हृदय की ज्वाला शांत नहीं हुई। हे सखी! मेरी बात क्या करती हो, न जाने कितने रसिकों ने प्रेम का उपभोग किया है किंतु इसका संपूर्ण अनुभव किसी को नहीं हुआ। विद्यापति कवि कहते हैं कि लाखों में एक भी रसिक ऐसा नहीं मिला जो इस प्रेम के अनुभव का बखान कर सके।

विशेष

  1. प्रेम का उदात्त रूप है।
  2. वियोग शृंगार रस है।
  3. मैथिली भाषा का प्रयोग है।
  4. ‘निहारल नयन न’, ‘स्रवनहि सूनल स्रति’, ‘अनुमोदए अनुभव’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. ‘सखि की-मोय’ ‘कह प्रान—-एक’ में अतिशयोक्ति अलंकार है।
  6. ‘तिल-तिल’ तथा ‘लाख-लाख’ ‘हिअ हिअ’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  7. ‘सेहो मधु —- न भेल’, ‘लाख-गेल’ में विशेषोक्ति तथा विरोधाभास अलंकार है।
  8. तुकांत कविता है।

कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि,
मूदि रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि,
कर देइ झाँपइ कान।।
माधब, सुन-सुन बचन हमारा।
तुअ गुन सुंदरि अति भेल दूबरि-
गुनि-गुनि प्रेम तोहारा।।
धरनी धरि धनि कत बेरि बइसइ,
पुनि तहि उठइ न पारा।
कातर दिठि करि, चौदिस हेरि-हेरि
नयन गरए जल-धारा।।
तोहर बिरह दिन छन-छन तनु छिन-
चौदसि-चाँद-समान।
भनइ विद्यापति सिबसिह नर-पति
लखिमादेइ-रमान।।

शब्दार्थ

कमलमुखी – कमल के समान मुख वाले। नयान – नयन, नेत्र। धरनि – धरणी, धरती। धनि-स्त्री। धारि – धर कर, पकड़कर। कातर – दुखी। दिठि – दृष्टि। हेरि – देख, रही है। बइसइ – बैठ जाती है। चौदसि – चतुर्दशी। गरए – गिरना। जलधारा – अश्रुधारा। रमान – रमण। कलरब – शब्द। धुनि – ध्वनि। कातर – दैन्यपूर्ण। दिन – दीन। बेरि – कठिनाई। तोहारा – तुम्हारे।

संदर्भ

प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग-2 में संकलित विद्यापति के पद से उद्धृत हैं। यह पद विद्यापति पदावली से लिया गया है।

प्रसंग –

इस पद में नायिका की विरह दशा को व्यक्त किया है। नायिका दिन-प्रतिदिन दुबली होती जा रही है।

व्याख्या-

राधा की सहेली कृष्ण के सम्मुख राधा की विरह दशा का वर्णन को कर रही है। वह कहती है कि हे कृष्ण! वह कमलमुखी राधा खिले हुए फूलों के बगीचे को देखकर अपनी आँखों को मूंद लेती है। वह कोयल तथा भौंरों की झंकार सुनकर हाथों से कान बंद कर लेती है। अर्थात् मिलन की बेला में जो साधन प्रेमिका के लिए सुखकारी होते हैं, आज विरह में वे कष्टदायक बन गए हैं। हे कृष्ण! तुम मेरी बात सुनो। तुम्हारे गुणों तथा प्रेम को याद कर-करके वह सुंदरी राधा अत्यंत दुर्बल हो गई है। वह इतनी दुर्बल हो गई है कि पृथ्वी को पकड़कर वह बड़ी कठिनाई से बैठ तो जाती है, किंतु दुर्बलता के कारण चेष्टा करने पर भी वह वहाँ से उठ नहीं सकती। वह दैन्यपूर्ण दृष्टि से चारों ओर तुम्हें खोजती है तथा जब वह तुम्हें कहीं नहीं पाती तो उसके नेत्रें से लगातार अश्रु बहते रहते हैं। तुम्हारे विरह में राधा इतनी दुर्बल होती जा रही है जैसे कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का चंद्रमा प्रतिक्षण घटता रहता है। कवि विद्यापति कहते हैं कि लखिमा देवी के पति राजा शिवसिंह विरह इस रहस्य या कष्ट को जानते हैं। इसलिए वे अपनी पत्नी के साथ रमण करते हैं।

विशेष-

  1. प्रोषितपतिका नायिका का वर्णन है।
  2. वियोग शंृगार रस है।
  3. मैथिली भाषा है।
  4. ‘कुसुमित कानन’, ‘कोकिल-कलरव’, ‘धरनी धरि धनि’, ‘चौदसि-चाँद’ में अनुप्रास अलंकार है।
  5. ‘कमलमुख’ में उपमा अलंकार है।
  6. ‘गुनसुंदरि’ में परिकर।
  7. ‘हेरि-हेरि’ में वीप्सा अलंकार है।
  8. ‘गुनि-गुनि’, ‘सुन-सुन’, ‘छन-छन’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  9. पूरे पद में अतिशयोक्ति अलंकार है।

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विद्यापति के "पद"
(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न- प्रियतमा के दुख के क्या कारण हैं?

उत्तर – कवि ने प्रियतमा के देख के कई कारण बताए हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  1. प्रियतम के पास उसका पत्र ले जाने वाला कोई नहीं है।
  2. वह सूने घर में अकेली रह गई है।
  3. श्रीकृष्ण उसका मन हरकर चले गए। अब उसको याद नहीं करते।
  4. श्रीकृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा चले गए। वहाँ से वापिस नहीं आते।

प्रश्न- कवि ‘नयन न तिरपित भेल’ के माध्यम से विरहिणी नायिका की किस मनोदशा को व्यक्त करना चाहता है?

उत्तर – कवि कहता है कि नायिका कृष्ण से अति प्रेम करती है। मैं जन्मभर प्रिय का रूप निहारती रही परंतु मेरी आँखें मेरे प्रियतम के रूप-सौंदर्य से तृप्त नहीं हुईं। अर्थात् सच्चे प्रेम कभी तृप्त नहीं होता। यही वास्तविक प्रेम होता है।

प्रश्न- नायिका के प्राण तृप्त न हो पाने का कारण अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – नायिका (राधा) कृष्ण के रूप को जन्मभर निहारती रही। वह उनके प्रिय शब्दों को कानों से सुनती रही, परंतु उसके कान तृप्त नहीं हो सके। लाख-लाख उपायों से उनके हृदय को अपने हृदय में संजोए रखा, फिर भी मेरे हृदय की ज्वाला शांत नहीं हुई। न जाने कितने रसिकों ने प्रेम का उपभोग किया है किंतु इसका संपूर्ण अनुभव किसी को नहीं हुआ। विद्यापति कवि कहते हैं कि लाखों में एक भी रसिक ऐसा नहीं मिला जो इस प्रेम के अनुभव का बखान कर सके।

प्रश्न- ‘सेह पिरित अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए’ से लेखक का क्या आशय है?

उत्तर – नायिका (राधा) अपनी सखी से कहती है कि हे सखी! मुझसे काम-क्रीड़ा के अनुभवों को क्या पूछती हो? मैं उन अनुभवों के आनंद का वर्णन नहीं कर सकती। मैं जितना उन प्रणय के क्षणों को बखान करती हँू, वो क्षण-क्षण नया होता जाता है। इसे ही प्रीति और अनुराग कहना चाहिए। अर्थात् प्रेम अनुभव की क्रिया है, वर्णन करने की नहीं। इसका वर्णन संभव नहीं है। इसे केवल महसूस किया जा सकता है।
कवि का आशय है कि जिस प्रेम में नयापन न हो, केवल पुरानी यादें ही शेष रहे तो वह प्रेम नहीं होता। प्रेम वही होता है जो हर वक्त, हर समय नया लगे। ठहराव प्रेम की परिचायक नहीं है।

प्रश्न – कोयल और भौरों के कलरव का नायिका पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर – कोयल और भौंरों का कलरव रसिकों को प्रसन्न करता है, लेकिन नायिका उनका कलरव सुनकर उदास हो जाती है। वह अपने हाथों से कान बंद कर लेती है क्योंकि कोयल और भौरों की आवाज सुनकर उसे प्रियतम के साथ बिताए पलों की याद आ जाती है। वह विरह से तड़पने लगती हैै।

प्रश्न – कातर-दृष्टि से चारों तरफ प्रियतम को ढूँढने की मनोदशा को कवि ने किन शब्दों में व्यक्त किया है?

उत्तर – वह इतनी दुर्बल हो गई है कि पृथ्वी को पकड़कर वह बड़ी कठिनाई से बैठ तो जाती है, किंतु दुर्बलता के कारण चेष्टा करने पर भी वह वहाँ से उठ नहीं सकती। वह दैन्यपूर्ण दृष्टि से चारों ओर तुम्हें खोजती है तथा जब वह तुम्हें कहीं नहीं पाती तो उसके नेत्रें से लगातार अश्रु बहते रहते हैं। तुम्हारे विरह में राधा इतनी दुर्बल होती जा रही है जैसे कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का चंद्रमा प्रतिक्षण घटता रहता है।

प्रश्न – निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए-

उत्तर –

तिरपित – तृप्त
छन – क्षण
बिदगध – विदग्ध
निहारल – निहारना
पिरित – प्रीति
साओन – श्रावन
अपजस – अपयश
छिन – क्षीण
तोहारा – तुम्हारा
कातिक – कार्तिक

8- निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए।
सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए।।

उत्तर – प्रियतम के बिना सूने घर में मुझसे अकेली रहा नहीं जाता। हे सखी, मेरे इस कठोर दुख को संसार में कौन समझ सकता है? अर्थात् मैं ही जानती हँू ये विरह मुझे किस प्रकार कष्ट दे रहा है। मेरे दुख की गहराई को कोई दूसरा नहीं समझ सकता।

(ख) जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।।
सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।।

उत्तर – मैं जन्मभर प्रिय का रूप निहारती रही परंतु मेरी आँखें मेरे प्रियतम के रूप-सौंदर्य से तृप्त नहीं हुईं। अर्थात् सच्चे प्रेम कभी तृप्त नहीं होता। यही वास्तविक प्रेम होता है। उनकी मधुर वाणी को कानों से सुनती रहीं, किंतु कान तृप्त नहीं होते।

(ग) कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान।
कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान।।

उत्तर – राधा की सहेली कृष्ण के सम्मुख राधा की विरह दशा का वर्णन को कर रही है। वह कहती है कि हे कृष्ण! वह कमलमुखी राधा खिले हुए फूलों के बगीचे को देखकर अपनी आँखों को मूंद लेती है। वह कोयल तथा भौंरों की झंकार सुनकर हाथों से कान बंद कर लेती है। अर्थात् मिलन की बेला में जो साधन प्रेमिका के लिए सुखकारी होते हैं, आज विरह में वे कष्टदायक बन गए हैं।


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