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"प्रेमघन की छाया-स्मृति"
(पाठ का सार)
लेखक के पिताजी फारसी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उनको हिंदी की पुरानी कविताओं से अत्यधिक प्रेम था। लेखक के पिताजी फारसी की उक्तियों को हिंदी की उक्तियों से मिलाया करते थे। वे रात को घर के सदस्यों को इकट्ठा करके रामचरितमानस और रामचंद्रिका का पाठ करते थे। उन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक भी पसंद थे और कभी-कभी उनके नाटक भी सुनाया करते थे। पिताजी को भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक अत्यधिक पसंद थे। वे परिवार के सदस्यों को इकट्ठा करके भारतेंदु के नाटक सुनाया करते थे। जिससे लेखक कवि हरिश्चंद्र और सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र दोनों को एक ही समझता था। उनमें अन्तर नहीं कर पाता था। भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रति लेखक के मन में श्रद्धा का भाव और मधुर भावना जगी रहती थी।
लेखक के पिताजी का तबादला मिर्जापुर में हो गया था। वहाँ पहुँचकर लेखक को पता चला कि उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन भी उसी शहर में रहते हैं। लेखक को उसने मिलने की उत्कंठा हुई। चौधरी प्रेमघन का घर जानने वाले बालकों के साथ मिलकर लेखक ने एक मंडली बनाई। मंडली डेढ़ मील का रास्ता तय कर बड़े-से मकान के पास पहुँच गई। लेखक को वहाँ बरामदे में खंभे के साथ हाथ टिकाकर खड़े चौधरी प्रेमघन दिखाई दिये। उनके दोनों कंधो पर बाल बिखरे हुए थे। वे मूर्तिमान होकर वहाँ खड़े थे। इस प्रकार लेखक को उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन की प्रथम झलक मिली।
लेखक के पिताजी की बदली मिर्जापुर में हो गई थी। उन्हीं दिनों पं- केदारनाथ जी पाठक ने एक हिदी पुस्तकालय खोला था। लेखक वहाँ से पुस्तकें ला-लाकर पढ़ा करता। एक बार एक आदमी साथ करके लेखक के पिता जी ने उनको एक बारात में काशी भेजा। वह उसी समय घूमता-फिरता चौखंभा की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से पं- केदारनाथ जी पाठक निकलते दिखाई पड़े। पुस्तकालय में वे लेखक को प्रायः देखा करते थे। देखते ही वे वहीं खड़े हो गए। बात ही बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से वे निकले थे, वह भारतेंदु जी का घर था। लेखक बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से कुछ देर तक उस मकान की ओर न जाने किन-किन भावनाओं में लीन होकर देखता रहा। पाठक जी लेखक की यह भावुकता देख बड़े प्रसन्न हुए और बहुत दूर मेरे साथ बातचीत करते हुए गए। भारतेंदु जी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया। अर्थात वे दोनों मित्र बन गए। इसके बाद लेखक की हिन्दी प्रेमी मित्र मंडली बननी शुरू हो गई।
16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिदी-प्रेमियों की एक खासी मंडली लेखक को मिल गई, जिनमें श्रीयुत् काशीप्रसाद जी जायसवाल, बा- भगवानदास जी हालना, पं- बदरीनाथ गौंड़, पंउमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। हिन्दी के नए पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी। लेखक भी तब तक अपने को लेखक मानने लगा था। उन लोगों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिदी में हुआ करती, जिसमें ‘निस्संदेह’ इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर लेखक रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तारों तथा कचहरी के अफसरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू कानों में उन लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने लेखक की मंडली का नाम ‘निस्संदेह’ लोग रख छोड़ा था।
लेखक के मोहल्ले में एक मुसलमान सब-जज आए थे। एक दिन लेखक के पिता जी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच लेखक उधर जा निकला। पिता जी ने लेखक परिचय देते हुए उनसे कहा-“इन्हें हिदी का बड़ा शौक है।” चट जवाब मिला- “आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ़’ हो गया।”
मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम था- वामनाचार्यगिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खडे़ दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, जिसका अंतिम अंश था-“खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।”
एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे कि इतने में एक पंडित जी आ गए। चौधरी साहब ने पूछा। “कहिए क्या हाल है?” पंडित जी बोले-“कुछ नहीं, आज एकादशी थी, कुछ जल खाया है और चले आ रहे हैं।य् प्रश्न हुआ-फ्जल ही खाया है कि कुछ फलाहार भी पिया है?”
एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ-“क्यों साहब, एक लफ़्ज़ मैं अकसर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया। आखिर घनचक्कर के क्या मानी है। उसके क्या लक्षण हैं?” पड़ोसी महाशय बोले-“वाह! यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले कागज कलम लेकर सवेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।”
चौधरी साहब एक खासे हिदुस्तानी रईस थे। वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे। उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा सा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है। उनकी बातों में एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह गिरा तो उनके मुँह से यही निकला कि “कारे बचा त नाहीं”। उनके प्रश्नों के पहिले ‘क्यों साहब’ अकसर लगा रहता था। वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे, इससे उनसे मिलनेवाले लोग भी उन्हें बनाने की फिक्र में रहा करते थे।
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"प्रेमघन की छाया-स्मृति" (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – लेखक ने अपने पिताजी की किन-किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर – लेखक ने अपने पिताजी निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया है-
- लेखक के पिताजी फारसी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे।
- उनको हिंदी की पुरानी कविताओं से अत्यधिक प्रेम था।
- लेखक के पिताजी फारसी की उक्तियों को हिंदी की उक्तियों से मिलाया करते थे।
- वे रात को घर के सदस्यों को इकट्ठा करके रामचरितमानस और रामचंद्रिका का पाठ करते थे।
- उन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक भी पसंद थे और कभी-कभी उनके नाटक भी सुनाया करते थे।
प्रश्न – बचपन में लेखक के मन में भारतेंदु जी के प्रति कैसी भावना जगी रहती थी?
उत्तर – लेखक के पिताजी को भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक अत्यधिक पसंद थे। वे परिवार के सदस्यों को इकट्ठा करके भारतेंदु के नाटक सुनाया करते थे। जिससे लेखक कवि हरिश्चंद्र और सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र दोनों को एक ही समझता था। उनमें अन्तर नहीं कर पाता था। भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रति लेखक के मन में श्रद्धा का भाव और मधुर भावना जगी रहती थी।
प्रश्न – उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन की पहली झलक लेखक ने किस प्रकार देखी?
उत्तर – लेखक के पिताजी का तबादला मिर्जापुर में हो गया था। वहाँ पहुँचकर लेखक को पता चला कि उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन भी उसी शहर में रहते हैं। लेखक को उसने मिलने की उत्कंठा हुई। चौधरी प्रेमघन का घर जानने वाले बालकों के साथ मिलकर लेखक ने एक मंडली बनाई। मंडली डेढ़ मील का रास्ता तय कर बड़े-से मकान के पास पहुँच गई। लेखक को वहाँ बरामदे में खंभे के साथ हाथ टिकाकर खड़े चौधरी प्रेमघन दिखाई दिये। उनके दोनों कंधो पर बाल बिखरे हुए थे। वे मूर्तिमान होकर वहाँ खड़े थे। इस प्रकार लेखक को उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन की प्रथम झलक मिली।
प्रश्न – लेखक का हिन्दी साहित्य के प्रति झुकाव किस तरह बढ़ता गया?
उत्तर – लेखक के पिताजी को हिंदी की पुरानी कविताओं से अत्यधिक प्रेम था। वे रात को घर के सदस्यों को इकट्ठा करके रामचरितमानस और रामचंद्रिका का पाठ करते थे। उन्हें भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक भी पसंद थे और कभी-कभी उनके नाटक भी सुनाया करते थे। उसके पिताजी जीवन प्रेस की पुस्तकें लाकर पढ़ते थे। बचपन से ही लेखक को साहित्यिक वातावरण मिला। बाद में लेखक के पिताजी की बदली मिर्जापुर होने के बाद लेखक पंडित केदारनाथ पाठक के पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ने लगा। इस प्रकार लेखक का झुकाव हिन्दी साहित्य के प्रति बढ़ता गया।
प्रश्न – ‘निस्संदेह’ शब्द को लेकर लेखक ने किस प्रसंग का जिक्र किया है?
उत्तर –16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिदी-प्रेमियों की एक खासी मंडली लेखक को मिल गई, जिनमें श्रीयुत् काशीप्रसाद जी जायसवाल, बा- भगवानदास जी हालना, पं- बदरीनाथ गौंड़, पंउमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे। हिन्दी के नए पुराने लेखकों की चर्चा बराबर इस मंडली में रहा करती थी। लेखक भी तब तक अपने को लेखक मानने लगा था। उन लोगों की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिदी में हुआ करती, जिसमें ‘निस्संदेह’ इत्यादि शब्द आया करते थे। जिस स्थान पर लेखक रहता था, वहाँ अधिकतर वकील, मुख्तारों तथा कचहरी के अफसरों और अमलों की बस्ती थी। ऐसे लोगों के उर्दू कानों में उन लोगों की बोली कुछ अनोखी लगती थी। इसी से उन्होंने लेखक की मंडली का नाम ‘निस्संदेह’ लोग रख छोड़ा था।
प्रश्न – पाठ में कुछ रोचक घटनाओं का उल्लेख है। ऐसी तीन घटनाएँ चुनकर उन्हें अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर –
- एक दिन मेरे पिता जी खड़े-खड़े उनके साथ कुछ बातचीत कर रहे थे। इसी बीच मैं उधर जा निकला। पिता जी ने मेरा परिचय देते हुए उनसे कहा-फ्इन्हें हिदी का बड़ा शौक है। ” चट जवाब मिला- “आपको बताने की जरूरत नहीं। मैं तो इनकी सूरत देखते ही इस बात से ‘वाकिफ़’ हो गया।”
- मिर्जापुर में पुरानी परिपाटी के एक बहुत ही प्रतिभाशाली कवि रहते थे, जिनका नाम था- वामनाचार्यगिरि। एक दिन वे सड़क पर चौधरी साहब के ऊपर एक कविता जोड़ते चले जा रहे थे। अंतिम चरण रह गया था कि चौधरी साहब अपने बरामदे में कंधों पर बाल छिटकाए खंभे के सहारे खडे़ दिखाई पड़े। चट कवित्त पूरा हो गया और वामनजी ने नीचे से वह कवित्त ललकारा, जिसका अंतिम अंश था-“खंभा टेकि खड़ी जैसे नारि मुगलाने की।”
- एक दिन कई लोग बैठे बातचीत कर रहे थे कि इतने में एक पंडित जी आ गए। चौधरी साहब ने पूछा। “कहिए क्या हाल है?” पंडित जी बोले-“कुछ नहीं, आज एकादशी थी, कुछ जल खाया है और चले आ रहे हैं।” प्रश्न हुआ-“फल ही खाया है कि कुछ फलाहार भी पिया है?”
- एक दिन चौधरी साहब के एक पड़ोसी उनके यहाँ पहुँचे। देखते ही सवाल हुआ-“क्यों साहब,
एक लफ़्ज़ मैं अकसर सुना करता हूँ, पर उसका ठीक अर्थ समझ में न आया। आखिर घनचक्कर के क्या मानी है। उसके क्या लक्षण हैं?” पड़ोसी महाशय बोले-“वाह! यह क्या मुश्किल बात है। एक दिन रात को सोने के पहले कागज कलम लेकर सवेरे से रात तक जो-जो काम किए हों, सब लिख जाइए और पढ़ जाइए।”
प्रश्न- “इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का अद्भुत मिश्रण रहता था।” यह कथन किसके संदर्भ में कहा गया है और क्यों? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – “इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का अद्भुत मिश्रण रहता था।” यह कथन चौधरी प्रेमघन के संदर्भ में कहा गया है, क्योंकि प्रेमघन की आयु लेखक की मंडली से बहुत अधिक थी। लेखक की मंडली के लोग प्रेमघन को पुरानी चीज समझते थे और उनके बारे में जानने के उत्सुक रहते थे। प्रेमघन को लेकर उन लोगों में कोतूहल बना रहता था।
प्रश्न- प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के निम्न पहलुओं को उजागर किया है?
उत्तर – प्रस्तुत संस्मरण में लेखक ने चौधरी साहब के व्यक्तित्व के किन-किन पहलुओं को उजागर किया है-
- चौधरी साहब एक खासे हिदुस्तानी रईस थे। वसंत पंचमी, होली इत्यादि अवसरों पर उनके यहाँ खूब नाचरंग और उत्सव हुआ करते थे।
- उनकी हर एक अदा से रियासत और तबीयतदारी टपकती थी। कंधों तक बाल लटक रहे हैं। आप इधर से उधर टहल रहे हैं। एक छोटा सा लड़का पान की तश्तरी लिए पीछे-पीछे लगा हुआ है।
- उनकी बातों में एक विलक्षण वक्रता रहती थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से एकदम निराला होता था। नौकरों तक के साथ उनका संवाद सुनने लायक होता था। अगर किसी नौकर के हाथ से कभी कोई गिलास वगैरह गिरा तो उनके मुँह से यही निकला कि “कारे बचा त नाहीं”।
- उनके प्रश्नों के पहिले ‘क्यों साहब’ अकसर लगा रहता था।
- वे लोगों को प्रायः बनाया करते थे, इससे उनसे मिलनेवाले लोग भी उन्हें बनाने की फिक्र में रहा करते थे।
प्रश्न- समवयस्क हिदी प्रेमियों की मंडली में कौन-कौन से लेखक मुख्य थे?
उत्तर- 16 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते तो समवयस्क हिदी-प्रेमियों की एक खासी मंडली लेखक को मिल गई, जिनमें श्रीयुत् काशीप्रसाद जी जायसवाल, बा- भगवानदास जी हालना, पं- बदरीनाथ गौंड़, पंउमाशंकर द्विवेदी मुख्य थे।
प्रश्न- ‘भारतेंदु जी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्री में परिणत हो
गया।’ कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- लेखक के पिताजी की बदली मिर्जापुर में हो गई थी। उन्हीं दिनों पं- केदारनाथ जी पाठक ने एक हिदी पुस्तकालय खोला था। लेखक वहाँ से पुस्तकें ला-लाकर पढ़ा करता। एक बार एक आदमी साथ करके लेखक के पिता जी ने उनको एक बारात में काशी भेजा। वह उसी समय घूमता-फिरता चौखंभा की ओर जा निकला। वहीं पर एक घर में से पं- केदारनाथ जी पाठक निकलते दिखाई पड़े। पुस्तकालय में वे लेखक को प्रायः देखा करते थे। देखते ही वे वहीं खड़े हो गए। बात ही बात में मालूम हुआ कि जिस मकान में से वे निकले थे, वह भारतेंदु जी का घर था। लेखक बड़ी चाह और कुतूहल की दृष्टि से कुछ देर तक उस मकान की ओर न जाने किन-किन भावनाओं में लीन होकर देखता रहा। पाठक जी लेखक की यह भावुकता देख बड़े प्रसन्न हुए और बहुत दूर मेरे साथ बातचीत करते हुए गए। भारतेंदु जी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्री में परिणत हो गया। अर्थात वे दोनों मित्र बन गए। इसके बाद लेखक की हिन्दी प्रेमी मित्र मंडली बननी शुरू हो गई।
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