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"बनारस"
(कविता की व्याख्या)
इस शहर में वसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
शब्दार्थ :-
लहरतारा या मडुवाडीह – बनारस के मोहल्लों के नाम । बवंडर – अंधड़, आँधी । सुगबुगाना – जागरण, जागने की क्रिया। पचखियाँ – अंकुरण । निचाट – बिलकुल, एकदम । दशाश्वमेध – बनारस के एक घाट का नाम जहाँ पूजा, स्नान आदि होता है।
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित कविता बनारस से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता प्रयोगवादी कविता के कवि केदारनाथ सिंह हैं।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में केदारनाथ सिंह बसंत के समय में बनारस के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का सजीव चित्रण करते हैं।
व्याख्या :-
कवि कहते हैं कि बनारस शहर में बंसत ऋतु का आगमन अचानक से होता है। जैसे ही वसंत ऋतु आती है वैसे ही कवि महसूस करता है कि वहाँ के मोहल्ले लहरतारा या मडुवाडीह की ओर से धूल एक बवंडर उठकर सारे शहर में धूल ही धूल कर देता है जिससे इस महान व प्राचीन शहर की जीभ किरकिराने लगती है। अर्थात् सारे बनारस शहर में धूल भरा वातावरण रहने लगता है। बसंत ऋतु के आगमन पर जो सजीव व्यक्ति है उसके मन में सुगबुगाहट होने लगती है। उसमें जीवंतता आने लगती है और चेतना का संचार हो जाता है। जो चेतना से रहित है उसमें भी अंकुरण होने का आभास होने लगता है। वसंत के आगमन पर पूरा वातावरण उल्लास से भर उठता है। गंगा के दशाश्वमेध घाट पर लोगों के आना-जाना बढ़ जाता है जिससे घाट का अंतिम पत्थर भी मुलायम हो जाता है। घाट के मुलायम होते पत्थर की तहर लोगों के मन की कठोरता भी भक्ति से मुलायम होने लगती है। घाट पर बैठे बंदरों की आँखों में कवि को आशा की नमी दिखाई देती है। लोगों के आने-जाने से घाट पर बैठे भिखारियों के कटोरों का खालीपन भी कुछ दान-दक्षिणा पाने की उम्मीद से चमक उठता है।
विशेष :-
- ‘वसंत’ और ‘शहर’ का मानवीकरण किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
- जीभ किरकिराना मुहावरे का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- ‘बैठे बंदरों’ ‘अचानक आता’ में अनुप्रास अलंकार है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज-रोज एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ
इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित कविता बनारस से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता प्रयोगवादी कविता के कवि केदारनाथ सिंह हैं।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में केदारनाथ सिंह बसंत के समय में बनारस के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का सजीव चित्रण करते हैं।
व्याख्या :-
कवि कहते हैं कि यह शहर श्रद्धा, भक्ति और विरक्ति का मिश्रण है। कवि पूछता है कि क्या कभी आपने खाली कटोरों में वसंत का ऐसे उतरना देखा है, अर्थात् दशाश्वमेघ घाट पर जब लोगों का आना-जाना बढ़ता है तो भिखारियों के कटोरे भीख से भरने लगते हैं। वसंत में यह शहर इसी तहर धीरे-धीरे खुलता है और भीड़ इकट्ठी हो जाती है। रोज शाम को यह शहर ऐसे ही धीरे-धीरे खाली होने लगता है। यहाँ शवदाह करना पुण्य का कार्य माना जाता है। अतः यहाँ हर रोज बनारस की अँधेरी गलियों से सूर्य की रोशनी से चमकती हुई गंगा की ओर अनेकों शव जाते हैं।
यह शहर अपनी स्वाभाविक गति से चलता है। इस शहर में धूल भी धीरे-धीरे उड़ती है और लोग भी धीरे-धीरे चलते हैं। मंदिरों में लगे घंटे भी धीरे-धीरे बजते हैं। इस शहर में शाम का आगमन भी धीरे ही होता है।
विशेष :-
- ‘वसंत’ और ‘शहर’ का मानवीकरण किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
- ‘रोज-रोज’ ‘धीरे-धीरे’ में पुररुक्ति प्रकाश अलांकर का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बाँधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है
कि हिलता नहीं है कुछ भी
कि जो चीज जहाँ थी
वहीं पर रखी है
कि गंगा वहीं है
कि वहीं पर बँधी है नाव
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकड़ों बरस से
शब्दार्थ :-
दृढ़ता – मजबूती। खड़ाऊँ – लकड़ी से बनी चप्पल।
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित कविता बनारस से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता प्रयोगवादी कविता के कवि केदारनाथ सिंह हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में केदारनाथ सिंह बसंत के समय में बनारस के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का सजीव चित्रण करते हैं।
व्याख्या :-
कवि बनारस की श्रद्धा, भक्ति और विरक्ति के मिश्रण की ओर ध्यान दिलाते हुए यहाँ की धीमी जीवन-शैली के विषय में वर्णन करते है कि यह धीमापन यहाँ के समाज की सामूहिक लय में शामिल हो चुका है और इसने पूरे शहर को दृढ़ता से बाँध रखा है। यहाँ की जीवन-शैली ऐसी हो गई है कि यहाँ कुछ भी बदलता नहीं है, कुछ भी गिरता नहीं है, कुछ भी हिलता नहीं है। यहाँ की संस्कृति सैकड़ों वर्ष पुरानी होते हुए भी वैसी ही है। जो चीज सैंकड़ों वर्ष पहले जहाँ थी आज भी वहीं पर है, उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। पवित्र गंगा वहीं पर है, घाट पर बँधी हुई नावें भी वही पुरानी हैं। तुलसीदास की पवित्र खड़ाऊँ जहाँ की तहाँ रखी हुई हैं।
विशेष :-
- बनारस की सांस्कृतिक विरासत का वर्णन है।
- ‘धीरे-धीरे’ में पुररुक्ति प्रकाश अलांकर का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
कभी सई-साँझ
बिना किसी सूचना के
घुस जाओ इस शहर में
कभी आरती के आलोक में
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है
शब्दार्थ :-
सई-साँझ – शाम की शुरुआत। आलोक – उजाला।
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित कविता बनारस से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता प्रयोगवादी कविता के कवि केदारनाथ सिंह हैं।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में केदारनाथ सिंह बसंत के समय में बनारस के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का सजीव चित्रण करते हैं।
व्याख्या :-
कवि इन पंक्तियों में संध्या के समय बनारस की शोभा का वर्णत करते हुए कहता है कि यदि आप कभी शाम होते ही बिना किसी को सूचित किए बनारस आओगे तो उस समय हो रही आरती के प्रकाश में तुम शहर को अचानक से देखने पर पाओगे कि इस शहर की बनावट अद्भुत है। यह बनावट हमें अपनी ओर आकर्षित करती है। उस समय यह आधा जल में झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है। यहाँ के लोग पूजा-पाठ करते हुए दिखाई देते हैं। कुछ लोग फूलों को तैराते हुए तो कुछ शवों को विसर्जित या संस्कार करते हुए दिखाई देते हैं। यह शहर आधा डूबा-सा और शंख ध्वनि के द्वारा आरती करता दिखाई देता है। यदि आप ध्यानपूर्वक इस शहर को देखेंगे तो यह आधा होते हुए भी आधा नहीं लगेगा। इस शहर में परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम दिखाई देता है।
विशेष :-
- बनारस की सांस्कृतिक विरासत का वर्णन है।
- ‘सई-साँझ’ में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
जो है वह खड़ा है
बिना किसी स्तंभ के
जो नहीं है उसे थामे है
राख और रोशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तंभ
आग के स्तंभ
और पानी के स्तंभ
धुएँ के
खुशबू के
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ
किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टाँग पर खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टाँग से
बिलकुल बेखबर!
शब्दार्थ :-
स्तंभ – खंभा । अलक्षित – अज्ञात, न देखा हुआ । अर्घ्य – पूजा के 16 उपचारों में से एक (दूब, दूध, चावल आदि मिला हुआ जल, जो देवता के सामने श्रद्धापूर्वक चढ़ाया जाता है।)
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित कविता बनारस से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता प्रयोगवादी कविता के कवि केदारनाथ सिंह हैं।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में केदारनाथ सिंह बसंत के समय में बनारस के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश का सजीव चित्रण करते हैं।
व्याख्या :-
कवि बनारस की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए लिखता है कि इस शहर में सब को सहारा मिलता है। इस शहर में जो भी आता है वह अपनी आस्था से बँधा यहाँ आता है। उसे उसकी आस्था ने ही आश्रय दिया हुआ है। यहाँ गंगा की आरती के समय आरती के पात्र से उठने वाली ज्योति की लपटें और धुएँ से गंगा-जल मेें स्तंभ बन जाते हैं। चारों ओर आरती की सुगंध फैल जाती है। मनुष्यों के उठे हुए हाथ मानो कि न दिखाई देते हुए सूर्य को जलांजलि देते हुए प्रतीत होते हैं। सदियों से इस शहर में आस्था, श्रद्धा और भक्ति का यह आयोजन होता आ रहा है। यह शहर अपनी आस्था के सहारे अपने मन में मग्न है तथा इसे अन्य किसी की कोई चिंता नहीं है। इस शहर का आधा भाग अथात् कुछ लोग परंपरानुसार कार्य करने में लीन है और आधे आधुनिकता को भोग रहे हैं।
विशेष :-
- बनारस की सांस्कृतिक विरासत का वर्णन है।
- ‘ऊँचे-ऊँचे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
- मानवीकरण अलंकार है।
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"बनारस"
(प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न :- बनारस में बसंत का आगमन कैसे होता है आर उसका क्या प्रभाव शहर पर पड़ता है?
उत्तर :- कवि कहते हैं कि बनारस शहर में बंसत ऋतु का आगमन अचानक से होता है। जैसे ही वसंत ऋतु आती है वैसे ही कवि महसूस करता है कि वहाँ के मोहल्ले लहरतारा या मडुवाडीह की ओर से धूल एक बवंडर उठकर सारे शहर में धूल ही धूल कर देता है जिससे इस महान व प्राचीन शहर की जीभ किरकिराने लगती है। अर्थात् सारे बनारस शहर में धूल भरा वातावरण रहने लगता है। बसंत ऋतु के आगमन पर जो सजीव व्यक्ति है उसके मन में सुगबुगाहट होने लगती है। उसमें जीवंतता आने लगती है और चेतना का संचार हो जाता है। जो चेतना से रहित है उसमें भी अंकुरण होने का आभास होने लगता है। वसंत के आगमन पर पूरा वातावरण उल्लास से भर उठता है।
प्रश्न :- ‘खाली कटोरों में बसंत का उतरना’ से क्या आशय है?
उत्तर :- वसंत के आगमन पर पूरा वातावरण उल्लास से भर उठता है। गंगा के दशाश्वमेध घाट पर लोगों के आना-जाना बढ़ जाता है जिससे घाट का अंतिम पत्थर भी मुलायम हो जाता है। घाट के मुलायम होते पत्थर की तहर लोगों के मन की कठोरता भी भक्ति से मुलायम होने लगती है। घाट पर बैठे बंदरों की आँखों में कवि को आशा की नमी दिखाई देती है। लोगों के आने-जाने से घाट पर बैठे भिखारियों के कटोरों का खालीपन भी कुछ दान-दक्षिणा पाने की उम्मीद से चमक उठता है।
प्रश्न :- बनारस की पूर्णता और रिक्तता को कवि ने किस प्रकार दिखाया है?
उत्तर :- वसंत में यह शहर इसी तहर धीरे-धीरे खुलता है और भीड़ इकट्ठी हो जाती है। रोज शाम को यह शहर ऐसे ही धीरे-धीरे खाली होने लगता है। यहाँ शवदाह करना पुण्य का कार्य माना जाता है। अतः यहाँ हर रोज बनारस की अँधेरी गलियों से सूर्य की रोशनी से चमकती हुई गंगा की ओर अनेकों शव जाते हैं।
प्रश्न :- बनारस में धीरे-धीरे क्या होता है। ‘धीरे-धीरे’ से कवि इस शहर के बारे में क्या कहना चाहता है?
उत्तर :- कवि बताना चाहता है कि यह शहर अपनी स्वाभाविक गति से चलता है। इस शहर में धूल भी धीरे-धीरे उड़ती है और लोग भी धीरे-धीरे चलते हैं। मंदिरों में लगे घंटे भी धीरे-धीरे बजते हैं। इस शहर में शाम का आगमन भी धीरे ही होता है। कवि बनारस की श्रद्धा, भक्ति और विरक्ति के मिश्रण की ओर ध्यान दिलाते हुए यहाँ की धीमी जीवन-शैली के विषय में वर्णन करते है कि यह धीमापन यहाँ के समाज की सामूहिक लय में शामिल हो चुका है और इसने पूरे शहर को दृढ़ता से बाँध रखा है।
प्रश्न :- धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय में क्या-क्या बँधा है?
उत्तर :- कवि बनारस की श्रद्धा, भक्ति और विरक्ति के मिश्रण की ओर ध्यान दिलाते हुए यहाँ की धीमी जीवन-शैली के विषय में वर्णन करते है कि यह धीमापन यहाँ के समाज की सामूहिक लय में शामिल हो चुका है और इसने पूरे शहर को दृढ़ता से बाँध रखा है। यहाँ की जीवन-शैली ऐसी हो गई है कि यहाँ कुछ भी बदलता नहीं है, कुछ भी गिरता नहीं है, कुछ भी हिलता नहीं है। यहाँ की संस्कृति सैकड़ों वर्ष पुरानी होते हुए भी वैसी ही है। जो चीज सैंकड़ों वर्ष पहले जहाँ थी आज भी वहीं पर है, उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। पवित्र गंगा वहीं पर है, घाट पर बँधी हुई नावें भी वही पुरानी हैं। तुलसीदास की पवित्र खड़ाऊँ जहाँ की तहाँ रखी हुई हैं।
प्रश्न :- ‘सई साँझ’ में घुसने पर बनारस की किन-किन विशेषताओं का पता चलता है?
उत्तर :- कवि इन पंक्तियों में संध्या के समय बनारस की शोभा का वर्णत करते हुए कहता है कि यदि आप कभी शाम होते ही बिना किसी को सूचित किए बनारस आओगे तो उस समय हो रही आरती के प्रकाश में तुम शहर को अचानक से देखने पर पाओगे कि इस शहर की बनावट अद्भुत है। यह बनावट हमें अपनी ओर आकर्षित करती है। उस समय यह आधा जल में झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है। यहाँ के लोग पूजा-पाठ करते हुए दिखाई देते हैं। कुछ लोग फूलों को तैराते हुए तो कुछ शवों को विसर्जित या संस्कार करते हुए दिखाई देते हैं। यह शहर आधा डूबा-सा और शंख ध्वनि के द्वारा आरती करता दिखाई देता है। यदि आप ध्यानपूर्वक इस शहर को देखेंगे तो यह आधा होते हुए भी आधा नहीं लगेगा। इस शहर में परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम दिखाई देता है।
प्रश्न :- बनारस शहर के लिए जो मानवीय क्रियाएँ इस कविता में आई हैं, उनका व्यंजनार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :-
- वसंत के आगमन पर पूरा वातावरण उल्लास से भर उठता है। गंगा के दशाश्वमेध घाट पर लोगों के आना-जाना बढ़ जाता है
- घाट पर बैठे बंदरों की आँखों में कवि को आशा की नमी दिखाई देती है। लोगों के आने-जाने से घाट पर बैठे भिखारियों के कटोरों का खालीपन भी कुछ दान-दक्षिणा पाने की उम्मीद से चमक उठता है।
- यहाँ शवदाह करना पुण्य का कार्य माना जाता है। अतः यहाँ हर रोज बनारस की अँधेरी गलियों से सूर्य की रोशनी से चमकती हुई गंगा की ओर अनेकों शव जाते हैं।
- इस शहर में धूल भी धीरे-धीरे उड़ती है और लोग भी धीरे-धीरे चलते हैं। मंदिरों में लगे घंटे भी धीरे-धीरे बजते हैं।
- यहाँ के लोग पूजा-पाठ करते हुए दिखाई देते हैं। कुछ लोग फूलों को तैराते हुए तो कुछ शवों को विसर्जित या संस्कार करते हुए दिखाई देते हैं। यह शहर आधा डूबा-सा और शंख ध्वनि के द्वारा आरती करता दिखाई देता है।
प्रश्न – शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(क) ‘यह धीर-धीरे होना —— समूचे शहर को’
उत्तर :- शिल्प-सौंदर्य
- बनारस की सांस्कृतिक विरासत का वर्णन है।
- ‘धीरे-धीरे’ में पुररुक्ति प्रकाश अलांकर का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
(ख) ‘अगर ध्यान से देखो ——- और आधा नहीं है’
उत्तर :- शिल्प-सौंदर्य
- दार्शनिक भावों की अभिव्यक्ति है।
- ‘यह आधा है तथा आधा नही है’ में विरोधाभास अलंकार का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
(ग) ‘अपनी एक टाँग पर —— बेखबर’।
उत्तर :- शिल्प-सौंदर्य
- बनारस की सांस्कृतिक विरासत का वर्णन है।
- ‘बिल्कुल बेखबर’ में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग है।
- प्रवाहमयी भाषा है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग है।
- मानवीकरण अलंकार है।
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"दिशा"
कविता की व्याख्या
हिमालय किधर है?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर-उसने कहा
जिधर उसकी पंतग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!
संदर्भ :-
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग – 2 में संकलित कविता दिशा से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता प्रयोगवादी कविता के कवि केदारनाथ सिंह हैं।
प्रसंग :-
प्रस्तुत पद्यांश में केदारनाथ सिंह बच्चे के साथ बात करते हुए बताते हैं कि हर व्यक्ति का अपना-अपना यर्थात् होता है।
व्याख्या :-
कवि केदारनाथ सिंह स्कूल के बाहर पतंग उड़ा रहे एक छोटे बच्चे से प्रश्न करते है कि बताओ हिमालय किस ओर है? वह बच्चा अत्यंत स्वाभाविक जवाब देता है कि जिधर उसकी पतंग उड़ी जा रही रही है उसी ओर हिमालय है। अब कवि जीवन में पहली बार स्वीकार करता है कि उसे वास्तव में अब मालूम हुआ कि हिमालय की दिशा क्या है। कवि बाल मनोविज्ञान के सहारे यह दिखाना चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना यथार्थ होता है।
विशेष :-
- बाल मनोविज्ञान का चित्रण हुआ है।
- ‘उधर-उधर’ में पुररुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- मुक्त छंद है।
- मिश्रित शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
- प्रश्नोत्तर शैली की लघु कविता है।
- ‘पतंग भागी जा रही थी’ में मानवीकरण अलंकार है।
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दिशा (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न :- बच्चे का उधर-उधर कहना क्या प्रकट करता है?
उत्तर :- कवि केदारनाथ सिंह स्कूल के बाहर पतंग उड़ा रहे एक छोटे बच्चे से प्रश्न करते है कि बताओ हिमालय किस ओर है? वह बच्चा अत्यंत स्वाभाविक जवाब देता है कि जिधर उसकी पतंग उड़ी जा रही रही है उसी ओर हिमालय है। कवि बाल मनोविज्ञान के सहारे यह दिखाना चाहता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना यथार्थ होता है।
प्रश्न :- ‘मैं स्वीकार करूँ मैंने पहली बार जाना हिमालय किधर है’ – प्रस्तुत पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- कवि कहना चाहता है कि उसने बच्चे से प्रश्न किया, इसके बाद बालक ने अपने दृष्टिकोण के अनुसार कवि को उत्तर दिया। इस उत्तर को स्वीकार करना या न करना प्रश्नकर्ता पर निर्भर करता है। सबका अपना स्वाभाविक मनोविज्ञान होता है और बच्चों का भी। इससे लेखक ने पहली बार ये जाना कि वास्तव में हिमालय किस ओर है?
टेस्ट/क्विज
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