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"भरत-राम का प्रेम"
(कविता की व्याख्या)
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े ।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही।हारेंहूँ खेल जितावहि मोंही।।
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।
शब्दार्थ –
ठाढे़ – खडे़ होना। कोह – क्रोध। मिस – बहाना, माध्यम। विसेखी – विशेष। खुनिस – क्रोध, अप्रसन्नता।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित ‘भरत-राम का प्रेम’ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता रामकाव्य परंपरा के प्रमुख कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग –
इस अंश में राम के वन जाने के पश्चात् भरत उनको वापिस बुलाने चित्रकूट वन में गए हैं। सभा में उपस्थित सभी लोगों के सम्मुख भरत की मानसिक दशा का वर्णन है।
व्याख्या –
चित्रकूट की सभा में भरत राम से वापिस चलने का निवेदन करने लिए खड़े हो गए। भरत का शरीर पुलकित हो रहा है। जैसे ही भरत खड़ें हुए उनके कमल रूपी नयनों से आँसुओं की बाढ़ आ गई। भरत से पहले उनके गुरू वशिष्ठ बोल चुके थे। भरत ने कहा – जो कुछ मुझे कहना था, वह पहले ही मुनिनाथ (गुरू) ने कह दिया है। मैं इससे अधिक और क्या कह सकता हँू। मैं अपने स्वामी राम के स्वभाव से परिचित हूँ। राम अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो राम की विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेलते हुए भी कभी उनकी खीझ नहीं देखी। मैंने बचपन से उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी कभी मेरे दिल को दुख नहीं दिया। मेरे भाई राम ने कभी मेरी इच्छा के विपरीत कार्य नहीं किया। मैं प्रभु राम के दयालु स्वभाव भली-भाँति जानता हँू। बचपन में जब हम खेलते थे तो मेरे हारने पर भी प्रभु मुझे जिता देते थे। भरत कहते हैं कि मैंने भी प्रेम और संकोच के कारण कभी राम के सम्मुख मुँह नहीं खोला। प्रभु राम के प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए।
विशेष –
- भरत पर राम के स्नेह का वर्णन है।
- अवधी भाषा का प्रयोग है।
- ‘सरीर सभाँ’, ‘ नीरज नयन नेह’, ‘मोर मुनिनाथ’, ‘निज नाथ’, ‘खेलत खुनिस’, ‘मोर मन’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘नीरज-नयन’ में रूपक अलंकार है।
- दोहा-चौपाई छंद है।
- पूरे पद में गेयता और संगीतात्मकता है।
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहँु दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।
साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहि मुनि रघुराउ।।
शब्दार्थ –
सुचि – पवित्र, शुद्ध। कोदव – एक जंगली कंद मूल, मोटे चावल की एक किस्म। सुसाली – धान। मुकुता – मोती। संबुक – घोंघा। उदधि – सागर। अघ – पाप। नीक – सही, ठीक।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित ‘भरत-राम का प्रेम’ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता रामकाव्य परंपरा के प्रमुख कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग –
इस अंश में राम के वन जाने के पश्चात् भरत उनको वापिस बुलाने चित्रकूट वन में गए हैं। सभा में उपस्थित सभी लोगों के सम्मुख भरत की मानसिक दशा का वर्णन है।
व्याख्या –
भरत कहते है कि विधि अर्थात् विधाता से श्रीराम का मेरे प्रति स्नेह नहीं देखा गया। उसने नीच माता के बहाने मेरे और श्रीराम के बीच दूरी पैदा कर दी है। मुझे यह कहते हुए भी शोभा नहीं देता क्योंकि अपनी दृष्टि में कौन साधु हुआ हँू। मेरी माता नीच और मैं सदाचारी व साधु हूँ – ऐसा विचार हृद्य में लाना ही करोड़ दुराचारों जैसा है। क्या कोदों की बाली से उत्तम धान फल सकता है? क्या काली घोंघी से मोती उत्पन्न हो सकता है? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार धान की निम्न किस्म कोदों की बाली से उत्तम धान पैदा नहीं हो सकता और काली घोंघी से मोती नहीं बन सकता उसी प्रकार मेरा जन्म नीच माता से कैसे हो सकता है? मैं स्वप्न में भी किसी को दोष नहीं देता। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचनों से व्यर्थ ही जलाया है। मैं अपने हृद्य में सब तरीके से खोजकर हार गया, लेकिन मुझे मेरे हित का कोई साधन नहीं मिला। अब तो बस एक ही प्रकार से मेरा भला हो सकता है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्व समर्थ हैं और सीताराम मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान पड़ता है।
साधुओं की सभा में गुरु वशिष्ठ और स्वामी राम के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान पर मैं सत्य भाव से कहता हँू। मेरा यह कथन प्रेम है या छल-कपट है? इसे सर्वज्ञ मुनि वशिष्ठ और अंतर्यामी श्रीरघुनाथजी (राम जी) ही जानते हैं।
विशेष –
- भरत की मानसिक दशा को व्यक्त किया गया है।
- अवधी भाषा का प्रयोग है।
- ‘सकेउ सहि’, ‘समुझि साधु सुचि’, ‘मातु मंदि मैं’, ‘साधु सुचाली’, ‘अस आनत’, ‘कोटि कुचाली’, ‘जारिउँ जायँ जननि’, ‘हृदय हेरि हारेउँ’, ‘भाँति भलेंहि भल’, ‘गुर गोसाइँ’, ‘साहिब सिय’, ‘प्रेम प्रपंचु’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘अभाग-उदधि’ में रूपक अलंकार है।
- ‘फरह कि — काली’ में दृष्टांत अलंकार है।
- दोहा-चौपाई छंद है।
- पूरे पद में गेयता और संगीतात्मकता है।
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहि बिकल महतारीं। जरहि दुसह जर पुर नर नारीं।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ ऐहि घाएँ।।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहि बिषम बिषु तापस तीछी।।
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।
शब्दार्थ –
सतिभाऊ – शुद्ध भाव से। साखी – साक्षी। पयादेहि – पैदल, नंगे पाँव। कुलिस – कुलिश, वज्र। बेहू – भेदन। बीछीं – बिच्छू, एक जहरीला जीव।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित ‘भरत-राम का प्रेम’ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता रामकाव्य परंपरा के प्रमुख कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग –
इस अंश में राम के वनगमन के पश्चात् माताओं और अयोध्यावासियों की व्यथा का वर्णन है। जिसे भरत आत्म परिताप के माध्यम से व्यक्त करते हैं।
व्याख्या –
भरत कहते हैं कि प्रेम के प्रण का पालन करके महाराज दशरथ का देहांत और माता की कुमति दोनों का साक्षी संसार है। व्याकुल माताओं की दशा देखी नहीं जाती। अयोध्या के नर-नारी राम के वियोग में असह्य ताप से जल रहे हैं। भरत इन सबका दोषी स्वयं को मानते हुए कहते हैं कि मैं ही इन सारे अनर्थों का कारण हूँ, यह सुनकर और समझकर मैंने राम से अलग होने का सब दुख सहा है। श्री रघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का-सा वेश धारण कर बिना जूते पहने पैदल ही वन को चले गए। शंकर जी साक्षी हैं, इस घाव के बाद भी मैं कैसे जीवित हूँ। सीताराम के वन जाने की बात सुनते ही मेरे प्राण क्यों नहीं निकल गए। फिर निषादराज का राम के प्रति प्रेम देखकर भी वज्र से कठोर मेरे हृद्य में छेद नहीं हुआ। अब यहाँ आकर आँखों से स्वयं देख लिया। यह जड़-जीव जीता रहकर सभी कुछ सहेगा। जिनको देखकर रास्ते के साँप और बिच्छू भी अपने भयंकर विष और तीव्र क्रोध को छोड़ देते हैं, वे ही रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र अर्थात् मुझको छोड़कर विधाता यह असहनीय दुख और किसे सहावेगा।
विशेष –
- भातृ प्रेम का आदर्श प्रस्तुतीकरण है।
- अवधी भाषा का प्रयोग है।
- ‘पेम पनु’, ‘सबु साखी’, ‘सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला’, ‘पानहिन्ह पयादेहि पाएँ’ ‘संकरु साखि’, ‘निहारि निषाद’ ‘कुलिस कठिन’, ‘जिअत जीव जड़’ में अनुप्रास अलंकार है।
- दोहा-चौपाई छंद है।
- पूरे पद में गेयता और संगीतात्मकता है।
- शांत व करुण रस है।
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"भरत-राम का प्रेम" (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न- ‘हारेंहु खेल जितावहिं मोही’ भरत के इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर- भरत इस कथन के माध्यम से राम के स्नेह का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि मैं प्रभु राम के दयालु स्वभाव भली-भाँति जानता हँू। बचपन में जब हम खेलते थे तो मेरे हारने पर भी प्रभु मुझे जिता देते थे। इस प्रकार राम भरत को बहुत प्रेम करते थे और उसे कोई कष्ट नहीं होने देते थे।
प्रश्न- ‘मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ’ में राम के स्वभाव की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर- भरत ने बताया है कि राम के स्वभाव को वे भलि-भाँति जानते हैं। भरत के कथन से राम की निम्न विशेषताओं का पता चलता है-
- वे बहुत कोमल और सरल हृदय वाले हैं।
- वे कभी किसी पर क्रोध नहीं करते।
- वे छोटों पर विशेष स्नेह दिखाते हैं।
- राम ने कभी बदले की भावना से काम नहीं किया।
- राम स्वयं कष्ट सहन कर लेते थे, परंतु कभी दूसरों को कष्ट नहीं देते थे।
प्रश्न- भरत का आत्म परिताप उनके चरित्र के किस उज्ज्वल पक्ष की ओर संकेत करता है?
उत्तर- भरत ने आत्म परिताप से यह दर्शाया है कि उन्हें राजा बनने का लालच नहीं है। राम को वन भेजने के लिए उन्होंने कोई राजनीतिक षड्यंत्र नहीं किया। वे श्रीराम को अपना स्वामी मानते हैं। पिता की मृत्यु और राम के वनगमन की घटना के लिए भरत स्वयं को ही दोषी मानता है। वह अपने भाग्य को दोषी ठहराता है। इससे उनका पश्चाताप व्यक्त हुआ है। इससे पता चलता है कि वह सरल और निश्छल हृदय वाला है।
प्रश्न- राम के प्रति श्रद्धा भाव को भरत किस प्रकार प्रकट करते हैं, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- चित्रकूट की सभा में भरत राम से वापिस चलने का निवेदन करने लिए खड़े हो गए। भरत का शरीर पुलकित हो रहा है। जैसे ही भरत खड़ें हुए उनके कमल रूपी नयनों से आँसुओं की बाढ़ आ गई। भरत से पहले उनके गुरू वशिष्ठ बोल चुके थे। भरत ने कहा – जो कुछ मुझे कहना था, वह पहले ही मुनिनाथ (गुरू) ने कह दिया है। मैं इससे अधिक और क्या कह सकता हँू। मैं अपने स्वामी राम के स्वभाव से परिचित हूँ। राम अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो राम की विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेलते हुए भी कभी उनकी खीझ नहीं देखी। मैंने बचपन से उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी कभी मेरे दिल को दुख नहीं दिया। मेरे भाई राम ने कभी मेरी इच्छा के विपरीत कार्य नहीं किया। मैं प्रभु राम के दयालु स्वभाव भली-भाँति जानता हँू। बचपन में जब हम खेलते थे तो मेरे हारने पर भी प्रभु मुझे जिता देते थे। भरत कहते हैं कि मैंने भी प्रेम और संकोच के कारण कभी राम के सम्मुख मुँह नहीं खोला। प्रभु राम के प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए।
प्रश्न- ‘महीं सकल अनरथ कर मूला’ पंक्ति द्वारा भरत के विचारों-भावों का स्पष्टीकरण कीजिए।
उत्तर- भरत कहते हैं कि प्रेम के प्रण का पालन करके महाराज दशरथ का देहांत और माता की कुमति दोनों का साक्षी संसार है। व्याकुल माताओं की दशा देखी नहीं जाती। अयोध्या के नर-नारी राम के वियोग में असह्य ताप से जल रहे हैं। भरत इन सबका दोषी स्वयं को मानते हुए कहते हैं कि मैं ही इन सारे अनर्थों का कारण हँू, यह सुनकर और समझकर मैंने राम से अलग होने का सब दुख सहा है। श्री रघुनाथजी लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का-सा वेश धारण कर बिना जूते पहने पैदल ही वन को चले गए। शंकर जी साक्षी हैं, इस घाव के बाद भी मैं कैसे जीवित हँू। सीताराम के वन जाने की बात सुनते ही मेरे प्राण क्यों नहीं निकल गए।
प्रश्न- ‘फेरे कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव की संबुक काली।’ पंक्ति में छिपे भाव तथा शिल्प सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
भाव पक्ष – भरत अपनी माँ के प्रति कहे गए अपने कटुवचनों पर पश्चाताप व्यक्त करते हुए कहता है कि क्या कोदों की बाली से उत्तम धान उत्पन्न हो सकता है? क्या काली घोंघी से मोती उत्पन्न हो सकते हैं? कहने का तात्पर्य है कि जननी कभी दोषी नहीं होती। व्यक्ति अपने कर्मों से ही बुरा बनता है।
शिल्प पक्ष – इस पंक्ति में कवि ने उदाहरण अलंकार के माध्यम से अपनी बात स्पष्ट की है। अवधी भाषा में सशक्त अभिव्यक्ति है। गेयता है, संगीतात्मकता है। ध्वन्यानुप्रास अलंकार है।
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"पद" की व्याख्या
जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
”उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे।।
कबहुँ कहति यों “बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया”
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी।।
शब्दार्थ –
तनय – पुत्र। धनुहियाँ – बाल धनुष। पनहियाँ – जूतियाँ। बार – देरी। जेंइय – जीमना, भोजन करना। सवारे – सवेरे। चित्रलिखी-सी – चित्र के समान। सिखी – मोर के समान ।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित ‘पद’ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता रामकाव्य परंपरा के प्रमुख कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग –
इस अंश में राम के वनगमन के बाद राम की वस्तुएँ देखकर दुखी होती कौशल्या के मन की व्यथा का वर्णन है।
व्याख्या –
राम की माता राम के छोटे-छोटे धनुष और बाण को देखती रहती है। उनको देखकर कौशल्या को राम के स्नेह की याद आती है। वह राम की सुंदर जूतियों को कभी आँखों से छूती हैं तो कभी छाती से लगाती है। राम के विरह में व्याकुल माँ कभी-कभी सवेरे राम के कक्ष में जाकर राम को जगाने का अभिनय करती है – ‘‘हे पुत्र! उठो! माँ तुम्हारे बदन पर बलिहारी जाती है। तेरे छोटे भाई और मित्र सभी द्वार पर खड़े तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’ वह कभी कहती है – ‘‘हे भैया! बहुत देर हो गई है, राजा (दशरथ) के पास जाओ। जो मित्र तुम्हें अच्छे लगें, उन्हें खेलने के लिए बुला लो। तुम्हारी माँ, तुम पर न्योछावर जाती है।’’ कौशल्या अपने पुत्र राम के विरह में इतनी उदास है कि उसे राम के वन जाने की घटना भी याद नहीं है। जब भी उन्हें राम के वनगमन की बात याद आती है वे चित्र की भाँति निर्जीव-सी हो जाती हैं। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय कौशल्या में मोर की भाँति स्नेह उमड़ता दिखाई देता है।
विशेष-
- यहाँ स्मृतिजन्य वात्सल्य रस है।
- ब्रजभाषा का प्रयोग हैै।
- ‘ज्यों जाइ जगावति’, ‘कबहुँ कहति’, ‘बड़ी बार’, ‘बधु बोलि’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘चित्रलिखी-सी’ और ‘सिखी-सी’ में उपमा अलंकार है।
- पद शैली है।
राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहि सिधावौ।।
जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवहि, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसारे।।
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
तदपि दिनहि दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।
सुनहु पथिक! जो राम मिलहि बन कहियो मातु संदेसो।
तुलसी मोहि और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो।।
शब्दार्थ –
बाजि – घोड़ा। पोखि – सहलाना, प्यार करना, हाथ फेरना। निपट – बिलकुल। सार – देखभाल, ध्यान। झाँवरे – कुम्हलाना, मलिन होना। अंदेसो – अंदेशा, चिंता।
संदर्भ –
व्याख्येय पद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा भाग-2’ में संकलित ‘पद’ से उद्धृत हैं। इसके रचयिता रामकाव्य परंपरा के प्रमुख कवि तुलसीदास हैं।
प्रसंग –
कौशल्या राम के विरह में दुखी है। वह पथिक के माध्यम से अपने पुत्र राम को संदेश भेजने का प्रयास करती है और पथिक के आगे अपने मनोभाव प्रकट करती हुई कहती है।
व्याख्या –
हे राम! तुम एक बार लौट आओ। एक बार तुम अपने इन सुंदर घोड़ों को देखकर, फिर वन में लौट जाना। हे मेरे लाडले राम! इन अश्वों को तुमने पानी पिलाया था, तुमने अपने कलम रूपी हाथों से इनको बार-बार पुचकारा था। इन अश्वों को तुम भूल गये हो, अब ये बेचारे कैसे जियेंगे? भरत जानते है कि ये अश्व तुमको बहुत प्यारे हैं इसलिए वो इन घोड़ों की बहुत अधिक संभाल करते हैं। भरत के इतनी अधिक देखभाल करने पर भी ये घोड़े दिन प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे है, मानो कोई कमल हिमपात का मारा हो। अर्थात् जिस प्रकार कमल का फूल पाला पड़ने मुरझा जाता है उसी प्रकार ये घोड़े तुम्हारे वियोग में बहुत अधिक कमजोर हो गए हैं। हे पथिक सुनो! कौशल्या कहती है कि यदि तुम्हें वन में कहीं राम मिल जाएँ तो उनसे माँ का संदेशा कह देना। मुझे और सबसे बढ़कर राम के इन घोड़ों की चिंता होती है। इस प्रकार तुलसीदास लिखते हैं कि कौशल्या एक बार राम से मिल लेना चाहती हैं।
विशेष –
- वात्सल्य रस है।
- ब्रज भाषा का प्रयोग है।
- ‘बर बाजि बिलोकि’, बहुरो बनहिं’, ‘पय प्याइ पोखि’, ‘सौगुनी सार’, ‘दिनहिं दिन’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘कर-पंकज’ पद में रूपक अलंकार है।
- ‘मनहुँ कमल हिममारे’ में उत्प्रेेक्षा अलंकार है।
- ‘तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे’ में विषम अलंकार है।
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"पद"
(प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न- राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर माँ कौशल्या कैसा अनुभव करती हैं?
उत्तर- राम की माता राम के छोटे-छोटे धनुष और बाण को देखती रहती है। उनको देखकर कौशल्या को राम के स्नेह की याद आती है। वह राम की सुंदर जूतियों को कभी आँखों से छूती हैं तो कभी छाती से लगाती है। राम के विरह में व्याकुल माँ कभी-कभी सवेरे राम के कक्ष में जाकर राम को जगाने का अभिनय करती है – ‘‘हे पुत्र! उठो! माँ तुम्हारे बदन पर बलिहारी जाती है। तेरे छोटे भाई और मित्र सभी द्वार पर खड़े तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’ वह कभी कहती है – ‘‘हे भैया! बहुत देर हो गई है, राजा (दशरथ) के पास जाओ। जो मित्र तुम्हें अच्छे लगें, उन्हें खेलने के लिए बुला लो। तुम्हारी माँ, तुम पर न्योछावर जाती है।’’ कौशल्या अपने पुत्र राम के विरह में इतनी उदास है कि उसे राम के वन जाने की घटना भी याद नहीं है। जब भी उन्हें राम के वनगमन की बात याद आती है वे चित्र की भाँति निर्जीव-सी हो जाती हैं। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय कौशल्या में मोर की भाँति स्नेह उमड़ता दिखाई देता है।
प्रश्न- ‘रहि चकि चित्रलिखी-सी’ पंक्ति का मर्म अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- कौशल्या अपने पुत्र राम के विरह में इतनी उदास है कि उसे राम के वन जाने की घटना भी याद नहीं है। जब भी उन्हें राम के वनगमन की बात याद आती है वे चित्र की भाँति निर्जीव-सी हो जाती हैं। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय कौशल्या में मोर की भाँति स्नेह उमड़ता दिखाई देता है।
प्रश्न- गीतावली से संकलित पद ‘राघौ एक बार फिरि आवौ’ में निहित करुणा और संदेश को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- कौशल्या राम के विरह में दुखी है। वह पथिक के माध्यम से अपने पुत्र राम को संदेश भेजने का प्रयास करती है और पथिक के आगे अपने मनोभाव प्रकट करती हुई कहती है। हे राम! तुम एक बार लौट आओ। एक बार तुम अपने इन सुंदर घोड़ों को देखकर, फिर वन में लौट जाना। हे मेरे लाडले राम! इन अश्वों को तुमने पानी पिलाया था, तुमने अपने कलम रूपी हाथों से इनको बार-बार पुचकारा था। इन अश्वों को तुम भूल गये हो, अब ये बेचारे कैसे जियेंगे? भरत जानते है कि ये अश्व तुमको बहुत प्यारे हैं इसलिए वो इन घोड़ों की बहुत अधिक संभाल करते हैं। भरत के इतनी अधिक देखभाल करने पर भी ये घोड़े दिन प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे है, मानो कोई कमल हिमपात का मारा हो। अर्थात् जिस प्रकार कमल का फूल पाला पड़ने मुरझा जाता है उसी प्रकार ये घोड़े तुम्हारे वियोग में बहुत अधिक कमजोर हो गए हैं। हे पथिक सुनो! कौशल्या कहती है कि यदि तुम्हें वन में कहीं राम मिल जाएँ तो उनसे माँ का संदेशा कह देना। मुझे और सबसे बढ़कर राम के इन घोड़ों की चिंता होती है। तुलसीदास लिखते हैं कि इस प्रकार कौशल्या एक बार राम से मिल लेना चाहती हैं।
प्रश्न- (क) उपमा अलंकार का उदाहरण छाँटिए।
उत्तर –
- कबहुँ समुझि बनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी-सी।
- तुलसीदास वह समझ कहे तों लागति प्रीति सिखी-सी।
(ख) उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग कहाँ और क्यों किया गया है? उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।
उत्तर – उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग गीतावली के दूसरे पद में किया गया है।
‘तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।’’
कौशल्या राम को उनके घोडों की कमजोर होती दशा के बारे में बताती हैं। वह कहती है कि हालांकि भरत राम घोड़ों की देखभाल कर रहे हैं, परंतु फिर भी वे दिन-प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हैं मानो कमल हिम से मारे हुए हैं।
प्रश्न- पठित पदों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि तुलसीदास का भाषा पर पूरा अधिकार था।
उत्तर- तुलसीदास ने रामचरितमानस अवधी तथा गीतावाली ब्रजभाषा लिखा। उन्होंने दोनों भाषाओं के लोक प्रचलित रूप का प्रयोग किया है। कवि ने अलंकारों का सहज तथा उचित प्रयोग किया है। जैसे –
- जारिउँ जाय जननि कहि काकू। (अनुप्रास अलंकार)
- ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ। (अनुप्रास अलंकार)
- ‘कर-पंकज’ पद में रूपक अलंकार है।
- ‘मनहुँ कमल हिममारे’ में उत्प्रेेक्षा अलंकार है।
- ‘तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे’ में विषम अलंकार है।
- ‘चित्रलिखी-सी’ और ‘सिखी-सी’ में उपमा अलंकार है।
कवि ने ‘रामचरितमानस’ में दोहा-चौपाई छंद का प्रयोग अधिक किया है। इस सब आधारों पर कहा जा सकता है कि कवि तुलसीदास का भाषा पर असाधारण अधिकार है।
प्रश्न – पाठ के किन्हीं चार स्थानों पर अनुप्रास के स्वाभाविक एवं सहज प्रयोग हुए हैं, उन्हें छाँटकर लिखिए।
उत्तर –
- पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े ।।
- अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
- जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
- हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा।।
टेस्ट/क्विज
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