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सरोज स्मृति (कविता की व्याख्या)
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मंद,
होठों में बिजली फँसी स्पंद
उर में भर झूली छबि सुंदर
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसंत की प्रथम गीति-
शब्दार्थ :- आमूल – मूल या जड़ तक, पूरी तरह। नवल – नया। स्पंद – कंपन। उर – मन, हृद्य। स्तब्ध – स्थिर, दृढ़। उच्छ्वास – आह भरना। धीति – प्यास, पान। अशब्द – बिना बोले। आलोक – प्रकाश, उजाला। अधर – होंठ। नत – झुके हुए।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की याद में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह का वर्णन किया है।
व्याख्या :- यहाँ कवि निराला अपनी पुत्री सरोज के विवाह को पूरी तरह नया बताते हुए कहते हैं कि इस विवाह में मेहमानों ने विवाह की एक नई रीति देखी थी। जब पुत्री पर कलश से मांगलिक जल डाला गया था तब सरोज अपने पिता को देखकर मुस्काई थी और उसके होठों पर बिजली की एक कंपित लहर दौड़ गई थी। तू अपने हृद्य में अपने प्रिय की सुंदर छवि भरकर खुश हो रही थी जिससे तेरा दांपत्य और संयोग का भाव मुखर हो रहा था। तू गहरी साँस लेकर प्रसन्न हो रही थी और प्रत्येक अंग भविष्य की आशा में बँधकर स्तब्ध या निश्चल हो गया था। तेरे झुके हुए नयनों ने प्रकाश के रेखा तेरे ओठों पर गिरकर थर-थर काँप रही थी। मैंने तेरी वह धीर मूर्ति देखी थी जिसे देखकर मुझे लगा जैसे मेरी युवावस्था की प्रथम गीति का स्फुरण था।
विशेष –
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘थर-थर’ तथा ‘अंग-अंग’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
- ‘नत नयनों’ में अनुप्रास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयाग है।
- छायावादी शैली है।
शृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन,
कोई थे नहीं, न आमंत्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग_
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
शब्दार्थ :- निराकार – जिसका कोई आकार न हो। रति-रूप – कामदेव की पत्नी के रूप जैसी, अत्यंत सुंदर। मही – पृथ्वी। सेज – बिस्तर। स्वजन – संबंधी, अपने लोग । विवाह-राग – विवाह का गीत। निशि – रात्रि।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह का वर्णन किया है।
व्याख्या :- कवि अपनी बेटी के विवाह का वर्णन करते हुए कहता है कि मैंने उसमें उस शृंगार को देखा जो निराकार रहकर भी मेरी कविता में रस की उमड़ती हुई धारा के समान प्रस्फुटित हो उठा था। उसमें वह संगीत मुखरित हो रहा था। जिसकोे मैंने अपनी पत्नी के साथ गाया था। वह संगीत मेरे प्राणों में आनंद का उद्रेक करता रहता है। मेरी वही शृंगार-भावना तेरे रूप में साकार हो उठी थी। उस दिन आकाश अपने ऊर्ध्व में रहने के स्वभाव को त्यागकर नीचे आकर पृथ्वी के साथ एकाकार हो गया – अभिप्राय यह है कि प्रकृति भी दांपत्य भाव से ओतप्रोत थी। हे पुत्री इस तरह तेरा विवाह संपन्न हो गया था। उसमें कोई भी सगा-संबंधी नहीं आया था क्योंकि उनको निमंत्रण ही नहीं भेजे गए थे। इस प्रकार विविह के अवसर पर कन्या के घर में जो राग-रंग पूर्ण उत्सव औरजागरण चला करता है, वह भी यहाँ नहीं हुआ। उस समय तो नवजीवन के स्तरों पर एक प्रकार का मूक संगीत अवतरित हो रहा था।
विशेष:-
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘रति-रूप’ में रूपक अलंकार है।
- ‘राग-रंग’ ‘रति रूप’ में अनुप्रास अलंकार है।
- ‘प्रिय मौन एक संगीत भरा’ में विरोधाभास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- वात्सल्य रस है।
- स्मृति बिंब है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयाग है।
- छायावादी शैली है।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, “वह शकुंतला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार_
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त_
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे दृग वर महामरण!
शब्दार्थ :- शकुंतला – कालिदास की नाट्यकृति ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की नायिका। समोद – हर्षसहित, खुशी के साथ। जलद – बादल। न्यस्त – निहित। धरा – पृथ्वी। समस्त – सभी। व्यस्त – कार्य में लगे हुए। दृग – आँखें। वर – ग्रहण करना।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के देहांत का वर्णन किया है।
व्याख्या :- निराला अपनी स्वर्गीय पुत्री को संबोधित करते हुए कहते है कि हे पुत्री! माँ के न रहने पर तेरे विवाह के बाद मैंने ही तुझको वे शिक्षाएँ दी थी, जिन्हें नववधू को माता प्रदान करती है। तेरी पुष्प-शैया भी स्वयं ही तैयार की थी। मैं सोच रहा था कि मैं अपनी पुत्री को शकुंतला भी भाँति उसी तरह विदा कर रहा हूँ जैसे शंकुलता का महर्षि कण्व ने विदा किया था, किंतु तू शंकुतला से अलग थी क्योंकि तेरी शिक्षा अलग थी। शकुंतला को उसकी माँ स्वयं छोड़कर गई थी परंतु सरोज की माँ की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी। इसलिए दोनों ही परिस्थितियाँ समान होते हुए भी अलग हैं।
हे पुत्री! तू कुछ दिनों तक अपने घर अर्थात् ससुराल में रहकर फिर अपने ननिहाल में नानी के पास चली गई। वहाँ पर तेरे मामा और मामी सरोज पर उसी प्रकार प्यार की वर्षा करते रहते थे जैसे बादल अपने जल से पृथ्वी को आप्लावित करते रहते हैं। ननिहाल में सभी तेरे दुख-सुख में तेरे साथी और शिक्षक बने रहे और वे सदैव तेरी भलाई में लगे रहते थे। तू जिस लता की कली थी, वह भी वहीं थी। अर्थात् सरोज की माता मनोहरा का पालन पोषण भी वहीं हुआ था। तू उन्हीं की गोद में बचपन से रही थी, अतः किशोरावस्था में उन्हीं से हिली-मिली थी। अपने जीवन की अंतिम घड़ी में भी तूने ननिहाल की स्नहेमयी गोद में शरण ली और अपने सुंदर नेत्रों को बंद करके स्वर्ग को गई थी।
विशेष:-
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘भर जलद धरा को ज्यों अपार’ में उपमा अलंकार है।
- ‘पर पाठ’ में अनुप्रास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयाग है।
- छायावादी शैली है।
मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
शब्दार्थ :- संबल – सहारा। विकल – व्याकुल होना। वज्रपात – भारी विपत्ति, कठोर। स्वजन – अपने लोग। सकल – सभी। शीत – ठंड, पाला। शतदल – कमल। अर्पण – देना, अर्पित करना, चढ़ाना। तर्पण – देवताओं, ऋषियों और पितरों को तिल या तंडुलमिश्रित जल देने की क्रिया।
संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक अंतरा भाग 2 में संकलित कविता ‘सरोज स्मृति’ से उद्धृत हैं। यह कविता छायावाद के आधार स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित है।
प्रसंग :- ‘सरोज स्मृति’ एक शोक गीत है। यह कविता कवि ने अपनी दिवंगता पुत्री सरोज की स्मृति में लिखी है। इस पद्यांश में कवि निराला ने अपनी पुत्री सरोज के निधन पर अपनी भावनाओं का वर्णन किया है।
व्याख्या :- कवि सरोज को संबोधित करते हुए कह रहा है कि हे पुत्री ! मुझ अभागे का एकमात्र तू ही सहारा थी। आज तेरे जाने दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर मैं इस बात को प्रकट कर रहा हँू कि मेरा जीवन तो विपत्तियाें और दुखों की ही कहानी रहा है अर्थात् मुझ पर एक के बाद एक आपत्तियाँ आती रही हैं। इस बात को मैंने अभी तक किसी से कहा नही है तो उसको आज कहकर क्या करूँगा। यदि मेरा धर्म बना रहे तो मेरे सारे कर्मों पर भले ही बिजली टूट पड़े, मैं अपने झुके हुए मस्तक से उसको सहन करता रहँूगा। इस जीवन-मार्ग पर मेरे संपूर्ण कार्य शरद ऋतु में मुरझा जाने वाले कमल की पंखुड़ियों की तरह भले ही नष्ट हो जाएँ अर्थात् चाहे मुझको मेरे कार्यों के लिए प्रशंसा न मिले, तो भी मुझे चिंता नहीं है। हे बेटी! मैं अपने पिछले सभी जन्मों के पुण्य कार्यों के फल तुझको सौंपकर तेरा तर्पण कर रहा हँू अर्थात् श्राद्ध के रूप में तुझको श्रद्धांजलि दे रहा हॅँू।
विशेष:-
- यह एक शोक गीत है।
- भाषा में तत्सम् शब्दावली की बहुलता है।
- साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग है।
- ‘हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!’ में उपमा अलंकार है।
- ‘क्या कहू’ ‘कर, करता मैं तेरा तर्पण!’ में अनुप्रास अलंकार है।
- मुक्त छंद का प्रयोग है।
- कविता में गेयता है।
- लक्षणा शब्द शक्ति- का प्रयाग है।
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सरोज स्मृति (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – सरोज के नव-वधू रूप का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर – निराला ने सरोज के नववधू रूप का वर्णन निम्न रूप में किया है।
- उसके हृद्य में पति की सुंदर छवि भरकर भूल रही थी।
- उसके अंदर दांपत्य भाव मुखर हो रहा था।
- वह गहरी साँस लेकर अपनी प्रसन्नता को व्यक्त कर रही थी।
- उसके नेत्र नीचे की ओर झुके हुए थे।
- उसके होंठ थर-थर काँप रहे थे।
- उसके नेत्रें से प्रकाश उसके होंठों पर गिरकर बिजली की तरह कंपित हो रहा था।
- उसके अंदर शृंगार का स्फुरण था।
- उसका सौंदर्य रति को मात दे रहा था।
प्रश्न – कवि को अपनी स्वर्गीया पत्नी की याद क्यों आई?
उत्तर – कवि की पत्नी यशोधरा भी अल्पायु में ही स्वर्ग सिधार गई थी। सरोज के विवाह के समय निराला ने वही गीत गाए जो अपनी पत्नी के साथ गाया करते थे। उसने अपनी पुत्री को वह शिक्षा भी दी जो बिवाह के पवित्र अवसर पर एक माँ ही अपनी पुत्री को देती है। चूँकि निराला पत्नी नहीं थी, इसलिए उनको ही सारे काम करने पड़े। इसलिए कवि को अपनी स्वर्गीया पत्नी की याद आई।
प्रश्न – ‘आकाश बदल कर बना मही’ में ‘आकाश’ और ‘मही’ शब्द किसकी ओर संकेत करते हैं?
उत्तर – ‘आकाश’ कवि की स्वर्गवासी पत्नी तथा ‘मही’ नववधू के रूप में सज्जित निराला की पुत्री सरोज की ओर संकेत करते हैं। कवि की पुत्री विवाह के मांगलिक अवसर पर अत्यधिक सुंदर लग रही थी। कवि को प्रतीत होता है कि जैसे उसकी पत्नी का आलौकिक सौंदर्य आकाश के उतर कर पृथ्वी पर सरोज के रूप में उतर आया हो। पुत्री सरोज का कामदेव की पत्नी रति जैसा रूप-सौंदर्य निराला को उसकी पत्नी की याद दिला रहा है।
प्रश्न – सरोज का विवाह अन्य विवाहों से किस प्रकार अलग था?
उत्तर – सरोज का विवाह अन्य विवाहों से निम्नलिखित रूप से भिन्न था।
- इस विवाह में आम विवाह की तरह सगे-संबंधी नहीं थे क्योंकि उन्हें बुलाया नहीं गया था
- विवाह में मांगलिक गीत नहीं गाए गये थे।
- शादी से पहले जो भी संस्कार किए जाते थे, वे भी नहीं किए गए क्योंकि कवि उन्हें नहीं मानता था।
- कवि ने स्वयं ही विवाह की रस्में अदा की थी। उसने प्वित्र जल के छींटे दिड़ककर मांगलिक कार्य संपन्न किए।
- विवाह में कोई दान-दहेज नहीं दिया गया था।
- विदाई के समय कन्या को दी जाने वाली विवाहेत्तर शिक्षा स्वयं निराला ने अपनी बेटी को दी थी।
प्रश्न – शकुंतला के प्रसंग के माध्यम से कवि क्या संकेत करना चाहता है?
उत्तर – कण्व ऋषि के पुत्री शकुंतला का विवाह भी राजा दुष्यंत के साथ बिना किसी सामाजिक रीति के संपन्न किया गया था। जिस प्रकार शकुंतला को भी उसके पिता कण्व ऋषि ने विदा किया था उसी तरह कवि निराला भी अपनी पुत्री सरोज को विदा करते है। वे भी अकेले ही सारे कार्य करते हैं। विवाह के पश्चात् ‘शकुंतला’ की तरह ही सरोज को भी अकेलापन सहना पड़ा।
प्रश्न – ‘वह लता वहीं की, जहाँ कली तू खिली’ पंक्ति के द्वारा किस प्रसंग को उद्घाटित किया गया है?
उत्तर – ‘वह लता वहीं की, जहाँ कली तू खिली’ पंक्ति के द्वारा कवि कहना चाहता है कि सरोज की माँ जिनकी पुत्री थी, वहीं पर सरोज का लालन-पालन हुआ था। सरोज अपने ननिहाल में ही बड़ी हुई। वहीं पर उसकी शिक्षा-दीक्षा हुई। शादी के बाद भी वह वहीं रही तथा उसकी मृत्यु भी नाना-नानी के घर में ही हुई।
प्रश्न – कवि ने अपनी पुत्री का तर्पण किस प्रकार किया?
उत्तर – कवि ने अपनी बेटी सरोज का तर्पण अलौलिक रूप से किया। कवि ने कहा कि यदि मेरा धर्म बना रहे तो मेरे कर्मों पर चाहे कितनी ही बिजलियाँ गिरती रहें, मैं सिर झुकाकर सब सहन कर लूँगा। उसे अपने कार्यों की प्रशंसा चाहे न मिले। वह अपने पिछले सभी पुण्य कर्माें के फल उसे सौंपकर उसका तर्पण कर रहा है।
प्रश्न – निम्नलिखित पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(क) नत नयनों से आलोक उतर
उस अवसर पर सरोज अपने पिता को देखकर मुस्काई थी और उसके होठों पर उसके नेत्रें के प्रकाश की एक कंपित लहर दौड़ गई थी। सरोज अपने हृद्य में अपने प्रिय की सुंदर छवि लेकर खुश हो रही थी जिससे उसका दांपत्य और संयोग का भाव मुखरित हो रहा था।
(ख) शृंगार रहा जो निराकार
कवि बताता है कि उसने अपनी बेटी में उस शंृगार को देखा जो निराकार रहकर भी उसकी कविता में रस की धारा के समान फूट रहा था।
(ग) पर पाठ अन्य यह, अन्य कला
कवि सोच रहा था कि वह अपनी पुत्री को शकुंतला भी भाँति उसी प्रकार विदा कर रहा है जैसे शंकुलता को महर्षि कण्व ने विवाह के समय विदा किया था, किंतु सरोज शंकुतला से अलग थी। क्योंकि सरोज की शिक्षा शकुंतला की शिक्षा से भिन्न थी।
(घ) यदि धर्म, रहे नत सदा माथ।
यदि कवि का धर्म बना रहे तो निराला अपने सारे कर्मों को वज्र के प्रहार के समान नष्ट करके भी कवि अपने झुके हुए मस्तक से उसको सहन करता रहेगा। इस जीवन-मार्ग पर कवि के संपूर्ण कार्य शरद ऋतु में मुरझा जाने वाले कमल की पंखुड़ियों की तरह भले ही नष्ट हो जाएँ अर्थात् चाहे कवि को उसकेे कार्यों के लिए प्रशंसा न मिले, तो भी कवि को चिंता नहीं है।
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