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(क) बालक बच गया
(पाठ का सार)
बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर निम्न प्रश्न पूछे गए
- धर्म के दस लक्षण सुने गए।
- नौ रसों के उदाहरण पूछे गए।
- पानी के चार डिग्री के नीचे शीतता में फैल जाने के कारण औैर उससे मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया।
- चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान पूछा गया।
- अभाव को पदार्थ न मानने का शास्त्रर्थ पूछा गया।
- इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम तथा पेशवाओं का कुर्सीनामा पूछा गया।
जब बालक से यह पूछा गया कि वह बड़ा होकर क्या करेगा? तो बालक ने उत्तर दिया कि वह यावज्जन्म लोकसेवा करेगा। यह एक नन्हे बालक द्वारा दिया गया स्वाभाविक उत्तर नहीं था। जिस प्रकार उसे अन्य प्रश्नों के उत्तर रटवाये गए थे उसी प्रकार उसने इस प्रश्न का भी रटा रटाया उत्तर दिया।
जब बालक से प्रश्न पूछे गए तो उसने सभी प्रश्नों के रटे रटाए उत्तर दिए। अंत में एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। लेखक को लगा कि वह इसका भी रटा रटाया जवाब ही देगा। परंतु जब बच्चे ने इमाम में लड्डू की माँग की तो लेखक ने सुख की साँस ली क्योंकि एक बच्चे की स्वाभाविक प्रवृतियाँ अभी जीवित थी। अर्थात् वह खाने की वस्तु की ओर आर्कषित हो गया।
बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का गला घोटना अनुचित है। जब बालक से उसकी उम्र और योग्यता से अधिक सवाल पूछे गए तो ऐसा लगा कि उसकी प्रवृतियों का गला घोटा जा रहा है।
बालक की आयु केवल आठ वर्ष की थी। विद्यालय में उससे पूछे जाने वाले प्रश्न उसकी उम्र और योग्यता से अधिक कठिन थे। इन प्रश्नों का उसने रटा हुआ उत्तर दिया था। इससे लेखक को लगा कि उसकी स्वाभाविक प्रवृतियों को कुचला जा रहा है। लेकिन इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने राहत की साँस ली और उसे लगा कि बच्चा अभी परंपरा की बलि नहीं चढ़ा है उसे बचाया जा सकता है।
हर बच्चे की उम्र उसे स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए सहायक होती है। उम्र के अनुसार बालक में योग्यता होना आवश्यक है। बालक की स्वाभाविक योग्यता और प्रवृतियों के अनुसार उसे सिखाया जाना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उसे ज्ञानी और दार्शनिक बनाया जाए। ‘लर्निंग आउटकम’ ऐसे होने चाहिए जिससे बच्चा समझ कर सीखे। रट कर सीखने की बजाए करके सीखने पर जोर देना चाहिए, ताकि बालक की स्वाभाविक योग्यताओं का विकास हो सके।
(क) बालक बच गया (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए?
उत्तर – बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर निम्न प्रश्न पूछे गए –
- धर्म के दस लक्षण सुने गए।
- नौ रसों के उदाहरण पूछे गए।
- पानी के चार डिग्री के नीचे शीतता में फैल जाने के कारण औैर उससे मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया।
- चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान पूछा गया।
- अभाव को पदार्थ न मानने का शास्त्रर्थ पूछा गया।
- इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम तथा पेशवाओं का कुर्सीनामा पूछा गया।
प्रश्न – बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा?
उत्तर – जब बालक से यह पूछा गया कि वह बड़ा होकर क्या करेगा? तो बालक ने उत्तर दिया कि वह यावज्जन्म लोकसेवा करेगा। यह एक नन्हे बालक द्वारा दिया गया स्वाभाविक उत्तर नहीं था। जिस प्रकार उसे अन्य प्रश्नों के उत्तर रटवाये गए थे उसी प्रकार उसने इस प्रश्न का भी रटा रटाया उत्तर दिया।
प्रश्न – बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी?
उत्तर – जब बालक से प्रश्न पूछे गए तो उसने सभी प्रश्नों के रटे रटाए उत्तर दिए। अंत में एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। लेखक को लगा कि वह इसका भी रटा रटाया जवाब ही देगा। परंतु जब बच्चे ने इमाम में लड्डू की माँग की तो लेखक ने सुख की साँस ली क्योंकि एक बच्चे की स्वाभाविक प्रवृतियाँ अभी जीवित थी। अर्थात् वह खाने की वस्तु की ओर आर्कषित हो गया।
प्रश्न – बालक की प्रवृत्तियों का गला घोटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोटा जाता है?
उत्तर – बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का गला घोटना अनुचित है। जब बालक से उसकी उम्र और योग्यता से अधिक सवाल पूछे गए तो ऐसा लगा कि उसकी प्रवृतियों का गला घोटा जा रहा है।
प्रश्न – ‘बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह ‘लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं’ कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – बालक की आयु केवल आठ वर्ष की थी। विद्यालय में उससे पूछे जाने वाले प्रश्न उसकी उम्र और योग्यता से अधिक कठिन थे। इन प्रश्नों का उसने रटा हुआ उत्तर दिया था। इससे लेखक को लगा कि उसकी स्वाभाविक प्रवृतियों को कुचला जा रहा है। लेकिन इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने राहत की साँस ली और उसे लगा कि बच्चा अभी परंपरा की बलि नहीं चढ़ा है उसे बचाया जा सकता है।
प्रश्न – उम्र के अनुसार बालक में योग्यता का होना आवश्यक है किन्तु उसका ज्ञानी या दार्शनिक होना जरूरी नहीं। ‘लर्निंग आउटकम’ के बारे में विचार कीजिए।
उत्तर – हर बच्चे की उम्र उसे स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए सहायक होती है। उम्र के अनुसार बालक में योग्यता होना आवश्यक है। बालक की स्वाभाविक योग्यता और प्रवृतियों के अनुसार उसे सिखाया जाना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उसे ज्ञानी और दार्शनिक बनाया जाए। ‘लर्निंग आउटकम’ ऐसे होने चाहिए जिससे बच्चा समझ कर सीखे। रट कर सीखने की बजाए करके सीखने पर जोर देना चाहिए, ताकि बालक की स्वाभाविक योग्यताओं का विकास हो सके।।
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(ख) घड़ी के पुर्जे (पाठ का सार)
लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्जे’ का दृष्टांत दिया है। लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्ज़’ का दृष्टांत इसलिए दिया है क्योंकि जिस प्रकार घड़ी के पुज़ोंर् की जानकारी लेने के लिए एक साधारण आदमी घड़ी के पुज़ोर्ं को देख सकता है, उसी प्रकार धर्म के रहस्य के विषय में जानना भी आम आदमी का अधिकार है। धर्म को के केवल धर्माचार्यों तक सीमित नहीं करना चाहिए।
‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है।’ यह कथन बिल्कुल निराधार है। हम इस कथन के कदापि सहमत नहीं हैं। धर्म जीवन जीने की पद्धति है इसके द्वारा जीवन को सरल किया जाना चाहिए। यह किसी एक व्यक्ति या धर्माचार्यों की बपौती नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति में यह क्षमता होती है कि वह धर्म के रहस्य को समझ सके। किसी विशेष वर्ग तक धर्म को सीमित रखना धर्म और व्यक्ति दोनों के विकास को रोकना है।
घड़ी समय का बोध कराती है। वह समाज के लोगों को दिन-रात के बारे में बताती है। इसी प्रकार धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार भी अपने समय का ज्ञान कराते हैं। युग की आवश्यकताओं के अनुसार ही धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएँ बनाई जाती है। वैसे ही विचारों का आधार लोगों को दिया जाता है तथा नियम तैयार किये जाते हैं। समाज की स्वीकृति के लिए उन मान्यताओं और विचारों को धार्मिक रूप प्रदान किया जाता है। किंतु समय के अनुसार पुरानी मान्यताएँ और नियम अप्रासंगिक हो जाते हैं। पुराने नियमों में समय-समय पर परिवर्तन या संशोधन करना उचित होता है।
धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे संबंध नहीं रहेगा। धर्म आम आदमी से दूर हो जाएगा। ऐसी स्थिति में धर्म का ठेकेदार धर्म का गलत उपयोग करके लोगों का शोषण करेंगे। समाज और लोगों को पाप-पुण्य का भय दिखाकर उनसे अनुचित कार्य करवाएंगे। इससे धर्म और समाज दोनों का ही विकास रुक जाएगा।
यह बात बिल्कुल सही है कि जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है। इसका कारण है कि धर्म का ठेका लेने वाले मुट्ठीभर लोग ही धर्म का भय दिखाकर लोगों का शोषण करते हैं। जिस धर्म से लोगों की रक्षा होनी चाहिए वही धर्म लोगों का हानि पहुँचाने का साधन बन जाता है। इसके विपरीत यदि धर्म की पहुँच आम आदमी तक होगी तो उसका विस्तार होगा। आम जनता में भी वही योग्यता होती है कि वह धर्म के रहस्य को समझ सके और समय की माँग के अनुसार उसमें परिवर्तन या संशोधन कर सके।
(ख) घड़ी के पुर्जे (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्जे’ का दृष्टांत क्यों दिया है?
उत्तर – लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्ज़’ का दृष्टांत इसलिए दिया है क्योंकि जिस प्रकार घड़ी के पुर्जों की जानकारी लेने के लिए एक साधारण आदमी घड़ी के पुर्जों को देख सकता है, उसी प्रकार धर्म के रहस्य के विषय में जानना भी आम आदमी का अधिकार है। धर्म को के केवल धर्माचार्यों तक सीमित नहीं करना चाहिए।
प्रश्न -‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है।’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर – ‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है।’ यह कथन बिल्कुल निराधार है। हम इस कथन के कदापि सहमत नहीं हैं। धर्म जीवन जीने की पद्धति है इसके द्वारा जीवन को सरल किया जाना चाहिए। यह किसी एक व्यक्ति या धर्माचार्यों की बपौती नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति में यह क्षमता होती है कि वह धर्म के रहस्य को समझ सके। किसी विशेष वर्ग तक धर्म को सीमित रखना धर्म और व्यक्ति दोनों के विकास को रोकना है।
प्रश्न – घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते?
उत्तर – घड़ी समय का बोध कराती है। वह समाज के लोगों को दिन-रात के बारे में बताती है। इसी प्रकार धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार भी अपने समय का ज्ञान कराते हैं। युग की आवश्यकताओं के अनुसार ही धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएँ बनाई जाती है। वैसे ही विचारों का आधार लोगों को दिया जाता है तथा नियम तैयार किये जाते हैं। समाज की स्वीकृति के लिए उन मान्यताओं और विचारों को धार्मिक रूप प्रदान किया जाता है। किंतु समय के अनुसार पुरानी मान्यताएँ और नियम अप्रासंगिक हो जाते हैं। पुराने नियमों में समय-समय पर परिवर्तन या संशोधन करना उचित होता है।
प्रश्न – धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा? अपनी राय लिखिए।
उत्तर – धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे संबंध नहीं रहेगा। धर्म आम आदमी से दूर हो जाएगा। ऐसी स्थिति में धर्म का ठेकेदार धर्म का गलत उपयोग करके लोगों का शोषण करेंगे। समाज और लोगों को पाप-पुण्य का भय दिखाकर उनसे अनुचित कार्य करवाएंगे। इससे धर्म और समाज दोनों का ही विकास रुक जाएगा।
प्रश्न – ‘जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर – यह बात बिल्कुल सही है कि जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है। इसका कारण है कि धर्म का ठेका लेने वाले मुट्ठीभर लोग ही धर्म का भय दिखाकर लोगों का शोषण करते हैं। जिस धर्म से लोगों की रक्षा होनी चाहिए वही धर्म लोगों का हानि पहुँचाने का साधन बन जाता है। इसके विपरीत यदि धर्म की पहुँच आम आदमी तक होगी तो उसका विस्तार होगा। आम जनता में भी वही योग्यता होती है कि वह धर्म के रहस्य को समझ सके और समय की माँग के अनुसार उसमें परिवर्तन या संशोधन कर सके।
6- निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए।
(क) ‘वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या?’
उत्तर – इस कथन के माध्यम से लेखक धर्माचार्यों पर व्यंग्य करता है कि प्रत्येक धर्म में धर्म के ठेकेदार कुछ लोग होते हैं। ऐसे लोग यह धारणा समाज में फैलाते है कि धर्म के रहस्यों को जानना आम आदमी के समझ की बात नहीं है। धर्म के रहस्य जानने और उनके अनुसार नियम बनाने का कार्य केवल धर्माचायों का ही है।
(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।’
उत्तर – इस कथन के माध्यम से लेखक कहता है कि जिन लोगों को धर्म के बारे में कोई जानकारी नहीं है भले ही ऐसे लोगों को धर्म से दूर रखो, लेकिन जो धर्म के बारे में जानते हैं कम से कम उन्हें तो धर्म के रहस्य जानने का अधिकार होना चाहिए। ये वैसा ही है जैसे अनाड़ी व्यक्ति के हाथ में घड़ी देना। जिस प्रकार अनाड़ी व्यक्ति घड़ी को सही नहीं कर सकता बल्कि बिगाड़ देता है। इसके विपरीत घड़ी का जानकार व्यक्ति उसे सही कर देता है। उसी प्रकार धर्म का जानकार व्यक्ति अवश्य ही उसके नियमों में समय के अनुसार सही बदलाव ला सकता है।
प्रश्न – ‘हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।’
उत्तर – इस कथन के माध्यम से लेखक धर्म के ठेकेदारों पर व्यंग्य करता है। धर्म के ऐसे ठेकेदार पीढ़ी दर पीढ़ी धर्म का झंडा उठाकर उसकी रक्षा करने का ढोंग करते हैं। वे धर्म की बुराइयों को दूर करने की बजाए उन बुराइयाें को और अधिक बढ़ाते है। जिससे उनकी धार्मिक दुकान चलती रही। यह ठीक वैसे ही है जैसे जेब में परदादा की घड़ी डालकर फिरता कोई पोता हो। जो घड़ी के बंद होने पर उसे चाबी देना भी नहीं जानता। न ही वह उसे ठीक कर सकता है और न ही किसी जानकार व्यक्ति को घड़ी छूने देता है।
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(ग) ढेले चुन लो (पाठ का सार)
वैदिन काल में हिंदुओं में विवाह करने के लिए लाटरी जैसी प्रथा थी। इस प्रथा में नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता। वह उसे गौ भेंट करता। पीछे वह कन्या के सामने कुछ मट्टी के ढेले रख देता। उसे कहता कि इसमें से एक उठा ले। कहीं सात, कहीं कम, कहीं ज्यादा। नर जानता था कि ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया हूँ और किस-किस जगह की (मट्टी) इनमें है। कन्या जानती न थी। यही तो लाटरी की बुझौवल ठहरी। वेदि की मट्टी, गौशाला की मट्टी, खेत की मट्टी, चौराहे की मट्टी, मसान की धूल – कई चीजें होती थीं। बूझो मेरी मुट्ठी में क्या है – चित्त या पट्ट? यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान ‘वैदिक पंडित’ होगा। गोबर चुना तो ‘पशुओं का धनी’ होगा। खेत की मट्टी छू ली तो ‘जमींदार पुत्र’ होगा। मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ था। यदि वह नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाए – जनमभर जलाती रहेगी। यदि एक नर के सामने मसान की
मट्टी छू ली तो उसका यह अर्थ नहीं है कि उस कन्या का कभी ब्याह न हो। किसी दूसरे नर के सामने वह वेदि का ढेला उठा ले और ब्याही जाए।
भारतेंदु हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं – एक सोने की, दूसरी चाँदी की, तीसरी लोहे की। तीनों में से एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक को चुन ले। अकड़बाज सोने को चुनता है और उलटे पैरों लौटता है। लोभी को चाँदी की पिटारी अंखूठा दिखाती है। सच्चा प्रेमी लोहे को छूता है और घुड़दौड़ का पहिला इनाम पाता है।
‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के जो फल प्राप्त होते हैं, वे हैं-यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान ‘वैदिक पंडित’ होगा। गोबर चुना तो ‘पशुओं का धनी’ होगा। खेत की मट्टी छू ली तो ‘जमींदार पुत्र’ होगा। मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ था। यदि वह नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाए – जनमभर जलाती रहेगी। यदि एक नर के सामने मसान की मट्टी छू ली तो उसका यह अर्थ नहीं है कि उस कन्या का कभी ब्याह न हो। किसी दूसरे नर के सामने वह वेदि का ढेला उठा ले और ब्याही जाए।
पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।।
इस साखी के माध्यम से कबीर धार्मिक आडंबरों और मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि अगर पत्थर के रूप में मूर्ति की पूजा करने से भगवान मिलने लगते तो वह पहाड़ की पूजा करेंगे। इन पत्थर की मूर्तियों से पत्थर की बनी चक्की अच्छी है जिससे आटा पीसा जाता है और सारे संसार का पेट भरता है। ऐसे ही स्थिति मिट्टी के ढेलों की है। मिट्टी के ढेलों से जीवन साथी का चुनाव करना एक दूषित परंपरा है। इसको समाप्त किया जाना चाहिए।
(ग) ढेले चुन लो (प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न – वैदिककाल में हिदुओं में कैसी लाटरी चलती थी जिसका िज़क्र लेखक ने किया है।
उत्तर – वैदिन काल में हिंदुओं में विवाह करने के लिए लाटरी जैसी प्रथा थी। इस प्रथा में नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता। वह उसे गौ भेंट करता। पीछे वह कन्या के सामने कुछ मट्टी के ढेले रख देता। उसे कहता कि इसमें से एक उठा ले। कहीं सात, कहीं कम, कहीं ज्यादा। नर जानता था कि ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया हूँ और किस-किस जगह की (मट्टी) इनमें है। कन्या जानती न थी। यही तो लाटरी की बुझौवल ठहरी। वेदि की मट्टी, गौशाला की मट्टी, खेत की मट्टी, चौराहे की मट्टी, मसान की धूल – कई चीजें होती थीं। बूझो मेरी मुट्ठी में क्या है – चित्त या पट्ट? यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान ‘वैदिक पंडित’ होगा। गोबर चुना तो ‘पशुओं का धनी’ होगा। खेत की मट्टी छू ली तो ‘जमींदार पुत्र’ होगा। मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ था। यदि वह नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाए – जनमभर जलाती रहेगी। यदि एक नर के सामने मसान की मट्टी छू ली तो उसका यह अर्थ नहीं है कि उस कन्या का कभी ब्याह न हो। किसी दूसरे नर के सामने वह वेदि का ढेला उठा ले और ब्याही जाए।
प्रश्न – ‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए।
उत्तर – भारतेंदु हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं – एक सोने की, दूसरी चाँदी की, तीसरी लोहे की। तीनों में से एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक को चुन ले। अकड़बाज सोने को चुनता है और उलटे पैरों लौटता है। लोभी को चाँदी की पिटारी अंखूठा दिखाती है। सच्चा प्रेमी लोहे को छूता है और घुड़दौड़ का पहिला इनाम पाता है।
प्रश्न – ‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं।
उत्तर –
- यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान ‘वैदिक पंडित’ होगा।
- गोबर चुना तो ‘पशुओं का धनी’ होगा।
- खेत की मट्टी छू ली तो ‘जमींदार पुत्र’ होगा।
- मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ था। यदि वह नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाए – जनमभर जलाती रहेगी। यदि एक नर के सामने मसान की मट्टी छू ली तो उसका यह अर्थ नहीं है कि उस कन्या का कभी ब्याह न हो। किसी दूसरे नर के सामने वह वेदि का ढेला उठा ले और ब्याही जाए।
प्रश्न – मिट्टी के ढेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए-
पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।।
उत्तर – इस साखी के माध्यम से कबीर धार्मिक आडंबरों और मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि अगर पत्थर के रूप में मूर्ति की पूजा करने से भगवान मिलने लगते तो वह पहाड़ की पूजा करेंगे। इन पत्थर की मूर्तियों से पत्थर की बनी चक्की अच्छी है जिससे आटा पीसा जाता है और सारे संसार का पेट भरता है। ऐसे ही स्थिति मिट्टी के ढेलों की है। मिट्टी के ढेलों से जीवन साथी का चुनाव करना एक दूषित परंपरा है। इसको समाप्त किया जाना चाहिए।
प्रश्न – जन्मभर के साथी का चुनाव मिट्टी के ढेले पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए बेटी का शिक्षित होना अनिवार्य है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के संदर्भ में विचार कीजिए।
उत्तर – जन्मभर के साथी का चुनाव मिट्टी के ढेले पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए बेटी का शिक्षित होना अनिवार्य है। बेटी अगर शिक्षित होगी तो वह सही-गलत का निर्णय आसानी से करेगी। किसी अंधविश्वासी परंपरा का शिकार होने से अच्छा है कि जीवन साथी का चुनाव समझदारी के साथ किया जाए। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे द्वारा आज समाज को यही संदेश देने की आवश्यकता है कि लड़का और लड़की दोनों एक समान है। परिवास, समाज और राष्ट्र के विकास में दोनों का समान महत्व है। इसलिए दोनों ही को जीवन को तर्कपूर्ण ढंग से जीने का अधिकार है। किसी का अधिकार कम या ज्यादा नहीं है।
प्रश्न – निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों – मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।’
उत्तर – लेखकर दोनों ही बातों पर व्यंग्य करता है। जिस प्रकार मिट्टी के ढेलों के अनुसार अपने जीवन साथी का चुनाव करना बुरा है उसी तरह लाखों करोड़ों किलोमीटर दूरी पर स्थित मिट्टी और आग के ग्रहों जैसे मंगल, शनि आदि की चाल पर भरोसा करना भी बुरा है। इन परंपराओं का जीवन के साथी के चुनाव से कोई संबंध नहीं है। ऐसी मान्यताएँ व्यक्ति को वास्तविकता से दूर रखकर उसका शोषण करती हैं।
(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।’
उत्तर – इस कथम के द्वारा लेखक ज्योतिष विज्ञान पर व्यंग्य करता है। लेखक व्यक्ति को आज में जीने के प्रेरित करता है। वह कहता है कि हमें कल की कपोल कल्पनाओं में समय व्यतीत करने की बजाए यथार्थ जीवन को महत्व देना चाहिए। वर्तमान में भले ही हमारे पास कुछ कम ही हो लेकिन वो भविष्य के उस स्वप्न से बेहतर है जो हमें अंधविश्वासी बना देता है।
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