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सुदामा चरित (कविता का अर्थ)
सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु! जाने को आहि बसे केहि ग्रामा।
धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह को नहि सामा।।
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकिसाें बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा।।
शब्दार्थ :- पगा – पगड़ी। झँगा – ढीला कुरता। आहि – है। लटी – लटकना। दुपटी – अंगोछा, गमछा। उपानह – जूता। द्विज – ब्राह्मण। चकिसाें – चकित, विस्मित। वसुधा – पृथ्वी। अभिरामा – सुंदर।
भावार्थ :- इस पद में कवि नरोत्तमदास ने उस समय का वर्णन किया है जब सुदामा के श्रीकृष्ण के महल के द्वार पर खड़े होकर अंदर जाने की आज्ञा माँगते हैं।
श्रीकृष्ण का द्वारपाल आकर श्रीकृष्ण को बताता है कि द्वार पर बिना पगड़ी और ढीला कुर्ता पहने खड़ा है। उसकी धोती फटी हुई है और बिना जूतों के एक कमज़ोर आदमी फटी-सी धोती पहने खड़ा है। वो आश्चर्य से द्वारका को देख रहा है और अपना नाम सुदामा बताते हुए आपका पता पूछ रहा है।
ऐसे बेहाल बिवाइन सों, पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।
हाय! महादुख पायो सखा, तुम आए इतै न कितै दिन खोए।।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।।
शब्दार्थ :- बेहाल – बुरे हाल। बिवाइन – पाँव की एड़ी का फटना। पग – पैर। कंटक – काँटा। पुनि जोए – निकालना। जोए – ढूँढ़ना। महादुख – गहरा दुख, कष्ट। पायो – सहन करना। सखा – मित्र। इतै – यहाँ। कितै – कितने। खोए – खराब, व्यर्थ गँवाना। करुना – दया। करुनानिधि – दयावान, कृष्ण। परात – थाली की तरह का पीतल आदि धातु से बना एक बड़ा और गहरा बरतन।
भावार्थ :- द्वारपाल से सुदामा के आने की बात सुनते ही श्रीकृष्ण स्वयं सुदामा को लेने जाते हैं। सुदामा के पैरों के छाले और चुभे काँटे देखकर श्रीकृष्ण को दुख होता है और वे काँटों को चुन-चुन कर निकालते हैं। कृष्ण कहते हैं कि हे मित्र! तुमने बड़े दुखों में जीवन बिताया है। तुम इतने दिनों में मुझसे मिलने क्यों नहीं आए। सुदामा की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण की आँखों से आँसू बह पड़ते हैं और पानी की परात को छुए बिना ही अपने आंसुओं से सुदामा के पैर धो देते हैं।
कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहो केहि हेतु।।
शब्दार्थ :- कछु – कुछ। काहे – क्यों। देत – देते हो। चाँपि – छिपाकर। पोटरी – पोटली। काँख – बगल में। केहि – किस। हेतु – कारण।
भावार्थ :- श्रीकृष्ण सुदामा से कहते हैं कि भाभी ने जो कुछ में मेरे लिए भेजा है तुम वह मुझे क्यों नहीं दे रहे हो। इस पोटली को अपनी बगल में किस कारण से दबा रखा है?
आगे चना गुरुमातु दए ते, लए तुम चाबि हमें नहिं दीने।
स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों, “चोरी की बान में हौ जू प्रवीने।।
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा रस भीने।
पाछिलि बानि अजौ न तजो तुम, तैसई भाभी के तंदुल कीन्हे।।”
शब्दार्थ :- गुरुमातु – गुरुमाता। दए – दिए। ते – थे। लए – लिए। चाबि – चबा लिए। दीने – दिए। बान – आदत। प्रवीने – कुशल। पोटरि – पोटली। काँख – बगल में। चाँपि – छिपाकर। सुधा – अमृत। भीने – सुगंध। पाछिलि बानि – पिछली आदत। तजो – छोड़ो। तंदुल – चावल।
भावार्थ :- इन पंक्तियों में कृष्ण सुदामा को उलाहना देते हुए कहते है कि बचपन में तुमने गुरुमाता के दिए हुए चने खुद ही चबा लिए थे, मुझे नहीं दिए थे। कृष्ण मुसकाते हुए सुदामा से कहते हैं कि तुम चोरी की आदत में निपुण हो। इसलिए तुम अमृत की सुगंध दे रही इस पोटली को खोल नहीं रहे हो और अपनी बगल में दबा कर बैठे हो। तुमने चोरी की अपनी पिछली आदत अभी तक नहीं छोड़ी, जिसके कारण तुम भाभी के भेजे हुए चावल मुझसे छिपा रहे हो।
वह पुलकनि, वह उठि मिलनि, वह आदर की बात।
वह पठवनि गोपाल की, कछू न जानी जात।।
कहा भयो जो अब भयो, हरि को राज-समाज।
घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
हौं आवत नाहीं हुतौ, वाही पठयो ठेलि।।
अब कहिहौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि।।
शब्दार्थ :- पुलकनि – खुशी, उमंग। उठि मिलनि – उठकर मिलना। पठवनि – भेजना, विदाई। राज-समाज – राज्य में। ओड़त फिरे – इधर-उधर फिरना। तनक – थोड़ी। काज – के लिए। हुतौ – यहाँ। वाही – उसी ने (सुदामा की पत्नी ने)। पठयो ठेलि – भेजा था। बहु – बहुत सारा। धन – संपत्ति। धरौ – रखा है। सकेलि – इकट्ठा करना।
भावार्थ :- इन पंक्तियों में कृष्ण के पास से वापिस लौटते हुए सुदामा की मनोदशा का वर्णन है। सुदामा सोचते हैं कि कृष्ण अति प्रसन्न होकर अपने स्थान से उठकर मुझसे मिलते हैं और राजा होते हुए मुझे आदर देते है। फिर मुझे वापिस भेज देते हैं और मेरी जाति भी नहीं पूछी अर्थात ये तक नहीं पूछा कि मैं क्यों द्वारका आया हूँ। हरि (कृष्ण) का राज्य समाज अब मैंने देख लिया है। कहाँ तो कृष्ण थोड़ी-सी दही के लिए घर-घर हाथ जोड़े फिरते थे और कहाँ अब राज्य का राज संभाल रहे हैं।
सुदामा स्वयं से कहते हैं कि मैं तो आना ही नहीं चाहता था, उसने (सुदामा की पत्नी) ही मुझे यहाँ भेजा। अब मैं उसे समझाऊंगा कि कृष्ण के द्वारा बहुत धन दिया हुआ है इसे इकट्ठा कर लो।
वैसोई राज-समाज बने, गज, बाजि घने मन संभ्रम छायो।
कैधों पर्यो कहुँ मारग भूलि, कि फैरि कै मैं अब द्वारका आयो।।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत, अब सोचत ही सब गाँव मझायो।
पूँछत पाड़े फिरे सब सों पर, झोपरी को कहुँ खोज न पायो।
शब्दार्थ :- बिलोकिबे – देखना। मझायो – बीच में।
भावार्थ :- कृष्ण के विषय में सोचते हुए जब सुदामा अपने गाँव लौटते हैं तो उस समय वो देखते हैं कि जैसा राजमहल और हाथी-घोड़े उसने द्वारका में देखे थे वैसे ही अपने गाँव में देखकर उनके मन में भ्रम पैदा हो जाता है। वे सोचते हैं कि लगता है कि मार्ग भूलकर फिर से द्वारका नगरी पहुँच गया हूँ। उनका अपने घर को देखने के व्याकुल हो उठता है, अपने घर के बारे में सोचते-सोचते वे गाँव के बीच में आ जाते हैं। वे सब से अपने घर के बारे में पूछते हैं लेकिन कहीं भी अपनी झोपड़ी को खोज नहीं पाते।
कै वह टूटी-सी छानी हती, कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती, कहँ लै गजराजहु ठाढ़े महावत।।
भूमि कठोर पै रात कटै, कहँ कोमल सेज पै नींद न आवत।।
के जुरतो नहिं कोदो सवाँ, प्रभु के परताप ते दाख न भावत।।
शब्दार्थ :- कै – कहाँ। छानी – झोपड़ी। कहँ – कहाँ। कंचन – सोना, स्वर्ण। धाम – रहने का स्थान। सुहावत – सुंदर/भला लगना। पग – पैर। पनही – जूता। गजराजहु – हाथी। महावत – हाथीवान। सेज – सोने का स्थान, शैय्या। जुरत – जुटना, प्राप्त होना। कोदो – धान (चावल) की निम्न किस्म। दाख – एक मूल्यवान मावा।
भावार्थ :- कृष्ण के प्रताप से सुदामा को स्वर्ण-महल, धन-संपदा, हाथी-घोड़े, सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं। ऐसे में सुदामा की मनोदशा कैसी होती है, यह इन पंक्तियों में दर्शाया गया है।
कहाँ तो सुदामा के पास टूटी-फूटी छोटी-सी झोपड़ी हुआ करती थी, कहाँ अब वह सोने के महल में रह रहा है। कहाँ उसके पैरों में पहनने के लिए जूता नहीं होता था, कहाँ वह हाथी पर महावत लेकर चल रहा है। एक समय था जब सुदामा कठोर भूमि पर आराम से सो जया करता था और अब उसे कोमल-मखमली सेज पर नींद नहीं आती है। दरिद्रता के समय निम्न किस्म का चावल एकत्र करने के लिए सुदामा को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता था और आज उसका समय ऐसा आ गया कि उसे दाख जैसा मूल्यवान मावा भी नहीं भा रहा अर्थात मावा खाते-खाते उसका जी भर गया है।
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सुदामा चरित
(प्रश्न-उत्तर)
कविता से
प्रश्न :- सुदामा की दीनदशा देखकर श्रीकृष्ण की क्या मनोदशा हुई? अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :- द्वारपाल से सुदामा के आने की बात सुनते ही श्रीकृष्ण स्वयं सुदामा को लेने जाते हैं। सुदामा के पैरों के छाले और चुभे काँटे देखकर श्रीकृष्ण को दुख होता है और वे काँटों को चुन-चुन कर निकालते हैं। कृष्ण कहते हैं कि हे मित्र! तुमने बड़े दुखों में जीवन बिताया है। तुम इतने दिनों में मुझसे मिलने क्यों नहीं आए। सुदामा की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण की आँखों से आँसू बह पड़ते हैं और पानी की परात को छुए बिना ही अपने आंसुओं से सुदामा के पैर धो देते हैं।
प्रश्न :- ”पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।” पंक्ति में वर्णित भाव का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर :- सुदामा की दयनीय दशा देखकर श्रीकृष्ण की आँखों से आँसू बह पड़ते हैं और पानी की परात को छुए बिना ही अपने आंसुओं से सुदामा के पैर धो देते हैं।
प्रश्न :- ‘चोरी की बान में हौ जू प्रवीने।’
(क) उपर्युक्त पंक्ति कौन, किससे कह रहा है?
उत्तर :- कृष्ण सुदामा से कह रहे हैं।
(ख) इस कथन की पृष्ठभूमि स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- इन पंक्तियों में कृष्ण सुदामा को उलाहना देते हुए कहते है कि बचपन में तुमने गुरु से आश्रम में गुरुमाता के दिए हुए चने खुद ही चबा लिए थे, मुझे नहीं दिए थे। कृष्ण मुसकाते हुए सुदामा से कहते हैं कि तुम चोरी की आदत में निपुण हो।
(ग) इस उपालंभ (शिकायत) के पीछे कौन-सी पौराणिक कथा है?
उत्तर :- एक बार की बात है। जब कृष्ण तथा सुदामा ऋषि संदीपनी के आश्रम में विद्या ले रहे थे। इसी क्रम में सभी विद्यार्थियों को जंगल से लकड़ियाँ लाने के लिए भेजा जाता था। एक दिन कृष्ण और सुदामा की बारी आई। दोनों जंगल में लकड़ी लेने जाते हैं। अचानक तेज वर्षा होने लगती है। वे वहाँ से निकल नहीं पाते और रात हो जाती है। जंगली जानवरों से बचने के लिए दोनों पेड़ पर चढ़कर रात बिताने की योजना बनाते हैं। रात को नींद न आ जाए और पेड़ से गिर न जाऊँ, ये सोचकर सुदामा गुरुमाता का दिया हुआ चिउड़ा खाना शुरू कर देते हैं और बातों-बातों में कृष्ण के हिस्से का भी चिउड़ा खा जाते हैं।
प्रश्न :- द्वारका से खाली हाथ लौटते समय सुदामा मार्ग में क्या-क्या सोचते जा रहे थे? वह कृष्ण के व्यवहार से क्यों खीझ रहे थे? सुदामा के मन की दुविधा को अपने शब्दों में प्रकट कीजिए।
उत्तर :- इन पंक्तियों में कृष्ण के पास से वापिस लौटते हुए सुदामा की मनोदशा का वर्णन है। सुदामा सोचते हैं कि कृष्ण अति प्रसन्न होकर अपने स्थान से उठकर मुझसे मिलते हैं और राजा होते हुए मुझे आदर देते है। फिर मुझे वापिस भेज देते हैं और मेरी जाति भी नहीं पूछी अर्थात ये तक नहीं पूछा कि मैं क्यों द्वारका आया हूँ। हरि (कृष्ण) का राज्य समाज अब मैंने देख लिया है। कहाँ तो कृष्ण थोड़ी-सी दही के लिए घर-घर हाथ जोड़े फिरते थे और कहाँ अब राज्य का राज संभाल रहे हैं।
सुदामा स्वयं से कहते हैं कि मैं तो आना ही नहीं चाहता था, उसने (सुदामा की पत्नी) ही मुझे यहाँ भेजा। अब मैं उसे समझाऊंगा कि कृष्ण के द्वारा बहुत धन दिया हुआ है इसे इकट्ठा कर लो।
प्रश्न :- अपने गाँव लौटकर जब सुदामा अपनी झोंपड़ी नहीं खोज पाए तब उनके मन में क्या-क्या विचार आए? कविता के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :- कृष्ण के विषय में सोचते हुए जब सुदामा अपने गाँव लौटते हैं तो उस समय वो देखते हैं कि जैसा राजमहल और हाथी-घोड़े उसने द्वारका में देखे थे वैसे ही अपने गाँव में देखकर उनके मन में भ्रम पैदा हो जाता है। वे सोचते हैं कि लगता है कि मार्ग भूलकर फिर से द्वारका नगरी पहुँच गया हूँ। उनका अपने घर को देखने के व्याकुल हो उठता है, अपने घर के बारे में सोचते-सोचते वे गाँव के बीच में आ जाते हैं। वे सब से अपने घर के बारे में पूछते हैं लेकिन कहीं भी अपनी झोपड़ी को खोज नहीं पाते।
प्रश्न :- निर्धनता के बाद मिलनेवाली संपन्नता का चित्रण कविता की अंतिम पंक्तियों में वर्णित है। उसे अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :- कृष्ण के प्रताप से सुदामा को स्वर्ण-महल, धन-संपदा, हाथी-घोड़े, सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं। ऐसे में सुदामा की मनोदशा कैसी होती है, यह इन पंक्तियों में दर्शाया गया है।
कहाँ तो सुदामा के पास टूटी-फूटी छोटी-सी झोपड़ी हुआ करती थी, कहाँ अब वह सोने के महल में रह रहा है। कहाँ उसके पैरों में पहनने के लिए जूता नहीं होता था, कहाँ वह हाथी पर महावत लेकर चल रहा है। एक समय था जब सुदामा कठोर भूमि पर आराम से सो जया करता था और अब उसे कोमल-मखमली सेज पर नींद नहीं आती है। दरिद्रता के समय निम्न किस्म का चावल एकत्र करने के लिए सुदामा को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता था और आज उसका समय ऐसा आ गया कि उसे दाख जैसा मूल्यवान मावा भी नहीं भा रहा अर्थात मावा खाते-खाते उसका जी भर गया है।
कविता से आगे
प्रश्न :- द्रुपद और द्रोणाचार्य भी सहपाठी थे, इनकी मित्रता और शत्रुता की कथा महाभारत से खोजकर सुदामा के कथानक से तुलना कीजिए।
उत्तर :- द्रुपद और द्रोणाचार्य भी सहपाठी थे। सहपाठी रहते हुए उन दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी। आश्रम से निकलने के बाद द्रुपद राजा बन गए और द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के राजकुमारों को शिक्षा देने लगे। एक दिन अपनी पत्नी के आग्रह पर द्रोणाचार्य राजा द्रुपद से राजमहल में जाते हैं और अपनी मित्रता की दुहाई देते हुए एक गाय की माँग करते है। इस पर राजा द्रुपद उनका उपहास करते हैं और कहते हैं कि राजा व फकीर में मित्रता नहीं हो सकती। याचक के रूप में जो माँगना हो माँग लो, लेकिन अब में तुम्हारा मित्र नहीं हूँ। द्रोणाचार्य अपमानित होकर वहाँ से लौट आते हैं। इस प्रकार दोनों में शत्रुता हो जाती है।
इसके विपरीत कृष्ण और सुदामा की मित्रता जगत विख्यात है। कृष्ण बिना किसी भेदभाव के सुदामा को अपने पास बैठते है, उनके साथ भोजन करते हैं। कृष्ण की कृपा से सुदामा टूटी झोपड़ी से निकलकर राजमहल में रहने लगते हैं।
प्रश्न :- उच्च पद पर पहुँचकर या अधिक समृद्ध होकर व्यक्ति अपने निर्धन माता-पिता-भाई-बंधुओं से नजर फेरने लग जाता है, ऐसे लोगों के लिए सुदामा चरित कैसी चुनौती खड़ी करता है? लिखिए।
उत्तर :- ऐसे लोगों के लिए सुदामा चरित कैसी चुनौती खड़ी होती है कि उच्च पद पर पहुँचकर या अधिक समृद्ध होकर व्यक्ति अपने निर्धन माता-पिता-भाई-बंधुओं से नजर न फेरे, बल्कि माता-पिता-भाई-बंधुओं के साथ विनम्रता का भाव रखते हुए व्यवहार करें।
अनुमान और कल्पना
प्रश्न :- अनुमान कीजिए यदि आपका कोई अभिन्न मित्र आपसे बहुत वर्षों बाद मिलने आए तो आप को कैसा अनुभव होगा?
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
प्रश्न :- कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति। विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत।।
इस दोहे में रहीम ने सच्चे मित्र की पहचान बताई है। इस दोहे से सुदामा चरित की समानता किस प्रकार दिखती है? लिखिए।
उत्तर :- इस दोहे में रहीम विपत्ति के समय मित्र के काम आने व्यक्ति को ही सच्चा मित्र कह रहे है। सुदामा चरित में भी कृष्ण द्वारका नागरी के राजा होते हुए अपने बचपन के मित्र की विपत्ति में सहायता करते हैं। इस प्रकार दोनों में समानता दिखाई देती है।
भाषा की बात
प्रश्न :- ‘पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सो पग धोए’ ऊपर लिखी गई पंक्ति को ध्यान से पढ़िए। इसमें बात को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर चित्रित किया गया है। जब किसी बात को इतना बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है तो वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। आप भी कविता में से एक अतिशयोक्ति अलंकार का उदाहरण छाँटिए।
उत्तर – भूमि कठोर पै रात कटै, कहँ कोमल सेज पै नींद न आवत।।
कुछ करने को
प्रश्न :- इस कविता को एकांकी में बदलिए और उसका अभिनय कीजिए।
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
प्रश्न :-कविता के उचित सस्वर वाचन का अभ्यास कीजिए।
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
प्रश्न :-‘मित्रता’ संबंधी दोहों का संकलन कीजिए।
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
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