अपभ्रंश नाम का सर्वप्रथम उल्लेख वल्लभी राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है
‘चण्ड’ वैयाकरण थे जिन्होंने सर्वप्रथम अपभ्रंश भाषा का नामोल्लेख किया।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 1921 की नागरी प्रचारिणी पत्रिका में ‘पुरानी हिंदी’ शीर्षक से एक लेखमाला शुरू की, जिसमें उन्होंने सर्वप्रथम उत्तर अपभ्रंश को पुरानी हिंदी बताया। उनके अनुसार अपभ्रंश साहित्य हिंदी साहित्य के इतिहास का अनिवार्य अंग है।
राहुल और शुक्ल जी इसी मत के समर्थक हैं। शुक्ल जी ने पुरानी हिंदी को ही ‘प्राकृताभास हिंदी’ या ‘अपभ्रंश’ कहा है
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार उत्तर अपभ्रंश हिंदी नहीं है, परन्तु हिंदी के अत्यंत निकट है। अतः उसके साहित्य को हिंदी के आदिकालीन साहित्य में रखना चाहिए।
हजारी प्रसाद – ‘‘इसी अपभ्रंश के बढ़ाव को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिंदी।
हजारी प्रदास द्विवेदी ने कहा – ‘अपभ्रंश को अब कोई पुरानी हिंदी नहीं कहता।’
रामविलास शर्मा के अनुसार, अपभ्रंश का व्याकरण हिंदी के व्याकरण से पूर्णतः भिन्न है, इसलिए अपभ्रंश साहित्य को हिंदी साहित्य के इतिहास में शामिल नहीं किया जा सकता।
रामविलास शर्मा ने आधुनिक आर्य भाषाओं को अपभ्रंश से उत्पन्न न मानते हुए संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश और अपभ्रंश से आधुनिक आर्यभाषाओं के सुपरिचित विकास क्रम को ‘सुगम नसेनी’ कह कर इस अवधारणा का विरोध किया।
शिवसिंह सेंगर ने 7वीं शताब्दी के ‘पुष्य’ या ‘पुण्ड’ कवि को हिंदी का पहला कवि माना है। किन्तु इनकी कोई रचना नहीं है।
शुक्ल ने पृथ्वीराज रासो के रचनाकार चन्दबरदाई को हिंदी का पहला कवि माना है।
डाक्टर गणिपति चन्द्र गुप्त ने भरतेश्वर बाहुबलि रास के रचयिता शालिभद्र सूरि को हिंदी का पहला कवि माना है।
राहुल जी व अन्य विद्वान आदिकाल का आरंभ सरहपा (हिंदी के प्रथम कवि 769 ई-) से मानते हैं जिसे मानना उचित भी है।