आदिकालीन सिद्ध साहित्य
- सिद्धों की संख्या 84 बतायी जाती है।
- सिद्धों का समय 8 वी से 12 वीं शताब्दी माना जाता है।
- सिद्ध बौद्धधर्म के परवर्ती स्वरूप में वज्रयानी शाखा से संबंधित थे।
- सिद्धों ने महासुखवाद का प्रर्वतन किया।
- प्रथम सिद्ध कवि – सरहपाद. इनका समय 769 ई- राहुल जी ने माना है. राहुल ने हिंदी का पहला कवि माना है। सरहपाद के अन्य नाम – सरहपा, सरोरूहपाद, सरोजवज्र. सरहपा ने सहजयान का प्रवर्तन किया। दोहाकोष इनकी रचना है। इसकी भाषा परिनिष्ठित हिंदी है।
- सिद्धों ने नैरात्म्य भावना, कायसाधना, सहज, शून्य तथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है।
- इन्होंने ब्राह्मणवाद, जाति-पाति तथा झूठे आचारों का तीव्र खंडन किया है।
- सिद्धों की भाषा – संधा भाषा थी।
- संधा भाषा में प्रतीकों के माध्यम से अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत होता है।
- संधा भाषा शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ‘दोहाकोश’ की अद्वयवजृ कृत टीका में मिलता है।
- सिद्धों ने चर्यापद (अनुष्ठान गीत) तथा दोहे रचे हैं।
- बेंडल ने सर्वप्रथम ‘सिद्ध साहित्य’ के संपादन का कार्य शुरू किया।
- हरप्रसाद शास्त्री ने बौद्धगान ओ दोहा नाम से सन् 1917 में कुछ सिद्धों के चर्यापदों व दोहाकोशों का संपादन किया।
- प्रबोधचंद बागची ने दोहाकोश नाम से सिद्धों के दोहो को छपवाया।
- राहुल जी ने भी ‘हिंदी काव्यधारा’ शीर्षक से चर्यापदों और दोहों का एक संकलन संपादित किया।
- चर्यापद – इनको ‘चर्यागीत भी कहा जाता है। ये पद या गीत सामान्यतः अनुष्ठानों के समय गाये जाते हैं। इनके रचयिता सिद्धाचार्य कहलाये। राग-रागनियों में बंधें चर्यागीतों में सिद्धों की अनुभूति और रहस्य भावना की अभिव्यक्ति विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से हुई है। ये संधा भाषा में दृष्टकूट शैली में लिखें गए, जिनके दोहरे अर्थ होते हैं। चर्यापदों की रचना अवहट्ठ भाषा में हुई।
- दोहाकोष और चर्यापदों के परवर्ती प्रभाव के बारे में शुक्ल का मत है – ‘‘यही भेद आगे चलकर हम कबीर की साखी और रमैनी (गीत) की भाषा में पाते हैं। साखी की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित ‘सुधक्कड़ी’ है पर रमैनी के पदों की भाषा में ब्रज भाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली है।’’
- अन्य प्रमुख सिद्ध हैं –
- शबरपा (780) – इनकी रचना चर्यापद है। ये माया-मोह को त्यागकर सहज जीवन पर बल देते थे। उसी को महासुखवाद की प्राप्ति का मार्ग बताते थे। शबरपा ने सरहपा से ज्ञान प्राप्त किया।
- लुईपा – ये शबरपा के शिष्य थे। चौरासी सिद्धों में इनका स्थान सबसे उॅफ़चा माना जाता है। इनकी रचनाओं में रहस्य भावना प्रधान है।
- कण्हपा (820) – राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये पाण्डित्य और कवित्व में बेजोड़ थे। इन्होेंने नाना पुराण निगमादि की शास्त्रीय रूढ़ियों का विरोध किया।
- डोम्भिपा (840) – इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- डोम्बि गीतिका, योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश