आदिकालीन रासो साहित्य
- रासो शब्द की उत्पति शुक्ल ने रसायण से मानी है।
- हजारी प्रदास द्विवेदी ने रासो की उत्पति रासक से मानी है।
- गार्सा दा तासी ने रासो की उत्पति राजसु से मानी है।
- कुछ रासो रचनाए-
लेखक | समय | रचना | |||||||||||||||
दलपति विजय | 12वी सदी | (1) खुमाण रासो (राजस्थानी हिंदी) – 5000 छंद | |||||||||||||||
श्रीधर | 1397 ई | (2) रणमल्ल छंद – अनेक विद्वान इसे आदिकाल में न मानकर परवर्ती मानते हैं। | |||||||||||||||
नल्ल सिंह | (3) विजयपाल रासो – इसमें विजयपाल के पंग राजा से हुए युद्ध का वर्णन है। मिश्रबंधुओं ने इसे 14 वीं सदी की रचना माना है। | ||||||||||||||||
नरपति नाल्ह | 12वी सदी | (4) बीसलदेव रासो (राजस्थानी हिंदी, गीतिकाव्य) – इसमें भोज परमार की पुत्री राजमति और अजमेर के चौहान बीसलदेव तृतीय के विवाह, वियोग और पुनर्मिलन की कथा है।
‘बारह से बहोतरा मझारि। जैठबदी नवमी बुधवारि। ‘‘दव का दाधा हो कूपल लेई। ‘‘संवत् सहस तिहतर जानि।’’ |
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जगनिक | (5) परमाल रासो (आल्हाखंड) – यह मौखिक परंपरा में ‘आल्हा’ लोकगीत शैली में गाया जाता है। यह पूरा वीर छंद में है। चार्ल्स इलियट ने सन् 1865 में इसका प्रकाशन करवाया।
बारह बरस लौं कूकर जीवै, अरु तेरह लौं जिये सियार। |
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चंदबरदाई
(हिंदी के प्रथम महाकवि) |
1126 से 1196 | (6) पृथ्वीराज रासो (राजस्थानी डिंगल, हिंदी का प्रथम महाकाव्य) 68 प्रकार के छंद हैं। यह सबसे विवादस्पद महाकाव्य है। इसके चार संस्करण है –
पृथ्वीराजरासो की प्रमाणिकता –
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