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संत काव्य धारा

 इस शाखा का नामकरण विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार किया है-
(1) निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा – रामचंद्र शुक्ल
(2) निर्गुण भक्तिधारा साहित्य – हजारी प्रसाद द्विवेदी
(3) संतकाव्य परंपरा – डॉ. रामकुमार वर्मा

संत काव्य धारा का प्रवर्तन कबीरदास ने किया। इस काव्यधारा के प्रमुख कवियों का विवरण निम्न प्रकार है –

कबीर (1397 से 1518 ई-)

नोट : कबीर सुल्तान सिकंदर लोदी के समकालीन थे।

जनश्रुति के अनुसार कबीर का जन्म वाराणसी में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। लोक लज्जा के भय से उसने नवजात शिशु को वाराणसी में लहरतारा के पास एक तालाब के समीप छोड़ दिया। जुलाहा नीरु तथा उसकी पत्नी नीमा इस नवजात शिशु को अपने घर ले आये। इस बालक का नाम कबीर रखा गया।

कबीर ने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माने। इन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकांड, बाह्य आडम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए एकेश्वरवाद में आस्था व्यक्त की एवं निराकार ब्रहा की उपासना को महत्त्व दिया। इनके अनुयायी ‘कबीरपंथी’ कहलाए। कबीरदास की मृत्यु मगहर में हुई।

कबीर की रचना बीजक तीन भागों में है – साखी, सबद और रमैनी। कबीर के 250 शबद गुरूग्रंथ साहिब में हैं – इसका संकलन गुरू अर्जुनदेव(5वें गुरू) ने 1605 में किया। साखियों में पूर्वी का प्रयोग अधिक है। रमैनी और सबद ब्रज भाषा में हैं। उनकी भाषा को सधुक्कड़ी कहा गया है। इसमें ब्रजभाषा, अवधी और राजस्थानी भाषा के शब्द पाये जाते हैं। कबीर तथा अन्य संतो की उलटबासियॉं प्रसिद्ध अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों की असामान्य प्रतीकों में प्रकट करती हैं। जिनका पूर्वरूप हमें सिद्धों की ‘संघाभाषा’ में मिलता है। हजारी प्रसाद ने कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा। कबीर के समकालीन रैदास व सिकंदर लोदी थे। बच्चन सिंह ने कबीर को ‘रैडिकल सुधारक’ कहा।

कबीर वाणी के मुख्य संकलनकर्ता हैं –

बीजक धर्मदास
सत्यकबीर की साखी युगलानंद
सिखों का दशम ग्रंथ श्यामसुंदर दास
कबीर ग्रंथावली श्यामसुंदर दास
संत कबीर रामकुमार वर्मा
कबीर रचनावली हरिऔध
कबीर के पद क्षितिमोहन सेन
कबीर ग्रंथावली (1928) श्मामसुंदर दास
कबीर ग्रंथावली (1961) पारसनाथ तिवारी
कबीर ग्रंथावली माताप्रसाद गुप्त

 
कबीर की प्रमुख पंक्तियॉं –
1- ‘संस्कीरत है कूपजल भाखा बहता नीर।’
2- ‘संतो, भक्ति सतगुरू आनी।’
3- ‘भक्ति द्राविडी उपजी लाए रामानंद।’
4- ‘ए अंखियां अलसानी, पिया हो सेज चलो।’
5- ‘पंडित और मसालची दोनों सूझे नाहिं।’
6- ‘गुरू परसादी जैदेव नामा। भक्ति कै प्रेम इन्हीं है जाना।’
7- ‘मै कहता हॅूं आखिन देखी। तू कहता कागद की लेखी।’
8- ‘मसि, कागद छूयौ नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ।’
9- ‘जाति-पाति पूछै नहीं कोई, हरि का भजै सो हरि का होई।’
10- ‘तुम जिन जानौ गीत है, यहु निज ब्रह्म विचार।’
11- ‘एकै साखी सौ सिर खंडै।’
12- ‘हरि जननी मै बालक तोरा।’
13- ‘कहो भइया अंबर कासौ लागा।’
14- ‘न जाने तेरा साहब कैसा है।’
15- ‘पांडे कौन कुमति तोहि लागी।’
16- ‘जरा मुई न भय हुआ कुसल कहां ते होय’
17- ‘चलन-चलन सब लोग कहत हैं, न जाने बैकुंठ कहॉं है।’

 

रैदास

ये रामानंद के बारह शिष्यों में एक थे। इनका जन्म काशी में हुआ। ये जाति के चमार थे। ये जूता बनाकर जीविकोपार्जन करते थे।  रैदास के 40 पद ‘गुरू ग्रंथ साहिब’ तथा कुछ फुटकल पद ‘संतबाणी’ में संकलित हैं। मीराबाई रैदास की शिष्या थी। इन्होंने रायदासी सम्प्रदाय की स्थापना की।

गुरूनाक देव ( 1469 तलवंडी पंजाब – 1539 ई-)

 गुरु नानक का जन्म 1469 ई० अविभाजित पंजाब के तलवण्डी नामक स्थान पर हुआ था, जो अब ननकाना साहिब के नाम से विख्यात है। उनकी माता का नाम तृप्ता देवी तथा पिता का नाम कालूराम था। बटाला के मूलराज खत्री की बेटी, सुलक्षणी से उनका विवाह हुआ जिससे उन्हे दो पुत्र हुए। उन्होंने देश का पाँच बार चक्कर लगाया, जिसे उदासीस कहा जाता है। उन्होंने कीर्तनों के माध्यम से उपदेश दिए। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने रावी नदी के किनारे करतारपुर में अपना डेहरा (मठ) स्थापित किया। अपने जीवन काल में ही उन्होंने आध्यात्मिक आधार पर अपने पुत्रों की जगह अपने शिष्य भाई लहना (अगंद) की अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इनकी मृत्यु 1539 ई० में करतारपुर में हुई। नानक ने सिक्ख धर्म की स्थापना की। नानक सूफी संत बाबा फरीद से प्रभावित थे। सिख धर्म के प्रवर्तक नानकदेव ने सिखों के दशम ग्रंथ में ‘कबीर की वाणीं’ का संकलन किया था। उनके अपने अनेक आदि गुरू ग्रंथ साहिब के ‘महला’ प्रकरण में संकलित हैं। ‘जपुजी’ नानक दर्शन का सारतत्व है। उनकी रचनाओं में सबद और श्लोक मिलते हैं। नानकदेव के पुत्र ‘श्रीचंद’ ने ‘उदासी संप्रदाय’ का प्रवर्तन किया।

नानक की रचनाएँ हैं
(1) जपुजी
(2) असा दीवार
(3) रहिरास
(4) सोहिला (पंजाबी में)
(5) नसिहतनामा (खड़ी बोली का भाषिक रूप)
(6) प्रह्लाद लीला

दादूदयाल (1544 – 1603)

ये कबीर के अनुयायी थे। इनका जन्म अहमदाबाद, गुजरात में हुआ था । इनका संबंध धुनिया जाति से था। साँभर में आकर इन्होंने ब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की। अकबर ने धार्मिक चर्चा के लिए इन्हें एक बार फतेहपुर सीकरी बुलाया था। इन्होंने ‘निपख’ नामक आन्दोलन की शुरुआत की। सुंदरदास दादू के शिष्य थे । दादूदयाल ने ब्रह्म संप्रदाय की स्थापना की जो आगे चलकर ‘परब्रह्म संप्रदाय’ हो गया। कालान्तर में इसे दादूपंथ के नाम से जाना गया। इनकी रचनाओं का संकलन परशुराम चतुर्वेदी द्वारा संपादित ‘दादूदयाल’ में सुलभ है। इनके शिष्य रज्जब, सुंदरदास, प्रागदास, संतदास, जगन्नाथदास आदि थे।
इनकी रचनाएँ हैं
(1) हरडेवाणी (इसका संकलन इनके शिष्यों संतदास और जगन्नाथदास ने किया।)
(2) अंगवधू (इसका संकलन इनके शिष्य रज्जब ने किया।)
(3) दादू के पद ब्रज भाषा में हैं।

सुंदरदास (1596–1689)

संतों में महाकाव्य के शास्त्रीय पक्ष के मर्मज्ञ सुंदरदास एकमात्र संत हैं। सुंदरदास दादूदयाल के शिष्य थे।
इनके 42 ग्रंथों में निम्न प्रमुख हैं –
(1) ज्ञानसमुद्र
(2) सुंदरविलास
(3) ध्रुवलीला
पंक्ति है – ‘रस गगन गुफा में अजर झरै।’

मलूकदास (1574)

मलूकदास ने अवधी और ब्रजभाषा में काव्यरचना की है। इनका जन्म इलाहबाद के गॉंव में हुआ। इनके ग्रंथ हैं – ज्ञानबोध, रामावतारलीला, सतनखान (रसखान), भक्तवच्छावली, ज्ञानपराछि, ब्रजलीला, ध्रुवचरित, सुखसागर, भक्तिविवेक

प्रसिद्ध पंक्तियॉ –
1- अजगर करे न चाकरी पंछी करै न काम।
2- अब तो अजपा जपु मन मेरे।

रज्जब

दादू के प्रधान शिष्य हैं। इनके ग्रंथ हैं –छप्पय, संब्बंगी (अपने गुरू दादूदयाल की रचनाओ का संग्रह किया), रज्जब बाणी,  अंगवधु। 

धर्मदास

कबीर के प्रधान शिष्य हैं। इन्होंने बीजक में कबीर की रचनाएँ संकलित की। इनकी रचनाएँ हैं – धर्मदास की बानी

गुरू अर्जुनदेव

ग्रन्थ साहिब में इनके 6000 पद हैं। इनकी रचनाएँ हैं –
(1) सुखमनी
(2) बावना
(3) अखरी
(4) बारहमासा

जम्भनाथ

जम्भनाथ(जगन्नाथ) ने विश्नोई संप्रदाय की स्थापना की थी। यह नाथपंथ से विशेष प्रभावित थे। इनके शिष्य हैं- हावली पावजी, लोहा पागल, दतनाथ और मालदेव।

वीरभान

वीरभान ने ‘साधो संप्रदाय’ का प्रवर्तन किया।  वीरभान उदयमान के शिष्य थे। उदयमान रैदास के शिष्य थे।

हरिदास

संत हरिदास ‘निरंजनी’ संप्रदाय के कवि थे। निरजनी संप्रदाय के प्रवर्तक निरंजन स्वामी अनुश्रूत है। आचार्य क्षितिमोहन सेन ने अपने ग्रंथ मेडेवियल मिस्टिसिज्म में निरंजनी संप्रदाय का आरंभ उड़ीसा से दिखाया है। हरिदास की भाषा ब्रज है।
हरिदास की रचनाएँ हैं-
(1) ब्रह्मस्तुति,
(2) हंस प्रबोधग्रंथ
(3) समाधिजोग ग्रंथ
(4) निरपखमूल ग्रंथ

संत सींगा

संत सींगा की काव्य भाषा निमाडी (नीमाडी) है।

लालदास

लालदास ने लालपंथ की स्थापना की ।लालदास मुसलमान थे। इनकी रचनाएँ हैं –  लालदास की चेतावनी

बाबालाल

बडौदा में इनका मठ है, इस मठ को बाबा लाल का शैल कहते हैं। बाबा लाल तथा दाराशिकोह का वार्तालाप ‘अपरारे मार्फत’ में संग्रहीत है। ‘नादिरून्नितकात’ में उनके कुछ विचारों का संग्रह है।

निपट निरंजन स्वामी

ये निरंजनी संप्रदाय के संत हैं। इनकी रचनाएँ हैं – शांत सरसी, निरंजन संग्रह

निर्गुण काव्यधारा के अन्य संत हैं-
1- अक्षर अनन्य (1653 ई-)     
2- बावरी साहिबा (बावरी पंथ की एक संत)   
3- नामदेव (नामदेव के गुरू थे विसोबा खेचर)
4- सेन                                     
5- संदना                                                   
 6- धन्ना – जन्म 1415 ई० में एक जाट परिवार में हुआ था। राजपुताना से बनारस आकर ये रामानन्द के शिष्य बन गए। कहा जाता है कि इन्होंने भगवान की मूर्ति को हठात् भोजन कराया था।
7- पीपा                                   
8- यारी साहब (1668)                               
9- सहजोबाई (1683)
10- चरनदास (1703)             
11- भीखा (1713)

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