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रीतिमुक्त कवि

घनानंद (1674-1761 ई-)

ये वैष्णव थे। ये मुगल सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला के मीर मुंशी थे। ये वृंदावन में आकर निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित हो गए।

(1) कृपासागर या सुजानहित (2) विरहलीला (3) कोकसार (4) कृपाकांड (5) वियोगबेलि (6) इश्कलता (7) प्रेम सरोवर (8) रसकेलिवल्ली

पंक्तियॉं 
‘लोग हैं लागि कवित बनावत, मोहिं तौ मेरो कवित बनावत।’

‘कबहू वा बिसासी सुजान के आंगन, मो अंसुवानिहू लै बरसौ।’

‘मो मति बूझि परै तबहीं जब होहु घरीक हूूं आप तें न्यारे।’ह्वै घनानंद सोच महा मरिबो अनमीच बिना जिय जीबो।’

‘चाहै प्रान चातक सुजान घनआनन्द कों
दैया कहूं काहू कौं परै न काम कूर सौं।’अधर लगे हैं आनि करि कै प्यान प्रान, चाहत चलन ये संदेसो ले सुजान को।’

‘ह्वैं सोऊ धरी भाग उधरी।’

‘उजरिन बसी है हमारी अंखियानि देखौ।’

‘कान्ह परे बहुतायत में इकलैन की बदेन जानौ कहा तुम।’

‘आनन्द विधान सुखयानि-दुखियानि दैं।’

‘रीझ सुजान सची पररानी, बची बुधि बापुरी ह्वै करि दासी।’

‘अरसनि गही वह बानि कछू, सरसानि सो आनि निहोरत है।’

‘उधरो जग, छाप रहे घनआनन्द, चातक ज्यों तकिए अब तौ।’

‘कहिए सु कहा, अब मौन अली, नहीं खोवते जौ हमें पावते जू।’

‘झूठ की सचाई छाक्यौं, त्यौं हित कचाई पाक्यौ, ताके गुनगन घनआनंद कहा गनौ।’

‘गति सुनि हारी, देखि थकनि मैं चली जाति, थिर चर दसा कैसी ढकी उघरति है।’

‘तेरे ज्यों न लेखौं, मोहि भारत परेखो महा, जान घनआनन्द पै खोयणे लहत है।’

‘ऐ रे बीर पोन! तेरो सबै औरे गौन, बारि।
तों सों और कौन मैन ढरको ही बानि दै।।’

‘अति सूधो सनेह को मारग है, जहॉं नैकू सयानप बांक नहीं।’

‘पाउॅफ़ कहॉं हरि हाय तुम्हें, धरती मैं धंसों कि अकासहिं चीरौं।’

‘जब तें निहारे घनआनन्द सुजान प्यारे।’
तबहें अनोखी आगि लागि रही चाह की ।’

‘तब हार पहार से लगत हे, अब आनि कै बीच पहार परे।’

‘सो घनआनन्द जान अजान लौं, टूक कियौ पर बांचि न देख्यौ’

‘या मन की जु दसा घनआनन्द जीव की जीवनि जान ही जान ही जानै।’

‘रावरे रूप कौ रीति अनूप नयौ-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये।’

‘चाह प्रवाह अथाह परे नहिं ही आप विचछन जानै।
पूंछ विषान बिना पसु जो सु कहा घनआनंद बानी बरवानै।।’

नेही महा ब्रजभाषा-प्रवीन और सुन्दरतानि के भेद को जानै।
जोग वियोग की रीति में कोविद भावना-भेद स्वरूप को ठोनै।
चाह के रंग में भीड्या हियरे बिछुरे मिलें प्रीतम सांति न मानै।
भाषा प्रवीन सुछंद सदा दहै सो घनजी की कवित बीवाने।’’

‘जग की कविताई के धोखे रहें, ह्यां प्रवीनन की मति जाति छकी।
समुझैं कविता घनआनंद की हिय आंखिन नेह की पीर तकी।’

आलम

आलम के समकालीन बादशाह का नाम अकबर था।

(1) आलमकेलि,
(2) स्यामस्नेही
(3) सुदामाचरित

ठाकुर

(1) ठाकुर ठसक (संपादक भगवानदीन) (2) ठाकुर शतक

बोधा

(1) विरहवारीश  (2) इश्कनामा

द्विजदेव

(1) शंृगार तिलक(2) शंृगार बतीसी

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