पाश्चात्य काव्यशास्त्र » आई0 ए0 रिचर्ड्स

प्रश्न – आई0 ए0 रिचर्ड्स के मूल्य-सिद्धांत पर प्रकाश डालिए।

अथवा

रिचर्ड्स के काव्य-मूल्य-सिद्धांत की काव्य में उपादेयता पर विचार कीजिए।

अथवा

रिचर्ड्स के काव्य-मूल्य विषयक सिद्धांत कविता के मूल्यांकन में आधार का कार्य करते हैं – इस कथन पर विचार करो।

उत्तर – बीसवीं शताब्दी के मौलिक काव्य-चिंतकां में प्रो0 आइवर आर्मस्ट्रोग रिचर्ड्स का महत्वपूर्ण स्थान है। आई0 ए0 रिचर्ड्स के आलोचना-सिद्धांतों का व्यस्थित प्रतिपादन उनकी प्रख्यात पुस्तक ‘प्रिंसिपिल्स आफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म’ में मिलता है। आई0 ए0 रिचर्ड्स के अनुसार वैज्ञानिक आलोचना का उद्दश्य है – कलात्मक अनुभूतियों का मूल्यांकन एवं उनका तार्किक क्रम-निर्धारण अर्थात् कलाकृति का मूल्य निर्धानण। मूल्य-निर्धारण की इसी प्रक्रिया से मूल्य-सिद्धांत का जन्म हुआ। इस मूल्य-सिद्धांत ने साहित्य एवं मनोविज्ञान की सहायता से कविता की सार्थकता तथा महत्ता के संबंध में नवीन तर्क प्रस्तुत किए हैं।

आई0 ए0 रिचडर््स ने आलोचना सिद्धांत की अस्पष्ट, भावुक तथा दार्शनिक बुनियाद पर भरपूर प्रहार करते हुए आई0 ए0 रिचडर््स ने मनोविज्ञान की वैज्ञानिक आधारशिला पर उसे पुनर्जीवित करने का भगीरथ प्रयास किया। उन्होंने मूल्यांकन के मनोवैज्ञानिक मूल्य-सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए कहा कि किसी भी कलाकृति का उसी अनुपात में मूल्य है, जिस अनुपात में वह मानवीय संवेगों प्रवृत्तियों को व्यवस्थित एवं नियन्त्रित करती है। वैसे भी आई0 ए0 रिचडर््स की दृष्टि में ‘‘आलोचना कलात्मक अनुभवों में विवेक व्यस्कता से पृथक्करण एवं उन अनुभवों का मूल्यांकनपरक यत्न है।’’

विभिन्न कलाकृत्तियों से उपलब्ध अनुभवों के मूल अंतर को विवेक से समझाना-अलगाना एवं उनकी सापेक्षिक उच्चता-हीनता का निर्णय करना समीक्षा-व्यापार का प्रमुख अंग है। आलोचक के लिए ऐसा कर पाना उसी स्थिति में संभव है, जब वह कलाकृत्ति से प्राप्त अनुभवों की मूल प्रकृति को ठीक से जान पहचान ले। (आइबिड – पृष्ठ 2)

मूल्य-सिद्धांत को स्पष्टता से रखने के लिए रिचर्डस ने आलोचना के मूलभूत प्रश्नों की चर्चा इस ढंग से की है –

1- काव्यानुभूति का मूल्य क्या है?

2- एक अनुभूति की अपेक्षा दूसरी अनुभूति क्यों अधिक प्रभावित करती है?

3- एक ही कलाकृति के संबंध में िवचारों की भिन्नता के कारण क्या होते हैं और क्यों होते हैं?

4- विभिन्न काव्यानुभूति की तुलना कैसे संभव है?

5- मूल्य का स्वरूप क्या है?

आई0 ए0 रिचडर््स मूलतः मूल्यवादी आलोचक हैं। प्रभाववादी आलोचक की भांति वे कलाकृति के द्वारा मन पर डाले गए प्रभाव तथा उसके शब्दांकन तक को समीक्षा कर्म की पूर्णता नहीं मानते। उनकी दृष्टि में आलोचना कार्य के दो महत्वपूर्ण आधार हैं-

1- मूल्य की महत्व प्रतिष्ठा तथा लेखा,
2- संप्र्रेषण-व्यापार का विवेचन विश्लेषण (‘प्रिंसिपिल्स आफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म’)

आई0 ए0 रिचडर््स के मूल्य-सिद्धांत को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है-

1- लिखित मूल्यों के भंडार के रूप में कला

कला के संदर्भ में मूल्य-सिद्धांत की स्थापना करते हुए कहा कि ‘कलाएँ हमारे लिखित मूल्यों का सुरक्षित भंडार होती है।’
उनका विश्वास था कि ‘जिन विरोधी आवेगों के संयोजन से सौन्दर्यानुभूति जन्म लेती है – प्रायः उसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता।

2- मानसिक संतुलन की सिद्धि

मैथ्यू आर्नल्ड ने कविता को मानव सभ्यता की रक्षा का हेतुक कारण माना था। आई0 ए0 रिचडर््स ने उनसे काफी आगे बढ़ कर कहा कि काव्य से मानसिक संतुलन की सिद्धि होती है, उनका प्रभाव व्यक्ति, जाति एवं समाज के लिए बड़ा ही हितकर होता है। आधुकनकि जीवन की विसंगतियों – विद्रुपताओं में पड़कर जब प्राचीन आस्थाएँ एवं परंपराएँ मूल्यहीन हो गई हैं – चारों ओर मूल्य का विघटन है, तब काव्य ही मानसिक संतुलन बनाये रख सकता है।

3- कला-मूल्यों के सही प्रयोग की आवश्यकता

आई0 ए0 रिचडर््स के अनुसार मानव-सभ्यता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्णय मानव कलाओं के रूप में मौजूद हैं। किंतु मूल्य के चिंतकों द्वारा इन कला-मूल्यों का सही चिंतन-मनन इसलिए नहीं हो पाया कि उनके पास उपयोगी ज्ञान-विज्ञान का साथ नहीं रह पाया।
अनुभूतियों के मूल्य-निर्णय के लिए कलाएँ उत्तम तथ्य प्रस्तुत करती हैं। लेकिन शर्त ये है कि उनके प्रति सामाजिक या प्रेक्षक द्वारा सही रवैया अपनाया जाए।

4- कला तथा मूल्यों का संबंध

उन्होंने कला तथा नैतिकता के संबंध को पुनः जोड़ना चाहा। कला के नैतिक मूल्य परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं यह एक परिवर्तनशील प्रक्रिया के भीतर से पनपते रहत हैं।
‘‘भिन्न परिस्थितियाँ होने पर अनिवार्यतः भिन्न मूल्यों का अभ्युदय होता है। निस्सन्देह ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं – और बहुधा होती हैं कि उच्च मूल्यों का जीवन संभव ही न हो प्रकृतिवादी नैतिकता से उन्हें बदलने के कारण तथा उपाय दोनों ही स्पष्टतक हो जाते हैं। — नैतिक प्रश्नों को आचार के बोझ तथा अंधविश्वासों से युक्त तत्वों से मुक्त करना परम आवश्यक है – सच तो यह है कि इस दिशा में यह कदम बहुत पहले ही उठा लिया जाना चाहिए था।’’

5- अल्पमत व बहुमत की समस्या

काव्यालोचन में अल्पमत व बहुमत की समस्या की ओर भी उनका ध्यान गया है। आलोचना के भीषण संकट पर उनका ध्यान गया है और वे कलागत प्रतिमानों की पुनः परीक्षा की वकालत करते हैं। नैतिकता का ऐसा सिद्धांत अनुसंहित होना चाहिए जिसके द्वारा मानवीय मूल्य-साधन में कलाकृति तथा कलाओं के कार्य की ठीक-ठीक व्याख्या हो सके। भ्रांतियों के निराकरण के लिए आलोचक के पास सही और समर्थ औजार हों। वे कला के मूल्य निर्णय को व्यावसाय-वृत्ति से जोड़ने के खिलाफ रहे हैं।

6- मूल्य प्रतिचेष्टा तथा प्रवृति की ‘सूक्ष्य विवृत्तियों में निहित हैं

आई0 ए0 रिचडर््स ने मूल्य के स्वरूप-निर्धारण के बाद कला में उन मूल्यों की व्याप्ति का प्रश्न उठाया हैै। वे कहते हैं कि ‘‘कौन-सा मूल्य और कौन-सी अनुभूतियाँ सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती हैं? जब तक हम सत् और असत् की व्यापक अमूर्तवाची शब्दावली में सोचते रहेंगे, तब तक यह बात कभी समझ में न आयेगी। मूल्य, प्रतिचेष्टा एवं प्रवृति की ‘सूक्ष्य विवृत्तियों’ में निहित है।’’
वे मूल्य-निर्धारण की स्थापना में मूल्य को अतीन्द्रिय, अव्याख्येय एवं निरपेक्ष मानने की तर्कणा उपस्थित करते हैं। ऐसा नहीं है कि मूल्य की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करने वाले के समक्ष वे नतशिर हों। इन व्याख्याओं के विरुद्ध उनकी आपत्ति यह है कि वे मूल्य की व्याख्या न करके उसकी जगह किसी दूसरी वस्तु की व्याख्या करते रहते हैं, जिससे घपले के अतिरिक्त और क्या हो सकता है।

7- मूल्यों का आधार पाठकीय संवेदना

जिन काव्यात्मक मूल्यों की चर्चा वे ‘प्रिंसिपिल्स आफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म’ तथा ‘पैक्टिकल क्रिटिसिज्म’ में करते हैं – उनका आधार प्रधान रूप से पाठकों के मनोवेगों पर केंद्रित है। पाठकों में उत्पन्न संवेगात्मक अवस्था और जिन-जिन साधनों, कार्यों से वे उत्पन्न होते हैं – दोनों के अंतर को रिचर्डस ने सदैव अलग रखा है।

8- मूल्य निर्धारण के तत्व

वे आवेग, अभिेदश, संवेग तथा अभिवृत्तियों को कविता का मूल्य निर्धारण तत्व मानते हैं। कविता के पढ़ने पर आवेगों की धारा प्रवाहित होती है, जो शब्दों की चाक्षुष संवेदना के प्रभाव से शुरु होती है किंतु ये आवेग मात्र संवेदनाओं पर ही नहीं, उनसे संबद्ध चाक्षुष बिंबों पर भी निर्भर करते हैं। इतना मानने पर भी रिचर्डस कविता का मूल्य उसकी बिम्बात्मकता पर आधारित नहीं मानते।

9- काव्यानुभूति के दो पक्ष

काव्यानुभूति के दो पक्ष रिचर्डस ने माने भी हैं – (क) काव्यानुभूति के साधन पक्ष (ख) काव्यानुभूति के साध्य पक्ष। साधन पक्ष काव्यानुभूति के साध्य पक्ष को संभव ही नहीं बनाते, अपितु उन्हीं पर काव्यात्मक मूल्य आधारित होता है। अच्छा आलोचक जैसे बार-बार काव्य-पाठ करने पर नये से नया अर्थ पाता है उसी प्रकार पाठक भ। किंतु एक ही कविता को पढ़ कर सभी पाठकों में एक जैसी प्रतिक्रिया नहीं होती। अनुभूति के इन स्तरों के अनेक पक्ष होते हैं।

10- कविता का उद्देश्य

रिचर्डस के अनुसार स्थूल रूप में मनोरंजन तथा शिक्षा कविता के उद्देश्य लगते हैं किंतु सूक्ष्मता के विचार करने पर ट्रेजेडी तक के विषय में ये उद्देश्य अनावश्यक लगने लगते हैं। अतः ‘आवेगों की संतुष्टि’ के रूप में रिचर्डस ने मूल्य की जो व्याख्या की है – वह ‘आनन्द’ और सुखवाद से सर्वथा भिन्न है। कविता, मिठाई का डिब्बा नहीं है, आवेगों का खट्टा-कड़ुआ अचार होती है। कविता का मूल्यांकन करते समय हम मानव जीवन की व्यापका, विविधता व विराटता की उपेक्षा नहीं कर सकते।

11- तर्क व तथ्यों पर आधारित मूल्य

रिचर्डस, अतीन्द्रिय अध्यात्मिक सत्ताओं में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों में ‘भाववाद’ को पाते हैं और इस भाववाद को अवरोधनवाद कहकर कोसते हैं। अतः मूल्यों के निरपेक्ष सिद्धांत का विचार जगत में आज खंडन संभव न हो तो भी मूल्य की अवधारणा और व्याख्या में रिचर्डस ने मनोविज्ञान का आश्रय ग्रहण करना उचित समझा है।

12- रिचर्डस ने दो प्रकार के मूल्यों की चर्चा की है-

(क) आंतरिक मूल्य (इंट्रिजिक वैल्यू)
(ख) साधनास्वरूप मूल्य (इन्स्ट्रूमैंटल वैल्यू)
रिचर्ड का कहना है कि आंतरिक मूल्य तथा साधनात्मक मूल्य में सही पार्थक्य देख पाने के कारण ही मानवीय मूल्य धारणा में इतनी अधिक विषमता तथा विभिन्नता दृष्टिगत होती है।

13- आवेगों को व्यवस्थित करने की चेष्टा

रिचर्डस का विश्वास था कि विकास गति की प्रक्रिया है। विकास की प्रत्येक स्थिति में मानव के मनोवेग इच्छाएँ तथा प्रभाव झुकाव नया रुपांतरण पा जाते हैं तथा उनमें व्यवस्था की अनवरत वृद्धि होती रहती है। यह प्रक्रिया इतनी विकासमय हाती है कि इसका आदि और अंत नहीं है। हमेशा से ही एक मनोवेग, इसके मनोवेग से या तो बाधित होता आया है या संघर्षरत् रहा है। यही कारण है कि समस्त मानव जीवन अव्यवस्थित मनोवेगों या आवेगों को व्यवस्थित करने की चेष्टा का रूप है।

14- संवेग संतुलन सिद्धांत

रिचर्ड्स आवेग सिद्धांत के आधार पर ही इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि जीवन में अधिकाधिक मूल्य की उपलब्धि आवेगों के सामंजस्य पर आधारित है। किंतु किसी भी व्यक्ति के जीवन में आवेगों का समन्वयन तथा सामंजस्य घटित करने वाली कोई मनोव्यवस्था हमेशा एक-सी तो रहती नहीं है, उसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से परिवर्तन का चक्र चलता रहता है।

समग्रता से कह सकते हैं कि मूल्य सिद्धांत की स्थापना में रिचर्डस ने समस्त रूढ़िग्रस्त मान्यताओं, अंधविश्वासों, चुके हुए सिद्धांतों तथा नैतिकताओं को चुनौती देकर नगण्य ठहराया है। रिचर्डस के मूल्य सिद्धांत को लेकर प्रमुख आक्षेप तो यही है कि इसी व्यवहारिक उपयोगिता नहीं है। क्योंकि इसमें वस्तु की सत्ता को पर्याप्त मान्यता नहीं मिली है। इस कारण से यह मूल्य-सिद्धांत विवादग्रस्त रहा है। रिचर्डस की विशेषता यही है कि तमाम विरोधों एवं आक्षेपों के होने के बावजूद भी वे अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे हैं।