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"कुटज"
(पाठ का सार)
शब्दार्थ :- अंतर्निरुद्ध – भीतरी रुकावट। गह्नर – गहरा, गइा। द्वंद्वातीत – द्वंद्व से परे। मदोद्धता – नशे या गर्व से चूर। विजितातपा – धूप को दूर करने वाली। अकुतोभय – जिसे कहीं या किसी से भय न हो, नितांत भयशून्य। अवमानित – अपमानित, तिरस्कृत। विरुद – कीर्ति-गाथा, प्रशंसासूचक पदवी। स्तबक – गुच्छा, फूलों का गुच्छा। लोल – चंचल, हिलता-डोलता। फकत – अकेला, केवल, एकमात्र। अनत्युच्च – जो बहुत ऊँचा न हो। अविच्छेद्य – विच्छेद रहित। स्फीयमान – फैलता हुआ, विस्तृत, व्यापक। मूर्धा – मस्तक, सिर। दुरंत – जिसका पार पाना कठिन हो।प्रबल कार्पण्य – कृपणता, कंजूसी। उपहत – चोट खाया हुआ, घायल, नष्ट। निपोरना – खुशामद करना, दिखाना। अवधूत – विरक्त, संन्यासी। नितरां – बहुत अधिक। मिथ्याचार – झूठा आचरण।
कुटज हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली पौधा है, जिसमें फूल लगते हैं। इसी फूल की प्रकृति पर यह निबंध कुटज लिखा गया है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवनशक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। सामान्य से सामान्य वस्तु में भी विशेष गुण हो सकते हैं यह जताना इस निबंध का अभीष्ट है।
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"कुटज"
(प्रश्न-उत्तर)
प्रश्न :- कुटज को ‘गाढ़े के साथी’ क्यों कहा गया है?
उत्तर :- कालिदास की रचना मेघदूत में यक्ष रामगिरि पर्वत से बादल को भेजता है। तो वहाँ कुटज का पेड़ ही विद्यमान था। उस समय में कुटज के फूल ही उसके काम आए थे। ऐसे स्थान पर जहाँ दूब तक पनप नहीं पाती है। यक्ष ने कुटज के फूल चढ़ाकर ही मेघ को प्रसन्न किया था। कुटज ऐसा साथी है, जो मुश्किल समय में साथ रहा है। अतः उसे गाढ़े का साथी कहा गया है।
प्रश्न :- ‘नाम’ क्यों बड़ा है? लेखक के विचार अपने शब्दाें में लिखिए।
उत्तर :- नाम मनुष्य की पहचान है। नाम का जीवन में बहुत महत्व है। यदि हमें किसी के रूप, आकार आदि विषय में बताया जाए और उसका नाम न बताया जाए तो हम उसे भली प्रकार से पहचान नहीं पाएँगे। नाम के बिना मनुष्य की पहचान अधूरी लगती है। समाज में लोग हमें नाम से ही जानते हैं। मनुष्य कितना सुंदर ही क्यों न हो, नाम के बिना उसे पहचानने में बहुत कठिनाई होगी। नाम मनुष्य की पहचान बन जाता है। इसलिए समाज में हर प्राणी और चीज को नाम दिया जाता है।
प्रश्न :- ‘कुट’, ‘कुटज’ और ‘कुटनी’ शब्दों का विश्लेषण कर उनमें आपसी संबंध स्थापित कीजिए।
उत्तर :- हजारी प्रसाद जी ने ‘कुटज’ निबंध में इन तीनों शब्दों पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार ‘कुट’ शब्द के दो अर्थ होते हैं: ‘घड़ा’ और ‘घर’। एक प्रसंग में ‘कुटज’ शब्द का अर्थ उन्होंने बताया है – घड़े से उत्पन्न होने वाला। यह नाम अगस्त्य मुनि का ही दूसरा नाम है। कहा जाता है कि उनकी उत्पत्ति घड़े से हुई थी। दूसरे प्रसंग में ‘कुट’ शब्द का अर्थ ‘घर’ लिया है और बताया कि घर में कार्य करने वाली बुरी दासी को’ कुटनी’ नाम दिया गया है। अतः कहीं-न-कहीं ये शब्द आपस में जुड़े हुए है।
प्रश्न :- कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है?
उत्तर :- कुटज पहाड़ों की चट्टानों के मध्य स्वयं को खड़ा रखता है तथा उसमें व्याप्त जल-स्रोतों से स्वयं के लिए जल ढूँढ निकालता है। वह निर्जन स्थानों में भी विजयी खड़ा है। यह इतनी विकट परिस्थिति है, जिसमें साधारण पौधे तथा पेड़ का जीवित रहना संभव नहीं है। उसकी यह जीवनी-शक्ति जो उसे अपराजेय बना देती है।
प्रश्न :- ‘कुटज’ हम सभी को क्या उपदेश देता है? टिप्पणी कीजिए।
उत्तर :- ‘कुटज’ अपनी जीवनी शक्ति से संदेश देता है कि हमें विकट परिस्थितियों में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। विकट परिस्थितियों में अपने धैर्य और साहस से काम लेना चाहिए। यदि हम निरंतर प्रयास करते हैं, तो हम इन विकट परिस्थितियों को अपने आगे झुकने के लिए विवश कर देते हैं। जो विकट परिस्थितियों को झेल लेता है फिर उसे कोई गिरा नहीं सकता है।
प्रश्न :- कुटज के जीवन से हमें क्या सीख मिलती है?
उत्तर :- कुटज के जीवन से हमें निम्नलिखित शिक्षाएँ मिलती हैं-
- जो मिले उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए।
- कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
- विकट परिस्थितियों का सामना धैर्य और साहस के साथ करना चाहिए।
- अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास करते रहना चाहिए।
- स्वयं पर विश्वास रखना चाहिए।
- सहायता के लिए अन्याय के आगे नहीं झुकना चाहिए।
प्रश्न :- कुटज क्या केवल जी रहा है – लेखक ने यह प्रश्न उठाकर किन मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है?
उत्तर :- “कुटज क्या केवल जी रहा है?” यह प्रश्न ऐसे लोगों को लक्ष्य करके बनाया गया है, जो जीवन की थोड़ी-सी कठिनाइयों के आगे घुटने टेक देते हैं। ऐसे लोगों में साहस, जीने की ललक की कमी होती है। लेखक के अनुसार कुटज का वृक्ष जीता ही नहीं बल्कि यह सिद्ध कर देता है कि मनुष्य में यदि जीने की ललक है, तो वह किसी भी प्रकार की परिस्थितियों से सरलतापूर्वक निकल सकता है।
प्रश्न :- लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई न कोई शक्ति अवश्य है? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर :- लेखक के अनुसार हमारे स्वार्थों की कोई सीमा नहीं है। स्वार्थ और जिजीविषा ही हैं, जो हमें गलत मार्ग में ले जाते हैं। लेखक इन दोनों से अलग शक्ति कल्याण की भावना को स्वीकार करता है। कल्याण की भावना मानव को महान बनाती है। यह ऐसी प्रचंडता लिए हुए है कि जो मनुष्य को मज़बूत और निस्वार्थ बना देती है। उसमें अहंकार, लोभ-लालच, स्वार्थ, क्रोध इत्यादि भावनाओं का नाश हो जाता है। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं जब लोककल्याण की भनवा से युक्त होकर साधारण मानव महात्मा या भगवान कहलाया है जैसे – बुद्ध, गुरूनानक, अशोक, महात्मा गांधी इत्यादि।
प्रश्न :- ‘कुटज’ पाठ के आधार पर सिद्ध कीजिए कि ‘दुख और सुख तो मन के विकल्प हैं।’
उत्तर :- लेखक के अनुसार जिस व्यक्ति का मन उसके वश में है, वह सुखी कहलाता है। कोई उसे उसकी इच्छा के बिना कष्ट नहीं दे सकता। वह अपने मन अनुसार चलता है और जीवन जीता है। दुखी वह है, जो दूसरों के कहने पर चलता है या जिसका मन स्वयं के वश में न होकर अन्य के वश में है। वह उसकी इच्छानुसार व्यवहार करता है। अतः दूसरे के हाथ की कठपुतली बन जाता है। अतः दुख और सुख तो मन के विकल्प ही हैं।
प्रश्न :- निम्नलिखित गद्यांशाें की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(क) ‘कभी-कभी जो लोग ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़ें काफ़ी गहरी पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर से अपना भोग्य खींच लाते हैं।’
उत्तर :-
संदर्भ :- व्याख्येय गद्यांश हजारी प्रसाद द्वविवेदी द्वारा रचित निबंध कुटज से लिया गया है।
प्रसंग :- इस गद्यांश लेखक कुटज के माध्यम से ऐसे लोगों की और संकेत करता है, जो स्वभाव से बेशर्म होते हैं लेकिन उनका ऐसा व्यक्तित्व विकट परिस्थितियों के कारण विकसित होता है।
व्याख्या :- लेखक इन पंक्तियों के माध्यम से कुटज तथा ऐसे लोगों के बारे में बात करता है, जो बेहया दिखाई देते हैं। लेखक कहता है कि कुटज ऐसे वातावरण में सिर उठाकर खड़ा है, कोई अन्य पौधा दूर-दूर तक नहीं है। वह पहाड़ों पर पनपने के साथ-साथ उनमें विद्यमान जल स्रोतों से अपने लिए पानी सोख लेता है। लोग उसे ढीठ मानते हैं लेकिन कुटज का यह स्वभाव विकट परिस्थितियों से लड़ने का परिणाम है। ऐसे ही कुछ लोग होते हैं जो अनेक विकट परिस्थितियों का सामना करते हुए डटकर खड़े रहते हैं। लोग उनको भी बेहया कहते हैं। लेकिन उनका यही स्वभाव उनकी रक्षा करता है और उन्हें मजबूती से खड़े रखने में सहायता करता है। ऐसे लोग अपना रास्ता स्वयं खोजते हैं। वे जीवन से हार नहीं मानते।
(ख) ‘रूप व्यक्ति-सत्य है, नाम समाज-सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृत, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नात!’
उत्तर :-
संदर्भ :- व्याख्येय गद्यांश हजारी प्रसाद द्वविवेदी द्वारा रचित निबंध कुटज से लिया गया है।
प्रसंग :- लेखक इस गद्यांश में रूप और नाम में अंतर बताते हुए नाम की विशेषता बताता है।
व्याख्या :- लेखक कहता है कि मनुष्य अपने ‘रूप’ द्वारा अलग किया जा सकता है। यह व्यक्ति द्वारा दिया गया है और यह एक सच है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता है। ऐसे ही ‘नाम’ है। ‘नाम’ समाज में हमारी पहचान होती है। इससे ही समाज में हमें जाना जाता है। समाज द्वारा इसे स्वीकृति मिली होती है। आधुनिक भाषा में इसे ‘सोशल सैक्शन’ कहते हैं। इसका अर्थ है कि आपका नाम समाज द्वारा स्वीकार किया गया है। लेखक कहता है कि उसका मन पौधे का नाम ढूँढने के लिए परेशान हो रहा है। लेखक जानना चाहता है कि कुटज को समाज द्वारा कब स्वीकारा गया? कैसे इतिहास के माध्यम से सही साबित किया गया होगा? कैसे यह लोगों के हृदय में जगह पा गया?
(ग) ‘रूप की तो बात ही क्या है! बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है।’
उत्तर :-
संदर्भ :- व्याख्येय गद्यांश हजारी प्रसाद द्वविवेदी द्वारा रचित निबंध कुटज से लिया गया है।
प्रसंग :- लेखक इस गद्यांश में कुटज की शोभा के विषय में बताते हैं।
व्याख्या :- लेखक कहता है कि कुटज देखने में बहुत सुंदर होता है। इसे देखकर कि इसकी बलाएँ लेने का मन करता है। यमराज की साँसों के समान चारों ओर भयंकर गर्मी पड़ रही है। इतनी प्रचंड गर्मी में भी यह झुलसाया नहीं है। इसमें हरियाली छायी हुई है। इसके साथ-साथ यह फल भी रहा है। यह पत्थरों के बीच में से भी अपनी जड़ों के लिए रास्ता बनाता है। शिलाओं में विद्यमान ऐसे जलस्रोतों को खोज लाता है, जिसके बारे में किसी को नहीं पता होता। लेखक ने पत्थरों की तुलना दुर्जन व्यक्तियों से की है। कुटज अपने जीवन के लिए विकट परिस्थितियों से लड़ता भी है और सिर उठाकर खड़ा भी रहता है।
(घ) ‘हृदयेनापराजितः! कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से, दुख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा! कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया वृत्ति, अपराजित स्वभाव, अविचल जीवन दृष्टि!’
उत्तर :-
संदर्भ :- व्याख्येय गद्यांश हजारी प्रसाद द्वविवेदी द्वारा रचित निबंध कुटज से उद्धृत है।
प्रसंग :- लेखक इन पंक्तियों में कुटज की हार न मानने की प्रवृति पर प्रकाश डालता है।
व्याख्या :- लेखक कहता है कि कुटज का कैसा हृदय है, जो कभी पराजय नहीं होता। वह सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय भावों की स्थिति में भी समान भाव से रहता है। अर्थात उसका इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह दृढ़ होकर खड़ा रहता है। ऐसे कुटज को देखकर लेखक रोमांच भाव से भर जाता है। उसके हरे-भरे रूप को देखकर ज्ञात हो जाता है कि वह प्रसन्न है। लेखक को कुटज का निडर, कभी न हारने वाले स्वभाव तथा अविचल स्वभाव आश्चर्य में डालता है। वह विशाल जीवन दृष्टि लिए हुए है, जो उसे कभी हारने नहीं देती।
योग्यता-विस्तार
प्रश्न :-‘कुटज’ की तर्ज पर किसी जंगली फूल पर लेख अथवा कविता लिखने का प्रयास कीजिए।
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
प्रश्न :- लेखक ने ‘कुटज’ को ही क्यों चुना? उसको अपनी रचना के लिए जंगल में पेड़-पौधे तथा फूलों-वनस्पतियों की कोई कमी नहीं थी।
उत्तर :- यह सच है कि लेखक के लिए जंगल में पेड़-पौधे तथा फूलों-वनस्पतियों की कोई कमी नहीं थी, फिर भी वह ‘कुटज’ को चुनता है क्योंकि कुटज अपने जीवन से लेखक को प्रेरित करता है कि किस प्रकार विपरीत परिस्थियों में भी प्रसन्नचित्त रहकर जीवन बिताया जा सकता है और लोगों का कल्याण भी किया जा सकता है।
प्रश्न :-कुटज के बारे में उसकी विशेषताओं को बताने वाले दस वाक्य पाठ से छाँटिए और उनकी मानवीय संदर्भ में विवेचना कीजिए।
उत्तर :-
- शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुसकुराते हुए ये वृक्ष द्वंद्वातीत हैं, अलमस्त हैं।
- अजीब-सी अदा है मुसकुराता जान पड़ता है।
- उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।
- धन्य हो कुटज, तुम ‘गाढ़े के साथी हो।’
- कुटज ने उनके संतृप्त चित्त को सहारा दिया था-बड़भागी फूल है यह!
- कुटज इन सब मिथ्याचारों से मुक्त है। वह वशी है। वह वैरागी है।
- सामने कुटज का पौधा खड़ा है वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी शक्ति की घोषण करता है।
- मनोहर कुसुम-स्तबकों से झबराया, उल्लास-लोल चारुस्मित कुटज।
- कुटज तो जंगल का सैलानी है।
- कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता।
प्रश्न :- ‘जीना भी एक कला है’-कुटज के आधार पर सिद्ध कीजिए।
उत्तर :- यह सत्य है कि जीना भी एक कला है। सुख-दुख तो आते-जाते रहते हैं। जो मनुष्य सुख-दुख में मन को संभाल सके वही वास्तव में जीना जानता है। सुख में तो सभी सुखी होते हैं, जो दुख में रहकर भी हँसे, सही मायने में उसने जीना सीख लिया है। इस कला को हर कोई नहीं जानता है। ‘कुटज’ ने यह सिद्ध कर दिया है। वह विकट परिस्थितियों में और असामान्य परिस्थितियों में भी स्वयं को जिंदा रखे हुए है। उसकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है। ऐसे ही मनुष्य को जीना चाहिए।
प्रश्न :- राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा पं हजारी प्रसाद द्विवेदी पर बनाई फिल्म देखिए।
उत्तर :- छात्र स्वयं करें।
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