भारतीय काव्यशास्त्र » काव्यलक्षण

प्रश्न – ‘रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’ पण्डित जगन्नाथ के इस कथन की समीक्षा करो।

उत्तर – आचार्य विश्वनाथ द्वारा प्रदत काव्य-परिभाषा में जो कमी या त्रृटि रह गई थी, उनका परिहार पण्डित जगन्नाथ द्वारा प्रदत्त परिभाषा से स्वतः ही हो जाता है। उनके अनुसार ‘रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’ अर्थात् रमणीय अर्थ को प्रतिपादित करने वाला वाक्य (शब्दार्थ या केवल शब्द) ही काव्य है।

यहाँ न तो रसवादियों या अन्य लोगों की सांप्रदायिकता है और न अति-व्याप्ति या अव्याप्ति आदि का ही कोई दोष है। रमणीयता निश्चय ही काव्य का अनिवार्य धर्म रहा है, और रहेगा। वह रमणीयता हृदय की देन तो हो ही सकती है। चमत्कार में भी रमणीयता के संपादन की क्षमता रहा करती है, अतः इस प्रकार के वाक्य भी स्वतः ही काव्य के अंतर्गत आ जाते हैं – फिर चाहे वह चमत्कार अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि किसी के भी द्वारा प्रतिपादित क्यों न हो।

कुछ लोगों ने परिभाषा में आये ‘शब्दः’ पर आपत्ति की है। उनका कहना है कि काव्य से सदैव ‘शब्द’ मात्र ही रमणीय नहीं हुआ करता, बल्कि शब्दों का समूह अर्थात् वाक्य ही रमणीयता उत्पन्न कर पाने में समर्थ हुआ करता है। अतः यदि ‘शब्द’ के स्थान पर ‘वाक्यम्’ रख दिया जाये तो उचित रहेगा।

सभी जानते हैं कि काव्य मात्र शब्द नहीं, बल्कि शब्दों का खेल एवं व्यापार है। जगन्नाथ ने अपनी बात सूत्र-रूप में कही है वार्ता या व्याख्या के रूप में नहीं। यह तो हमारा या परवर्ती स्वनाम धन्य आचार्यों एवं मनीषियों का कर्त्तव्य हो जाता है कि वे सूत्र के सही संदर्भों में सही व्याख्या करें। जब हम सही व्याख्या करेंगे – काव्य का शब्द का नहीं शब्दों का खेल-व्यापार मानकर चलेंगे तो यही अभिप्राय निकलेगा कि रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द (वाक्य) ही काव्य के नाम से अभिहित किये जाते है। इसी आलोक में संस्कृत की परंपरा के इस अंतिम आचार्य द्वारा प्रदत्त काव्य-परिभाषा को सर्वोत्तम एवं लगभग पूर्ण कह सकते हैं।

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