भारतीय काव्यशास्त्र » काव्यलक्षण

काव्य का लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषों से रहित होना चाहिए। साथ ही साथ संक्षिप्त, सुबोध, पारिभाषिक शब्दावली से रहित और व्याख्या की अपेक्षा न रखने वाला होना चाहिए।

संस्कृत काव्यशास्त्रियों के अनुसार काव्यलक्षण

भामह के अनुसार काव्यलक्षण

शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्। अर्थात् शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य कहलाता है।

दण्डी के अनुसार काव्यलक्षण

शरीरं तावद् इष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली। अर्थात् इष्ट अर्थ से परिपूर्ण पदावली काव्य का शरीर है।

वामन के अनुसार काव्यलक्षण

काव्य उस शब्दार्थ को कहते हैं जो दोष-रहित हो तथा जिसमें गुण नित्य रूप से और अलंकार अनित्य रूप से विद्यमान हो, और इसका आत्मा है रीति।

आनन्दवर्धन के अनुसार काव्यलक्षण

‘शब्दार्थ-शरीरं तावत् काव्यम्।’ ‘ध्वनिरात्मा काव्यस्य।’ अर्थात् काव्य उस शब्दार्थ-रूप शरीर को कहते हैं जिसकी आत्मा ध्वनि (व्यंगयार्थ) है।

क्ुन्तक के अनुसार काव्यलक्षण

व्े परस्पर सम्बद्ध शब्द और अर्थ काव्य कहाते हैं जो कवि के वक्रव्यापार से युक्त तथा सहृदयजनों के आीांदक बंध में रचे गये होते हैं।

मम्मट के अनुसार काव्यलक्षण

तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि अर्थात् दोष-रहित और गुण तथा अलंकार-सहित शब्दार्थ का नाम काव्य है। कहीं-कहीं अलंकार के स्फुट न होने पर भी दोष-रहित और गुण-सहित शब्दार्थ को काव्य कहा जाता है।

विश्वनाथ के अनुसार काव्यलक्षण

वाक्यं रसात्मकं काव्यम् अर्थात् ऐसा वाक्य जिसकी आत्मा रस है काव्य कहलता है।

जगन्नाथ के अनुसार काव्यलक्षण

रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् अर्थात् वह शब्द जो रमणीयता का प्रतिपादक है काव्य कहलता है।

हिंदी काव्यशास्त्रियों के अनुसार काव्यलक्षण

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

यदि कविता में चमत्कार नहीं, कोई विलक्षणता नहीं तो उससे आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार काव्यलक्षण

जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्दविधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।

जयशंकर प्रसाद के अनुसार काव्यलक्षण

काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प और विज्ञान से नहीं है।

डॉ0 नगेन्द्र के अनुसार काव्यलक्षण

रमणीय अनुभूति, उक्तिवैचि=य और छन्द — इन तीनों का समंजित रूप ही कविता है।

पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों के अनुसार काव्यलक्षण

प्लेटो के अनुसार काव्यलक्षण

भौतिक पदार्थ सत्य की अनुकृति है और काव्य इस ‘अनुकृति’ की अनुकृति है, अतः यह अनुकरण का भी अनुकरण होने के कारण त्याज्य है।

अरस्तू के अनुसार काव्यलक्षण

कविता एक कला है। कला प्रकृति शिष्य का अनुकरण है। महाकाव्य, त्रसदी, कामदी आदि सामान्य रूप में अनुकरण के ही प्रकार है।

ड्राइडन के अनुसार काव्यलक्षण

काव्य रामात्मक और छन्दोबद्ध भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है।

जानसन के अनुसार काव्यलक्षण

कविता वह कला है जो कल्पना की सहायता से विवेक द्वारा सत्य और आनन्द का संयोजन करती है।

कॉरलायल के अनुसार काव्यलक्षण

काव्य संगीतपूर्ण विचार को कहते हैं।

वर्डस्वर्थ के अनुसार काव्यलक्षण

कविता शान्ति के क्षणों में स्मरण किये गए प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन है।

कालरेज के अनुसार काव्यलक्षण

कविता कहते हैं उत्तम क्रम में बद्ध उत्तम शब्दों को।

शैले के अनुसार काव्यलक्षण

काव्य कल्पना की अभिव्यक्ति है। कविता सर्वाधिक सुखी और सर्वोत्तम मनो के सर्वोत्तम और सर्वाधिक सुखपूर्ण क्षणों का लेखा है।

हण्ट के अनुसार काव्यलक्षण

कल्पनात्मक मनोवेग का नाम कविता है।

एडगर एलेन के अनुसार काव्यलक्षण

कविता लय के माध्यम से सौन्दर्य की सृष्टि है।

मैथ्यू आर्नल्ड के अनुसार काव्यलक्षण

काव्यसत्य और काव्यसौन्दर्य के उपबंधों के अधीन जीवन की आलोचना का नाम काव्य है।

काव्य के लक्षण से संबन्धित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न- ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ विश्वनाथ की इस उक्ति को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – ‘रस’ को काव्यात्मा स्वीकार करते हुए आचार्य विश्वनाथ ने संक्षिप्त किंतु अपार व्याख्या-योग्य काव्य परिभाषा दी-

‘‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’

अर्थात् रस प्रदान करने की सामर्थ्य रखने वाला शब्दार्थ या वाक्य ही काव्य है।

यह परिभाषा यों तो सर्वस्वीकृत है, पर इस पर भी साम्प्रदायिकता का दोषारोपण किया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार से चमत्कृत, विस्मित, आीांदित करने वाले वाक्य (शब्दार्थ) काव्य नहीं हो सकते। इस लक्षण को स्वीकार कर लेने से काव्य के अन्य लक्षण गौण पड़ जाते हैं।

इस संबंध में डा0 भगीरथ मिश्र का मन्तव्य विशेष द्रष्टव्य है – ‘‘ यहाँ पर एक अर्थ तो यह हो सकता है कि रस-वाक्य (विभावानुभाव, व्यभिचारी-संयोग से जिसकी निष्पत्ति होती है वह रस जिस वाक्य में निहित है, वह) काव्य है। ऐसी दशा में रस की काव्य में अनिवार्यता सिद्ध होती है, जिसमें बहुत मत-भेद हो सकता है। यदि हम शास्त्रीय दृष्टि से जिस वाक्य में रस संपादन हुआ हो उसे ही काव्य मानेंगे, तो काव्य का क्षेत्र अत्यंत संकीर्ण हो जाएगा और अनेक काव्य-पँक्तियाँ इसके क्षेत्र से निकल जाएँगी। बिहारी और केशवदास की अनेक पंक्तियाँ जिनमें रस की पूर्ण निष्पत्ति नहीं, पर अलंकार एवं उक्ति-वैचि=य का चमत्कार है, काव्य में नहीं सम्मिलित होती। यदि हम रस का अर्थ सरसता, माधुर्य आदि लेते हैं, तब जिसमें मन को रमाने की विशेषता हो, जिसमें हमारा मन रस ले सके, वह वाक्य काव्य है। ऐसी देशा में इस सरसता का संपादन अनेक बातों से हो सकता है – अलंकार, उक्ति-वैचि=य, भाव, वस्तु-वर्णन आदि। इस अर्थ में यह लक्षण व्यापक और सर्वजन-सुलभ है।’’

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आचार्य विश्वनाथ द्वारा प्रदत उपर्युक्त लक्षण में व्यापकता है। यदि ‘रस’ शब्द का अर्थात् ‘रसात्मक वाक्यम्’ का हम साम्प्रदायिक अर्थ न लेकर सरलता, मधुरता आदि लेते हैं, तो इस परिभाषा में निश्चय ही एक प्रकार की पूर्णता है। इस दृष्टि से आज का बौद्धिक-विलास या ‘बुद्धि-रस’ भी व्यापक अर्थों में रस माधुर्य-संगत वाक्य (शब्दार्थ) बनकर काव्य में व्यापक परिवेश में समाहित हो जाता है।

 

प्रश्न – ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि’ मम्मट के इस कथन को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – मम्मट का प्रसिद्ध काव्य लक्षण है – ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि’ अर्थात् दोष और गुणालंकार सहित शब्दार्थ का नाम काव्य है। कहीं-कहीं अलंकार के स्फुट न होने पर भी दोष रहित और गुण-सहित शब्दार्थ काव्य कहे जाते हैं।

आचार्य विश्वनाथ ने इस परिभाषा की आलोचना करते हुए कहा है कि बड़ी उत्तम कविताओं में भी थोड़ा-बहुत दोष निकल आता है, इसलिए ही वे कविता की श्रेणी से बाहर नहीं निकाल दी जाती, ‘अदोषौ’ एक नकारात्मक लक्षण है।

‘सगुणौ’ के संबंध में विश्वनाथ का आपेक्ष है कि यह शब्द दोषयुक्त है, कारण गुणहीन काव्य हो सकता है। गुणाभिव्यंजक शब्दार्थ तो उत्पन्न स्वरूप के उत्कर्षमात्र हैं, उसके स्वरूपाधापक नहीं हैं। फिर जब मम्मट स्वयं गुणों को रस का धर्म मानते हैं – ‘ये रसस्याडि-गनोधर्मा’ – तो काव्य लक्षण में वे उन्हें शब्दार्थ का विशेषण क्यों बना रहे हैं। उन्हें ‘सरसौ’ का प्रयोग करना था।

‘अनलंकृति पुनः क्वापि’ के बारे में भी यह कहा गया है कि अलंकार जब लक्षण में आवश्यक नहीं तब उनका उल्लेख ही वृथा है। विद्वानों का यह भी कहना है कि इस परिभाषा में न ध्वनि का नाम है और न रस का ही कोई उल्लेख है और इस तरह मम्मट ने काव्य के किसी भी असाधारण तत्व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित नहीं किया है। ‘अनलंकृति पुनः क्वापि’ का अर्थ यही है कि जहाँ रस नहीं है, वहाँ अलंकारों को प्रयोग हो सकता है। गोविन्द ने अपने ‘प्रदीप’ में इसी ढंग के विचार व्यक्त किये हैं।
रस मम्मट के अनुसार काव्य के विशेष है, अगर यह बात नहीं होती तो वे काव्य-प्रयोजन के संदर्भ में अन्ततः यह नहीं कहते कि ‘सकल-प्रयोजन-मौलीभूतम्् आनन्दम्’ मगर यह रस ध्वन्यमान होता है अर्थात् रसध्वनि काव्य का असाधारण तत्व है।

मम्मट की दृष्टि सर्वग्राही दृष्टि थी और इसलिए चित्रकाव्य को भी वे काव्य के अंतर्गत स्थान देना चाहते थे और विशेष रूप से चूंकि आनन्दवर्धन ने इसे स्वीकार किया था। कदाचित् इसलिए काव्यलक्षण के अंतर्गत रस का उल्लेख नहीं किया परन्तु रसानन्द को प्रयोजन के रूप में स्वीकार करके रस को काव्य का विशेष मानते थे – इसे अवश्य संकेत रूप में प्रकट किया है।

 

प्रश्न – ‘शब्दार्थौ सहिर्ता काव्यम्’ को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – अग्निपुराण और आचार्य भरत के अनन्तर काव्यशास्त्र के क्षेत्र में ‘काव्यालंकार’ के रचयिता एवं ‘अलंकार संप्रदाय’ के प्रमुख आचार्य भामह का नाम क्रम आता है। इन्होंने काव्य को निम्न शब्दों में परिभाषित करने का प्रयत्न किया –

‘‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’’ अर्थात् शब्द और अर्थ में सहित भाव ही काव्य है।

इस परिभाषा के बारे में विद्वानों के दो प्रकार के मत पाये जाते हैं। एक वर्ग इस परिभाषा को परिष्कृत न मानकर अतिव्याप्ति दोष से दूषित स्वीकार करता है, जबकि दूसरा वर्ग इसे एक व्यापक परिभाषा स्वीकार करता है। व्यापक इस अर्थ में कि काव्य में केवल शब्दों का ही तो महत्व नहीं हुआ करता, शब्द तो मात्र बाह्य स्वरूप का ही स्राजक है। अर्थ का भी महत्व होता है, बल्कि यों कहना चाहिए कि सामान्य शब्द भी काव्य में महत्वपूर्ण अर्थ और भाव का द्योतक बन जाया करता है।

दूसरी ओर इस संक्षिप्त परिभाषा का यह गुण ही दोष (अतिव्यापप्ति) भी बन गया है, क्योेंकि शब्द और अर्थ का सहित-भाव शास्त्र में भी रहता है और लोक-व्यवहार में भी रहा करता है। इस परिभाषा में ‘सहित’ शब्द को महत्वपूर्ण स्वीकार करते हुए डा0 नगेन्द्र ने स्पष्टीकरण किया है –
‘‘सहित अर्थात् सामन्जस्यपूर्ण शब्द-अर्थ को काव्य कहते हैं।’’

दूसरी ओर आचार्य भामह द्वारा प्रदत परिभाषा को स्पष्ट करते हुए डा0 भगीरथ मिश्र लिखते हैं – ‘यह परिभाषा अत्यन्त व्यापक है, क्योंकि इसके क्षेत्र में काव्य के अतिरिक्त शास्त्र, इतिहास, वार्तालाप आदि सभी आ जाते हैं। इस कारण इसमें अतिव्याप्ति क्षेत्र है। यह भी काव्य के अत्यन्त व्यापक और बाह्य स्वरूप का ही स्पष्टीकरण करती है। वास्तव में ‘शब्दार्थौ सहितौ’ से भामह का तात्पर्य है शब्द और अर्थ दोनों की विशेषताएँ जिसमें प्रकट हो ऐसा दोनो का संघटन।

निश्चित है कि शास्त्रदि में अर्थ का ही महत्व होता है, शब्द का नहीं। पर काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का महत्व रहता है, यह भामह का भाव है। फिर भी इससे काव्य के स्वरूप का स्पष्टीकरण नहीं होता। हमारे विचार में पूर्णतया स्पष्टीकरण न होने प्र भी डॉ0 नगेन्द्र के अनुसार शब्द-अर्थ के सामंजस्य का काव्य में जो अभिधान रहता है, वह तो इस पंक्ति से स्पष्ट हो ही जाता है। फिर अंतरंग-बहिरंग पक्षों का भी यहाँ स्पष्ट संकेत मिल जाता है।

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