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रस (Sentiments)
रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनंद’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहा जाता है। जिस तरह से लजीज भोजन से जीभ और मन को तृप्ति मिलती है, ठीक उसी तरह मधुर काव्य का रसास्वादन करने से हृदय को आनंद मिलता है। यह आनंद अलौकिक और अकथनीय होता है। इसी साहित्यिक आनंद का नाम ‘रस’ है। साहित्य में रस का बड़ा ही महत्त्व माना गया है।
आचार्यों ने अपने-अपने ढंग के ‘रस’ को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है। सबसे प्रचलित परिभाषा भरत मुनि की है, जिन्होंने सर्वप्रथम ‘रस’ का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में ईसा की पहली शताब्दी के आसपास किया था। उनके अनुसार ‘रस’ की परिभाषा इस प्रकार है-
‘विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:‘
अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
रस के अंग
रस के चार अंग है-
(1) विभाव
(2) अनुभाव
(3) व्यभिचारी भाव
(4) स्थायी भाव
रस के प्रकार
रस के ग्यारह भेद होते है-
(1) शृंगार रस (स्थायी भाव – रति/प्रेम)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति स्थायीभाव शृंगार रस में परिणत हो जाता है। शृंगार रस के दो भेद हैं-
(क) संयोग शृंगार : जहाँ नायक और नायिका के मिलन की स्थिति हो, वहाँ संयोग शृंगार रस होता है।
- बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी) - “मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई |
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ||” - ”दुलहिन गावहु मंगलचार हम घर आये राजा राम भरतार ||”
(ख) वियोग शृंगार : जहाँ नायक और नायिका के वियोग की स्थिति हो, वहाँ वियोग शृंगार रस होता है।
- निसिदिन बरसत नयन हमारे
सदा रहित पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे।। (सूरदास)
(2) हास्य रस (स्थायी भाव – हास) –
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से हास स्थायीभाव हास्य रस में परिणत हो जाता है।
- तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप,
साज मिले पंद्रह मिनट, घंटा भर आलाप।
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी) - ”बुरे समय को देख कर गंजे तू क्यों रोय।
किसी भी हालत में तेरा बाल न बाँका होय”
(3) करुण रस (स्थायी भाव – शोक)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से शोक स्थायीभाव करुण रस में परिणत हो जाता है।
- “सोक बिकल सब रोवहिं रानी।
रूपु सीलु बलु तेजु बखानी।।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा।।
परिहिं भूमि तल बारहिं बारा।।” (तुलसीदास) - “प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है,
दुःख-जलनिधि-डूबी सहारा कहाँ है?”
(4) वीर रस (स्थायी भाव – उत्साह)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उत्साह स्थायीभाव वीर रस में परिणत हो जाता है।
- वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो।
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं।। (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी) - “मैं सत्य कहता हूँ सखे, सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे॥” - ”बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।।”
(5) रौद्र रस (स्थायी भाव – क्रोध)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से क्रोथ स्थायीभाव रौद्र रस में परिणत हो जाता है।
- श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े।। (मैथिली शरण गुप्त) - “उस काल कारे क्रोध के, तन कांपने उसका लगा।
मानो हवा के जोर से, सोता हुआ सागर जगा॥” - ”रे नृप बालक काल बस बोलत तेहि न संभार।
धनु ही सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार॥”
(6) भयानक रस (स्थायी भाव – भय)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से भय स्थायीभाव भयानक रस में परिणत हो जाता है।
- उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी।। (जयशंकर प्रसाद) - “एक और अजगर ही लखि, एक और मृगराज, विकल बटोही बीच ही परयों मूर्छा खाय।”
(7) बीभत्स रस (स्थायी भाव -जुगुप्सा/घृणा)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से जुगुप्सा स्थायीभाव वीभत्स रस में परिणत हो जाता है।
- सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत।।
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।। (भारतेन्दु)
(8) अदभुत रस (स्थायी भाव – विस्मय/आश्चर्य)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से विस्मय स्थायीभाव अद्भुत रस में परिणत हो जाता है।
- आखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लखि मातु।
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु।। (सेनापति) - ”देखी यशोदा शिशु के मुख में सकल विश्व की माया |
क्षण भर को वह बनी अचेतन हित न सकी कोमल काया ||” - ”पड़ी थी बिजली-सी विकराल, लपेटे थे घन जैसे बाल।
कौन छेड़े ये काले साँप, अवनिपति उठे अचानक काँप।”
(9) शांत रस (स्थायी भाव – शम/निर्वेद/वैराग्य/वीतराग)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से निर्वेद स्थायीभाव शांत रस में परिणत हो जाता है।
- मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना।। (कबीर) - “हाँ रघुनंदन प्रेम परीते। तुम विन जिअत बहुत दिन बीते॥”
- ”जब मै था तब हरि नाहिं अब हरि है मै नाहिं
सब अँधियारा मिट गया जब दीपक देख्या माहिं”
(10) वात्सल्य रस (स्थायी भाव – वत्सल रति)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से वत्सल स्थायीभाव वात्सल्य रस में परिणत हो जाता है।
- किलकत कान्ह घुटरुवन आवत।
मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत।। (सूरदास) - “किलक अरे मैं नेह निहारूं। इन दाँतो पर मोती वारूँ।”
- ”उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लाइ हूँ मुँह धो लो।”
- ”मैया मोरी चंद्र खिलौना लाऊ हो।
जैहयो कोटि घस पर अबहि तेरे गोद न अइहो।”
(11) भक्ति रस (स्थायी भाव – भगवद विषयक रति/अनुराग)
विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अनुराग स्थायीभाव भक्ति रस में परिणत हो जाता है।
- राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।
घोर भव नीर-निधि, नाम निज नाव रे।। (तुलसीदास) - ”पायो जी म्हें तो राम- रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, करि किरपा अपणायो।”
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