कक्षा 11 » संध्या के बाद (सुमित्रानन्दन पंत)

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संध्या के बाद
(व्याख्या)

सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहद् जिह्म विश्लथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!

शब्दार्थ :- तरुशिखर – वृक्ष का ऊपरी हिस्सा। ताम्रपर्ण – ताँबे की तरह लाल रंग के पत्ते। शतमुख – सौ मुँह वाले। स्वर्णिम – सोने जैसे। निर्झर – झरने। स्तंभ – खंभा। सरिता – नदी। क्षितिज – वह स्थान जहाँ पृथ्वी और आकाश मिले हुए प्रतीत होते हैं। बृहद् – बड़ा।  विश्लथ – थका हुआ सा। जिह्म – मंद। केंचुल-सा  – अजगर के समान।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि संध्या को पक्षी के रूप में चित्रित करते हुए कहता है कि संध्या रूपी पक्षी पंखों को समेटकर अपनी लाली के साथ पेड़ की ऊपरी शाखाओं पर जा बैठता है। संध्या की लाली अब पेड़ों की फुनगियों पर ही दिखाई दे रही है। इस समय झरनों के जल पर पीला प्रकाश पड़ रहा है। लगता है जैसे ताँबे के रंग के पीपल के पत्तों के समान सैकड़ों मुख वाले झरने स्वर्णिम धाराओं में बह रहे हैं।

दूर क्षितिज पर अस्त होता हुआ सूर्य नदी में चमकता प्रकाश का खंभा-सा जान पड़ता है। शाम के समय पेड़ों की परछाई से गंगाजल थके हुए बड़े अजगर के समान लगता है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘ताम्रपर्ण पीपल से’ ‘ज्योति स्तंभ-सा’ ‘विश्लथ केंचुल-सा’ में उपमा अलंकार है।
  • सम्पूर्ण पद्यांश में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल

शब्दार्थ :- अनिल – वायु। ऊर्मियों – लहरों। सर्पांकित – सर्प का रूप। लोड़ित – मथित (मथा हुआ)। रजत – तांबे जैसा लाल। बिंबित – चमकता हुआ। सिकता – रेत, बालू। सलिल – पानी। समीर – वायु। लवोपल – बर्फ का टुकड़ा, ओला।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि नदी के किनारे पर धूप-छाँव के रूप में प्रकाश फैला हुआ है। नदी किनारे की रेत हवा के चलने पर सर्प जैसी आकृति ले लेती है। नदी के नीले जल पर सूर्य की पीली आभा से चमकते बादलों का प्रतिबिंब पड़ रहा है। रेत, पानी और हवा प्रेम के बंधन में बँधे एक साथ चमक रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे रेत पानी में परिवर्तित हो गया है और पानी अपनी गति खोकर छोटे-छोटे बर्फ के कण में परिवर्तित हो गया है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  • सम्पूर्ण पद्यांश में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

शंख घंट बजते मंदिर में
लहरों में होता लय कंपन,
दीप शिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!

शब्दार्थ :- नीराजन – पानी का अर्घ्य देना।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि संध्या के समय नदी किनारे के मंदिरों में आरती होने की तैयारी शुरू हो जाती है। वहाँ शंख और घंटे बजने लगते हैं, इनके प्रभाव से नदी की लहरों में कंपन होेने लगता है। लोग मंदिर का कलश लेकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मंदिर का कलश भी सूर्य की लालिमा के प्रभाव से दीपक की लौं की भाँति आकाश में ऊपर उठकर आरती कर रहा हो।

नदी के किनारे पर बूढ़ी-विधवा स्त्रियाँ बगुलों के समान प्रतीत होती हैं। वे जप-ध्यान में मग्न रहती हैं। उनके मन की न दिखने वाली पीड़ा नदी की धीमी-धीमी धारा में बह जाती है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘दीप शिखा-सा ज्वलित कलश’ ‘तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ’ में उपमा अलंकार है।
  • सम्पूर्ण पद्यांश में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

दूर तमस रेखाओं-सी,
उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठाें का स्वर!

शब्दार्थ :- तमस – अंधकार। खगों – पक्षियों। पाँति – पंक्ति। आर्द्र – नम। नीरव – शांत। मुखरित – गुंजार। स्वर्ण – सोने। गोरज – गोधूलि। ज्योतित – चमकता।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि दूर आकाश में पक्षियों की उड़ती पंक्तियाँ अंधकार की रेखाओं जैसी लगती है। सोन पक्षियों की पंक्ति अपनी चहचाहट से शांत आकाश में गुंजार करती है। संध्या के समय जब गायें घरों की ओर लौटती हैं तो उनके खुरों से उड़ने वाली धूल सूर्य के प्रकाश से सुनहरी हो जाती है। उस समय ऐसा लगता है जैसे बादल की किरणें जल गई है। जब आकाश में चमकते हुए पक्षियों के कंठ का तेज स्वर गूँजता है तो वह आकाश में तीर के समान सनन-सनन करते हुए निकल जाता है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘दूर तमस रेखाओं-सी’ ‘उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित’ ‘स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज’ ‘किरणों की बादल-सी जलकर’ ‘सनन् तीर-सा जाता नभ में’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘नीरव नभ’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • सम्पूर्ण पद्यांश में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर,
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर!

शब्दार्थ :- खग – पक्षी। श्रांत – थका हुआ। श्लथ – ढीला। डग – कदम। म्लान – मलिन, मैला। अगोचर – जो दिखाई न दे। पैंठ – बाजार।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि संध्या के समय पक्षी और गायें अपने घरों को लौट रही हैं, किसान भी परिश्रम करके थके और ढीले कदमों से घर लौट रहे हैं। सभी मैले जड़ और चेतन जीव अपने-अपने घरों में घुसकर छिप गए हैं और अंधकार के कारण उनकी छाया तक दिखाई नहीं देती। गाँव के बाजार से व्यापारी भी अपने-अपने घर नावों पर बैठकर लौट रहे हैं। कुछ व्यापारी ऊँट, घोड़ो के साथ खाली बोरों पर बैठे हैं और हुक्का पी रहे हैं।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘श्रांत श्लथ’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘छाया भी हो गई अगोचर’ में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

जाड़ों की सूनी द्वाभा में
झूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँककर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!

शब्दार्थ :- द्वाभा – संध्या। निष्प्रभ – प्रभा या चमक से रहित। विषाद – दुख, उदासी। बिरहा – विरह के गीत। कूकर – कुत्ते। विषण्ण – उदास, दुखी।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि सर्दियों की रात में चारों ओर सन्नाटा पसरा पड़ा है। संध्या के धीमे प्रकाश में रात की छाया गहराती जा रही है। रात्री के अंधकार में सभी कुछ डूबता जा रहा है। उनकी चमक फीकी पड़ती जा रही है। इसका प्रभाव खेत, घर, बाग-बगीचे, पेड़, किनारे तथा लहरें सभी अंधकार में डूबते जा रहे हैं। रात के वातावरण में गाड़ीवाले विरह का गीत-गाते हुए चले जा रहे हैं। रास्ते में कुत्ते भी भौंक-भौंक कर लड़ रहे हैं और सियार हुआँ-हुआँ की आवाज निकाल रहे हैं। ये सभी उदास और दुखी रात्री को स्वर देते प्रतीत हो रहे हैं।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘बिरहा गाते गाड़ी वाले’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘भूँक-भूँककर’ ‘हुआँ-हुआँ’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘झूल रही निशि छाया गहरी’ में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

माली की मँड़ई से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी!

शब्दार्थ :- मँड़ई – झोपड़ी, कुटिया।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि शाम होते ही गाँव के माली की झोपड़ी से खाना पकाने के लिए जलायी जा रही आग का धुआँ-सा आकाश के नीचे उठने लगता है। इस धुएँ की लहर हवा में नीले रेशम की हल्की-सी जाली की तरह तैरती है। इसी समय कस्बे के दुकानदार रोशनी के लिए बत्ती जला देते हैं। इस बत्ती की मंद रोशनी ऐसे लगती है जैसे हिम या कोहरे का प्रसार ऊँघ रहा हो। ठंड के प्रभाव से जाड़े की अँधेरी रात लम्बी जान पड़ती है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘नीचे नभ’ ‘मौन मंद आभा में’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘नभ-सी धूमाली’ ‘रेशम की-सी’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी!’ ‘मंद पवन में तिरती नीली रेशम की-सी हलकी जाली!’ में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!

शब्दार्थ :- ढिबरी – मिट्टी के तेल से जलनेवाला छोटा-सा दीपक। अवसाद – दुख। श्रांति – थकान। कढ़ – निकाल।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि वर्णन करता है कि गाँव में दुकानदार के द्वारा जलायी जाने वाली ढिबरी की बत्ती से रोशनी भी बहुत कम होती है और धुआँ काफी निकलता है। इस धीमी रोशनी में मन का दुःख आँखों के सामने जाला-सा बुनता प्रतीत होता है अर्थात् गाँव का दुकानदार दुःखी रहता है। दुकानदार के दुखी रहने का कारण है कि यह एक छोटी-सी बस्ती है, इसमें बड़े लेन-देन की बातें करना व्यर्थ हैं। यहाँ ग्राहक बहुत ही कम हैं। दीपक की लौं के साथ मिलकर उनके चारों ओर सुख-दुःख ही मँडराते हैं।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘कम करती’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘छोटी-सी बस्ती’ में उपमा अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

कँप-कँप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर आँगन,
भूल गये लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!

शब्दार्थ :- कातर – भयभीत। क्रंदन – विलाप करना। मूक – चुप। क्षीण – मंद, कमजोर। गोपन – छिपी हुई। खपरा – छत बनाने के लिए पकाई हुई मिट्टी की आकृति।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि संध्या के समय गाँव के वातावरण का चित्रण करता हुआ कवि कहता है कि गाँव में गरीबी का साम्राज्य है। इसी कारण दुकानदारों के भयभीत हृदयों में विलाप या रोना चलता रहता है। वे निराशा की भावना को चुपचाप दबाए रखते हैं। संध्या के समय डिबरी का हल्का प्रकाश उसके मन में समायी गुप्त बातों को प्रकट करता-सा प्रतीत होता है। कुछ ही देर में सम्पूर्ण गाँव अपने कच्चे घर-आँगन सहित अंधकार में डूब जाता है। ऐसे वातावरण में गाँव का छोटा-सा दुकानदार अपनी सुध तक भूल जाता है, वह मूलधन व ब्याज का हिसाब लगाना भी भूल जाता है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
  • ‘कँप-कँप’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘मूक निराशा’ में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

सकुची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रहीं ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!

शब्दार्थ :- तुच्छतर – बहुत छोटी। नीरव – शांत। प्रदोष – संध्या। आकुल – दुखी, बेचैन।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि वर्णन करता है कि गाँव के छोटे-छोटे व्यापारियों की परचून की दुकानों में सामान बहुत ही कम है इसलिए वे सकुची-सी लगती हैं, वे छोटी-से-छोटी होती चली जा रही है। संध्या के इस शांत वातावरण में दुकानदार का हृदय बेचैन है और अन्दर का दुःख उमड़ कर बाहर निकल रहा है। गाँव के दुकानदार के मन में हीन-भावना पैदा हो रही है। उसमें भी मनुष्यता की भावना है और उसे अपना जीवन असफल प्रतीत हो रहा है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘सकुची-सी परचून’ में उपमा अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दिन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-की स्पर्धा में मर-मर!

शब्दार्थ :- ग्लानि – हीनदशा। क्षुधित – भूखा। क्लांति – थकान। सदृश – बराबर। कौड़ी-की स्पर्धा – पैसे कमाने की चाहत।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- गाँव के दुकानदार गरीबी, दुःख, बेइज्जती और घृणा के भावों को झेलते हैं। वे घोर दरिद्रता में जीवन बिता रहे हैं। वे भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी इच्छाएँ मर चुकी हैं। उनका जीवन दुःख की परिभाषा बन कर ही रह गया है। गाँव का दुकानदार निर्जीव अनाज की ढेरी के समान दिनभर दुकान की गद्दी पर बैठा रहता है। वह पैसा कमाने की होड़ में बात-बात पर झूठ बोलता रहता है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘जड़ अनाज के ढेर सदृश ही’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘दैन्य दुःख’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘बात-बात’ ‘मर-मर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘मृत अभिलाषा’ में मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों से कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण!

शब्दार्थ :- कुटुंब – परिवार। कथड़ी – पुराने कपड़े से बनाया गया लेवा, गुदड़ी।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि ग्रामीण क्षेत्र में छोटी-सी दुकानदारी के लिए इतने प्रयास करने पर भी दुकानदार के परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता है, न ही परिवार के सदस्य स्वच्छ और तंदरुस्त रह पाते हैं। वह रहने के लिए पक्का घर भी नहीं बना पाता। उनके मन में न तो कोई सुख है और न ही वह धन जोड़ पाता है। वह कंधों पर फटे कपड़े की बनी गुदड़ी डाले हुए है। गुदड़ी के सरकने से उसका शरीर सर्दी के कारण काँप रहा है। वह यह सोचता है कि उसका जीवन हर मोर्चे पर विफल ही रहा है, उसका जीवन इतनी विवशताओं से क्यों भरा है?

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • प्रश्नवाचक शैली का सुंदर प्रयोग है।
  • ‘क्या कुटुंब’ ‘स्वच्छ सुघर सब’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

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शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन?
यह क्या संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण?

शब्दार्थ :- महाजन – उन्नत दुकानदार। सकल – सभी।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि गाँव का छोटा दुकानदार यह सोचता है कि वह शहरी बनियों के समान बड़ा महाजन क्यों नहीं बन पाता। सोचता है न जाने किसने उसकी तरक्की के सब साधन रोक दिए हैं। उसके जीवन में उन्नति क्यों नहीं हो पाती? क्या आज संसार की जो व्यवस्था चल रही है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। नई व्यवस्था में कर्म और गुण के आधार पर सभी की आमदनी और खर्चे का वितरण होना चाहिए।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘शहरी बनियों-सा’ में उपमा अलंकार है।
  • ‘सब साधन’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

घुसे घरौंदों में मिट्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का?

शब्दार्थ :- घरौंदों – घरों।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि गाँव के सभी लोग अपने-अपने घरों में घुसकर सोच रहे हैं कि किस प्रकार लोगों में सामूहिक जीवन शक्ति का उदय हो। सभी लोग मिलकर एक नए संसार का निर्माण करें तथा जीवन के सभी सुखों का उपभोग भी सब मिलकर ही कर सकें। नए समाज में लोगों का जीवन शोषण से मुक्त हो और धन पर भी सारे समाज का समान अधिकार हो। ऐसे ही आदर्श समाज में सभी लोगों का जीवन सुखी और समृद्ध बन सकेगा।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘अपनी-अपनी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘घुसे घरौंदों’ ‘सबमें सामूहिक’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

दरिद्रता पापों की जननी,
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!

शब्दार्थ :- अधिवास – निवास-स्थान, घर।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि गरीबी ही सब पापों का मूल कारण है। कवि चाहता है कि लोगों के जीवन से पाप, दुःख व भय आदि मिटने चाहिए। लोगों को रहने के लिए सुन्दर मकान, स्वच्छ कपड़े और स्वस्थ शरीर मिलना चाहिए, इससे पशुता की भावना पर मानवता की भावना विजयी हो सकेगी। कवि कहता है कि ऐसी विकट स्थिति के लिए कोई एक व्यक्ति दोषी नहीं है वरन् लोगों के दुःखी होने में समाज की परम्परा ही जिम्मेदार है। यदि सब बराबर मेहनत करें और लोगों में ही उनकी मेहनत का पैसा बाँट दिया जाए तो सारे देश की जनता सुखी हो जाएगी।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘देश देश की’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
  • ‘पशु पर’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘दरिद्रता पापों की जननी’ मानवीकरण अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आई जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घुघ्घू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

शब्दार्थ :- वणिक – व्यापारी।

संदर्भ :- व्याख्येय पद्यांश अंतरा भाग 1 में संकलित कवि ‘सुमित्रानंदन पंत’ की कविता ‘संध्या के बाद’ से उद्धृत है।

प्रसंग :- इस कविता में ढलती हुई साँझ के समय गाँव के वातावरण, जनजीवन और प्रकृति का सुंदर चित्रण हुआ है।

व्याख्या :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि गाँव का छोटा दुकानदार अकेला बैठा हुआ संसार के सभी लोगों को सुख प्राप्त होने का स्वप्न देख रहा था, तभी गाँव की एक बूढ़ी स्त्री उससे आधा पाव आटा खरीदने आती है और उसका वह स्वप्न टूट जाता है। वह मजबूरी में कम तोलकर आटा देता है अर्थात् इस असमान अर्थव्यवस्था के लिए वह स्वयं भी दोषी है। इस स्थिति का प्रतीक घुग्घू जब डाल पर चीखता है तो गाँव के लोग अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं अर्थात् शोषक वर्ग की एक घुड़की से सब भयभीत हो जाते हैं। धीरे-धीरे सारा गाँव नींद में डूब जाता है, ऐसा लगता है कि आलस रूपी नींद का अजगर उन्हें निगल रहा है।

विशेष :-

  • तत्सम शब्दों से युक्त खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘बुढ़िया बेचारी’ में अनुप्रास अलंकार है।
  • ‘गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!’ मानवीकरण अलंकार है।
  • डंडी मारना मुहावरे का प्रयोग है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

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संध्या के बाद
(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न :- संध्या के समय प्रकृति में क्या-क्या परिवर्तन होते हैं, कविता के आधार पर लिखिए।

उत्तर :- संध्या रूपी पक्षी पंखों को समेटकर अपनी लाली के साथ पेड़ की ऊपरी शाखाओं पर जा बैठता है। संध्या की लाली अब पेड़ों की फुनगियों पर ही दिखाई दे रही है। इस समय झरनों के जल पर पीला प्रकाश पड़ रहा है। लगता है जैसे ताँबे के रंग के पीपल के पत्तों के समान सैकड़ों मुख वाले झरने स्वर्णिम धाराओं में बह रहे हैं। दूर क्षितिज पर अस्त होता हुआ सूर्य नदी में चमकता प्रकाश का खंभा-सा जान पड़ता है। शाम के समय पेड़ों की परछाई से गंगाजल थके हुए बड़े अजगर के समान लगता है।

प्रश्न :- पंत जी ने नदी के तट का जो वर्णन किया है, उसे अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर :- नदी के किनारे पर धूप-छाँव के रूप में प्रकाश फैला हुआ है। नदी किनारे की रेत हवा के चलने पर सर्प जैसी आकृति ले लेती है। नदी के नीले जल पर सूर्य की पीली आभा से चमकते बादलों का प्रतिबिंब पड़ रहा है। रेत, पानी और हवा प्रेम के बंधन में बँधे एक साथ चमक रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे रेत पानी में परिवर्तित हो गया है और पानी अपनी गति खोकर छोटे-छोटे बर्फ के कण में परिवर्तित हो गया है।

संध्या के समय नदी किनारे के मंदिरों में आरती होने की तैयारी शुरू हो जाती है। वहाँ शंख और घंटे बजने लगते हैं, इनके प्रभाव से नदी की लहरों में कंपन होेने लगता है। लोग मंदिर का कलश लेकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मंदिर का कलश भी सूर्य की लालिमा के प्रभाव से दीपक की लौं की भाँति आकाश में ऊपर उठकर आरती कर रहा हो।

नदी के किनारे पर बूढ़ी-विधवा स्त्रियाँ बगुलों के समान प्रतीत होती हैं। वे जप-ध्यान में मग्न रहती हैं। उनके मन की न दिखने वाली पीड़ा नदी की धीमी-धीमी धारा में बह जाती है।

प्रश्न :- बस्ती के छोटे से गाँव के अवसाद को किन-किन उपकरणों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है?

उत्तर :- बस्ती के छोटे से गाँव के अवसाद को निम्नलिखित उपकरणों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है –

  • घरों में प्रकाश करने के लिए तेल की ढिबरी का प्रयोग जाना।
  • लोगों के मन का अवसाद उनकी आँखों में जालों के रूप में विद्यमान रहता है।
  • लोगों के दिल का रुदन तथा मूक निराशा दीए की लौ की तरह कंपित होती है।

प्रश्न :- लाला के मन में उठनेवाली दुविधा को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर :- संध्या के वातावरण में दुकानदार का हृदय बेचैन है और अन्दर का दुःख उमड़ कर बाहर निकल रहा है। गाँव के दुकानदार के मन में हीन-भावना पैदा हो रही है। गाँव का छोटा दुकानदार यह सोचता है कि वह शहरी बनियों के समान बड़ा महाजन क्यों नहीं बन पाता। सोचता है न जाने किसने उसकी तरक्की के सब साधन रोक दिए हैं। उसके जीवन में उन्नति क्यों नहीं हो पाती? क्या आज संसार की जो व्यवस्था चल रही है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। नई व्यवस्था में कर्म और गुण के आधार पर सभी की आमदनी और खर्चे का वितरण होना चाहिए।

प्रश्न :-सामाजिक समानता की छवि की कल्पना किस तरह अभिव्यक्त हुई है?

उत्तर :- कवि कहता है कि गाँव के सभी लोग अपने-अपने घरों में घुसकर सोच रहे हैं कि किस प्रकार लोगों में सामूहिक जीवन शक्ति का उदय हो। सभी लोग मिलकर एक नए संसार का निर्माण करें तथा जीवन के सभी सुखों का उपभोग भी सब मिलकर ही कर सकें। नए समाज में लोगों का जीवन शोषण से मुक्त हो और धन पर भी सारे समाज का समान अधिकार हो। ऐसे ही आदर्श समाज में सभी लोगों का जीवन सुखी और समृद्ध बन सकेगा।

प्रश्न :- ‘कर्म और गुण के समान———–हो वितरण’ पंक्ति के माध्यम से कवि कैसे समाज की ओर संकेत कर रहा है?

उत्तर :- कवि कहता है कि गाँव का छोटा दुकानदार यह सोचता है कि वह शहरी बनियों के समान बड़ा महाजन क्यों नहीं बन पाता। सोचता है न जाने किसने उसकी तरक्की के सब साधन रोक दिए हैं। उसके जीवन में उन्नति क्यों नहीं हो पाती? क्या आज संसार की जो व्यवस्था चल रही है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। नई व्यवस्था में कर्म और गुण के आधार पर सभी की आमदनी और खर्चे का वितरण होना चाहिए।

प्रश्न :- निम्नलिखित पंक्तियों का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!

उत्तर :-

भाव-सौंदर्य :- नदी के किनारे पर बूढ़ी-विधवा स्त्रियाँ बगुलों के समान प्रतीत होती हैं। वे जप-ध्यान में मग्न रहती हैं। उनके मन की न दिखने वाली पीड़ा नदी की धीमी-धीमी धारा में बह जाती है।

शिल्प-सौंदर्य :-

  • खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग।
  • ‘बगुलों-सी वृद्धाएँ’ में उपमा अलंकार है।
  • मुक्त छंद है।
  • अभिधा शब्द-शक्ति है।
  • प्रसाद गुण है।

प्रश्न :- आशय स्पष्ट कीजिए-
(क) ताम्रपर्ण, पीपल से, शतमुख / झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!

आशय :- संध्या की लाली अब पेड़ों की फुनगियों पर ही दिखाई दे रही है। इस समय झरनों के जल पर पीला प्रकाश पड़ रहा है। लगता है जैसे ताँबे के रंग के पीपल के पत्तों के समान सैकड़ों मुख वाले झरने स्वर्णिम धाराओं में बह रहे हैं।

(ख) दीप शिखा-सा ज्वलित कलश/ नभ में उठकर करता नीराजन!

आशय :- लोग मंदिर का कलश लेकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मंदिर का कलश भी सूर्य की लालिमा के प्रभाव से दीपक की लौं की भाँति आकाश में ऊपर उठकर आरती कर रहा हो।

(ग) सोन खगों की पाँति/आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!

आशय :- इन पंक्तियों में कवि कहता है कि दूर आकाश में पक्षियों की उड़ती पंक्तियाँ अंधकार की रेखाओं जैसी लगती है। सोन पक्षियों की पंक्ति अपनी चहचाहट से शांत आकाश में गुंजार करती है।

(घ) मन से कढ़ अवसाद श्रांति / आँखों के आगे बुनती जाला!

आशय :- गाँव में दुकानदार के द्वारा जलायी जाने वाली ढिबरी की बत्ती से रोशनी भी बहुत कम होती है और धुआँ काफी निकलता है। इस धीमी रोशनी में मन का दुःख आँखों के सामने जाला-सा बुनता प्रतीत होता है अर्थात् गाँव का दुकानदार दुःखी रहता है।

(ड-) क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों / गोपन मन को दे दी हो भाषा!

आशय :- कवि संध्या के समय गाँव के वातावरण का चित्रण करता हुआ कवि कहता है कि गाँव में गरीबी का साम्राज्य है। इसी कारण दुकानदारों के भयभीत हृदयों में विलाप या रोना चलता रहता है। वे निराशा की भावना को चुपचाप दबाए रखते हैं। संध्या के समय डिबरी का हल्का प्रकाश उसके मन में समायी गुप्त बातों को प्रकट करता-सा प्रतीत होता है।

(च) बिना आय की क्लांति बन रही / उसके जीवन की परिभाषा!

आशय :- गाँव के दुकानदार गरीबी, दुःख, बेइज्जती और घृणा के भावों को झेलते हैं। वे घोर दरिद्रता में जीवन बिता रहे हैं। वे भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी इच्छाएँ मर चुकी हैं। उनका जीवन दुःख की परिभाषा बन कर ही रह गया है।

(छ) व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी / दोषी जन के दुःख क्लेश की।

आशय :- कवि कहता है कि ऐसी विकट स्थिति के लिए कोई एक व्यक्ति दोषी नहीं है वरन् लोगों के दुःखी होने में समाज की परम्परा ही जिम्मेदार है। यदि सब बराबर मेहनत करें और लोगों में ही उनकी मेहनत का पैसा बाँट दिया जाए तो सारे देश की जनता सुखी हो जाएगी।

योग्यता-विस्तार

प्रश्न :-ग्राम्य जीवन से संबंधित कविताओं का संकलन कीजिए।

उत्तर :- छात्र स्वयं करें।

प्रश्न :- कविता में निम्नलिखित उपमान किसके लिए आए हैं, लिखिए –

उत्तर :-

(क) ज्योति स्तंभ-सा – सूरज
(ख) केंचुल-सा – गंगा का जल
(ग) दीपशिखा-सा – कलश
(घ) बगुलों-सी – वृद्ध औरतें
(ङ) स्वर्ण चूर्ण-सी – गायों के पाँव से उड़ने वाली गोधूलि
(च) सनन् तीर-सा – कंठों का स्वर


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