कक्षा 12 » कच्चा चिट्ठा (ब्रजमोहन व्यास)

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"कच्चा चिट्ठा"
(पाठ का सार)

पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ है। वहाँ प्राचीन काल से प्रतिवर्ष जैनों का एक बड़ा मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से हजारों जैन यात्री आकर सम्मिलित होते हैं। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर एक छोटी-सी पहाड़ी थी जिसकी गुफा में बुद्धदेव व्यायाम करते थे। वहाँ एक विषधर सर्प भी रहता था। यह भी किवदंती है कि इसी के सन्निकट सम्राट अशोक ने एक स्तूप बनवाया था जिसमें बुद्ध के थोड़े से केश और नखखंड रखे गए थे। पसोवे में स्तूप और व्यायामशाला के तो कोई चिह्न अब शेष नहीं रह गए, परंतु वहाँ एक पहाड़ी अवश्य है। लेखक प्राचीन अवशेषों को खोजने वहाँ जाना चाहता था।

लेखक जहाँ भी जाता है वहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता, बल्कि ऐतिहासिक महत्व की कोई-न-कोई वस्तु अवश्य लेकर लौटता है। कौशांबी से लौटते हुए भी लेखक को बढ़िया मृण्मूर्तियाँ, सिक्के, मनके तथा चतुर्मुख शिव की मूर्ति मिली। जिन्हें वह अपने साथ लाया। अगली बार जब लेखकर कौशांबी गया तो गाँव में बोधिसत्व की लाल पत्थर की आठ फट ऊँची बिना सिर वाली मूर्ति मिली।

लेखक प्राचीन वस्तुओं के लिए स्वयं को बिल्ली मानता है। जिस प्रकार बिल्ली यदि व्रज करती हुई भी स्वयं सामने आए चूहे को खाने से परहेज नहीं करती, उसी प्रकार लेखक भी पौराणिक वस्तुओं के मिल जाने पर उन्हें साथ ले जाना नहीं छोड़ता। एक बार जब लेखक कौशांबी लौट रहा था तो रास्ते में एक गाँव में उसे पत्थरों के ढेर में पेड़ के नीचे चतुर्मुख शिव की एक मूर्ति दिखी। वह मूर्ति देखकर लेखक को लगा जैसे वह स्वयं उसे ले चलने को कह रही हो। लेखक का मन ललचा गया और वह उसे इक्के पर रखकर ले आया।

लेखक कहता है कि जब अपना सोना ही खोटा हो तो परखने वाले को कौन दोष दे सकता है। एक बार लेखक किसी गाँव से शिव की मूर्ति चुपचाप उठा लाता है। उस समय तक यह बात सब गाँवों में फैल चुकी थी कि अगर पुरानी कोई चीज गायब होती है तो वह लेखक के संग्रहालय में मिलती थी। यह बात पिचानवे प्रतिशत सही बैठती थी। जब गाँव से शिव की मूर्ति गायब हुई तो गाँववालों का शक सीधा लेखक पर गया।

लेखक जब कौशांबी से लौट रहा था तो उसे गाँव में पत्थरों के बीच शिव की एक मूर्ति मिली। उस मूर्ति को लेखक अपने साथ ले आया। मूर्ति के गायब होने पर गाँववालों को बहुत दुख हुआ। उन्होंने अपनी आस्था की केंद्र उस मूर्ति की प्राप्ति के लिए उपवास रखा और पानी तक नहीं पिया।  लेखक पर शक होने के बाद गाँववाले एकत्र होकर लेखक के दफ्ऱतर में पहुँचे। वहाँ लेखक ने उन्हें वह मूर्ति वापिस कर दी और मिठाई व जल से उनका उपवास तुड़वाया।

दूसरे वर्ष लेखक फिर कौशाम्बी गया और गाँव-गाँव, नाले-खोले घूमता-फिरता झख मारता रहा। बराबर यही सोचता कि फ्ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ।य् और यही एक दिन हुआ। खेतों की डाँड़-डाँड़ जा रहा था कि एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति पड़ी देखी। मथुरा के लाल पत्थर की थी। सिवाए सिर के पदस्थल तक वह संपूर्ण थी। वह लौटकर पाँच-छह आदमी और लटकाने का सामान गाँव से लेकर फिर लौटा। जैसे ही उस मूर्ति को मैं उठवाने लगा वैसे ही एक बुढ़िया जो खेत निरा रही थी, तमककर आई और मूर्ति ले जाने से रोका। लेखक समझ गया। लेखक ने अपने जेब में पड़े हुए रुपयों को ठनठनाया। सिक्कों की खनखनाहट सुनकर बुढ़िया ललचा गई और लेखक ने मूर्ति के बदले दो रुपये देने की बात पक्की कर ली। इस प्रकार लेखक दो रुपये में मूर्ति पाने में सफल रहा।

बिना हेराफेरी और चालबाजी के आज के समय में कोई बड़ा कार्य पूरा नहीं किया जा सकता। यदि लेखक ईमानदारी से संग्रहालय के लिए वस्तुएँ इकट्ठा करने की कोशिश करता तो शायद वह कामयाब नहीं हो पाता। वह अपनी वाक्पटफ़ता, चतुराई और कम पैसों में चीजों को खरीदने की कला के दम पर इतना बड़ा पुरातात्विक संग्रहालय तैयार कर पाया।

लेखक को बोधिसत्व की मूर्ति मात्र दो रुपये में मिली थी। लेकिन फ्रांसीसी डीलर उस मूर्ति के दस हजार रुपए देने को तैयार था। इसका कारण था कि वह मूर्ति मथुरा के लाल पत्थर की बनी थी। वह बोधिसत्व की अब तक प्राप्त सभी मूर्तियों में सबसे प्राचीन मूर्ति थी। इसकी स्थापना कुषाण सम्राट कनिष्क ने की थी। यह लेख उस मूर्ति के पदस्थल पर लिखा गया था। इसलिए वह एक दुर्लभ मूर्ति थी।

लेखक ने सोचा कि जिस गाँव में भद्रमथ का शिलालेख हो सकता है वहाँ संभव है और भी शिलालेख हों। अतः वह कौशाम्बी से केवल चार-पाँच मील दूर हजियापुर गया और उसने गुलज़ार मियाँ के यहाँ डेरा डाल दिया। गुलज़ार मियाँ के मकान के ठीक सामने उन्हीं का एक निहायत पुख्ता सजीला कुँआ था। चबूतरे के ऊपर चार पक्के खंभे थे जिनमें एक से दूसरे तक अठपहल पत्थर की बँडेर पानी भरने के लिए गड़ी हुई थी। सहसा लेखक दृष्टि एक बँडेर पर गई जिसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक ब्राह्मी अक्षरों में एक लेख था। लेखक की तबीयत फड़क उठी। परंतु सजीले खंभों से खोदकर निकलवाने में हिचक हुई। गुलज़ार मियांँ उसे असमंजस में देख तुरंत बोल उठे – सब कुछ आपका ही है, अभी इसे खुदवा देते हैं। उन्होंने तुरंत उसे निकलवा कर लेखक को दे दिया। इस प्रकार भद्रमथ के शिलालेख की क्षति-पूर्ति हो गई।

लेखक अंत में कहता है कि यह संग्रहालय चार महानुभावों की सहायता और सहानुभूति से बन सका है।

  • राय बहादुर कामता प्रसाद कक्कड़ (तत्कालीन चेयरमैन),
  • हिज़ हाइनेस श्री महेंद्रसिहजू देव नागौद नरेश और उनके सुयोग्य दीवान लाल भार्गवेंद्रसिह
  • स्वामीभक्त अर्दली जगदेव, जिसके अथक परिश्रम से इतना बड़ा संग्रह संभव हुआ।

इस प्रकार लेखक उपरोक्त व्यक्तियों के प्रति अपना आभार व्यक्त करता है।

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"कच्चा चिट्ठा"
(पाठ के प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न – पसोवा की प्रसिद्धि का क्या कारण था और लेखक वहाँ क्यों जाना चाहता था?

उत्तर – पसोवा एक बड़ा जैन तीर्थ है। वहाँ प्राचीन काल से प्रतिवर्ष जैनों का एक बड़ा मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से हजारों जैन यात्री आकर सम्मिलित होते हैं। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान पर एक छोटी-सी पहाड़ी थी जिसकी गुफा में बुद्धदेव व्यायाम करते थे। वहाँ एक विषधर सर्प भी रहता था। यह भी किवदंती है कि इसी के सन्निकट सम्राट अशोक ने एक स्तूप बनवाया था जिसमें बुद्ध के थोड़े से केश और नखखंड रखे गए थे। पसोवे में स्तूप और व्यायामशाला के तो कोई चिह्न अब शेष नहीं रह गए, परंतु वहाँ एक पहाड़ी अवश्य है। लेखक प्राचीन अवशेषों को खोजने वहाँ जाना चाहता था।

प्रश्न – फ्मैं कहीं जाता हँू तो ‘छँूछे’ हाथ नहीं लौटता।य् से क्या तात्पर्य है? लेखक कौशाम्बी लौटते हुए अपने साथ क्या-क्या लाया?

उत्तर – लेखक के इस कथन का तात्पर्य है कि लेखक जहाँ भी जाता है वहाँ से खाली हाथ नहीं लौटता, बल्कि ऐतिहासिक महत्व की कोई-न-कोई वस्तु अवश्य लेकर लौटता है। कौशांबी से लौटते हुए भी लेखक को बढ़िया मृण्मूर्तियाँ, सिक्के, मनके तथा चतुर्मुख शिव की मूर्ति मिली। जिन्हें वह अपने साथ लाया। अगली बार जब लेखकर कौशांबी गया तो गाँव में बोधिसत्व की लाल पत्थर की आठ फट ऊँची बिना सिर वाली मूर्ति मिली।

प्रश्न – फ्चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कर्तव्य पालन करना ही पड़ता है।य् – लेखक ने यह वाक्य किस संदर्भ में कहा और क्यों?

उत्तर – लेखक प्राचीन वस्तुओं के लिए स्वयं को बिल्ली मानता है। जिस प्रकार बिल्ली यदि व्रज करती हुई भी स्वयं सामने आए चूहे को खाने से परहेज नहीं करती, उसी प्रकार लेखक भी पौराणिक वस्तुओं के मिल जाने पर उन्हें साथ ले जाना नहीं छोड़ता। एक बार जब लेखक कौशांबी लौट रहा था तो रास्ते में एक गाँव में उसे पत्थरों के ढेर में पेड़ के नीचे चतुर्मुख शिव की एक मूर्ति दिखी। वह मूर्ति देखकर लेखक को लगा जैसे वह स्वयं उसे ले चलने को कह रही हो। लेखक का मन ललचा गया और वह उसे इक्के पर रखकर ले आया।

प्रश्न – फ्अपना सोना खोटा तो परखवैया का कौन दोस?य् से लेखक का क्या तात्पर्य है?

उत्तर – लेखक ने यह उक्ति अपने लिए ही कही है। इससे लेखक का तात्पर्य है कि जब अपना सोना ही खोटा हो तो परखने वाले को कौन दोष दे सकता है। एक बार लेखक किसी गाँव से शिव की मूर्ति चुपचाप उठा लाता है। उस समय तक यह बात सब गाँवों में फैल चुकी थी कि अगर पुरानी कोई चीज गायब होती है तो वह लेखक के संग्रहालय में मिलती थी। यह बात पिचानवे प्रतिशत सही बैठती थी। जब गाँव से शिव की मूर्ति गायब हुई तो गाँववालों का शक सीधा लेखक पर गया।

प्रश्न – गाँववालों ने उपवास क्यों रखा और उसे कब तोड़ा? दोनों प्रसंगों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – लेखक जब कौशांबी से लौट रहा था तो उसे गाँव में पत्थरों के बीच शिव की एक मूर्ति मिली। उस मूर्ति को लेखक अपने साथ ले आया। मूर्ति के गायब होने पर गाँववालों को बहुत दुख हुआ। उन्होंने अपनी आस्था की केंद्र उस मूर्ति की प्राप्ति के लिए उपवास रखा और पानी तक नहीं पिया।  लेखक पर शक होने के बाद गाँववाले एकत्र होकर लेखक के दफ्ऱतर में पहुँचे। वहाँ लेखक ने उन्हें वह मूर्ति वापिस कर दी और मिठाई व जल से उनका उपवास तुड़वाया।

प्रश्न – लेखक बुढ़िया से बोधिसत्व की आठ फुट लंबी सुंदर मूर्ति प्राप्त करने में कैसे सफल हुआ?

उत्तर – दूसरे वर्ष लेखक फिर कौशाम्बी गया और गाँव-गाँव, नाले-खोले घूमता-फिरता झख मारता रहा। बराबर यही सोचता कि फ्ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ।य् और यही एक दिन हुआ। खेतों की डाँड़-डाँड़ जा रहा था कि एक खेत की मेड़ पर बोधिसत्व की आठ फुट लंबी एक सुंदर मूर्ति पड़ी देखी। मथुरा के लाल पत्थर की थी। सिवाए सिर के पदस्थल तक वह संपूर्ण थी। वह लौटकर पाँच-छह आदमी और लटकाने का सामान गाँव से लेकर फिर लौटा। जैसे ही उस मूर्ति को मैं उठवाने लगा वैसे ही एक बुढ़िया जो खेत निरा रही थी, तमककर आई और मूर्ति ले जाने से रोका। लेखक समझ गया। लेखक ने अपने जेब में पड़े हुए रुपयों को ठनठनाया। सिक्कों की खनखनाहट सुनकर बुढ़िया ललचा गई और लेखक ने मूर्ति के बदले दो रुपये देने की बात पक्की कर ली। इस प्रकार लेखक दो रुपये में मूर्ति पाने में सफल रहा।

प्रश्न – ‘ईमान! ऐसी कोई चीज़ मेरे पास हुई नहीं तो उसके डिगने का कोई सवाल नहीं उठता। यदि होता तो इतना बड़ा संग्रह बिना पैसा-कौड़ी के हो ही नहीं सकता।’ – के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?

उत्तर – इस कथन के माध्यम से लेखक कहना चाहता है कि बिना हेराफेरी और चालबाजी के आज के समय में कोई बड़ा कार्य पूरा नहीं किया जा सकता। यदि लेखक ईमानदारी से संग्रहालय के लिए वस्तुएँ इकट्ठा करने की कोशिश करता तो शायद वह कामयाब नहीं हो पाता। वह अपनी वाक्पटफ़ता, चतुराई और कम पैसों में चीजों को खरीदने की कला के दम पर इतना बड़ा पुरातात्विक संग्रहालय तैयार कर पाया।

प्रश्न – दो रुपए में प्राप्त बोधिसत्व की मूर्ति पर दस हजार रुपए क्यों न्यौछावर किए जा रहे थे?

उत्तर – लेखक को बोधिसत्व की मूर्ति मात्र दो रुपये में मिली थी। लेकिन फ्रांसीसी डीलर उस मूर्ति के दस हजार रुपए देने को तैयार था। इसका कारण था कि वह मूर्ति मथुरा के लाल पत्थर की बनी थी। वह बोधिसत्व की अब तक प्राप्त सभी मूर्तियों में सबसे प्राचीन मूर्ति थी। इसकी स्थापना कुषाण सम्राट कनिष्क ने की थी। यह लेख उस मूर्ति के पदस्थल पर लिखा गया था। इसलिए वह एक दुर्लभ मूर्ति थी।

प्रश्न – भद्रमथ शिलालेख की क्षतिपूर्ति कैसे हुई? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – लेखक ने सोचा कि जिस गाँव में भद्रमथ का शिलालेख हो सकता है वहाँ संभव है और भी शिलालेख हों। अतः वह कौशाम्बी से केवल चार-पाँच मील दूर हजियापुर गया और उसने गुलज़ार मियाँ के यहाँ डेरा डाल दिया। गुलज़ार मियाँ के मकान के ठीक सामने उन्हीं का एक निहायत पुख्ता सजीला कुँआ था। चबूतरे के ऊपर चार पक्के खंभे थे जिनमें एक से दूसरे तक अठपहल पत्थर की बँडेर पानी भरने के लिए गड़ी हुई थी। सहसा लेखक दृष्टि एक बँडेर पर गई जिसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक ब्राह्मी अक्षरों में एक लेख था। लेखक की तबीयत फड़क उठी। परंतु सजीले खंभों से खोदकर निकलवाने में हिचक हुई। गुलज़ार मियांँ उसे असमंजस में देख तुरंत बोल उठे – सब कुछ आपका ही है, अभी इसे खुदवा देते हैं। उन्होंने तुरंत उसे निकलवा कर लेखक को दे दिया। इस प्रकार भद्रमथ के शिलालेख की क्षति-पूर्ति हो गई।

10- लेखक अपने संग्रहालय के निर्माण में किन-किन के प्रति अपना आभार प्रकट करता है और किसे अपने संग्रहालय का अभिभावक बनाकर निशि्ंचत होता है?

उत्तर – लेखक अंत में कहता है कि यह संग्रहालय चार महानुभावों की सहायता और सहानुभूति से बन सका है।

  • राय बहादुर कामता प्रसाद कक्कड़ (तत्कालीन चेयरमैन),
  • हिज़ हाइनेस श्री महेंद्रसिहजू देव नागौद नरेश और उनके सुयोग्य दीवान लाल भार्गवेंद्रसिह
  • स्वामीभक्त अर्दली जगदेव, जिसके अथक परिश्रम से इतना बड़ा संग्रह संभव हुआ।

इस प्रकार लेखक उपरोक्त व्यक्तियों के प्रति अपना आभार व्यक्त करता है।

भाषा शिल्प

1- निम्नलिखित का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

(क) इक्के को ठीक कर लिया
उत्तर – लेखक ने कौसांबी से पसोवा जाने के लिए इक्के वाले से भाड़ा तय कर लिया।

(ख) कील-काँटे से दुरूस्त था।
उत्तर – लेखक ने पसोवा जाने के लिए जिस इक्के को तय किया था उसकी हालत सही थी, वह बोझ ढोने के लिए उपयुक्त था।

(ग) मेरे मस्तक पर हस्बमामूल चंदन था।
उत्तर – लेखक के माथे पर जैसे यह लिखा था कि वही चोर है।

(घ) सुरखाब का पर
उत्तर – सुरखाब एक दुर्लभ पक्षी है। उसके लाल रंग के सुंदर पंख होते है। लेखक इसके माध्यम से मूर्ति के कीमती होने की पहचान बताना चाहता है।

2- लोकोक्तियों का संदर्भ सहित अर्थ स्पष्ट कीजिए-

(क) चोर की दाढ़ी में तिनका – चोर का स्वयं पर शक होना
संदर्भ – जब गाँव के लोग मूर्ति लेने के लिए लेखक के दफ्रतर पहँुचे तो लेखक का माथा ठनका क्योंकि शिव की मूर्ति उसी ने चुराई थी।

(ख) ना जाने केहि भेष में नारायण मिल जाएँ – इच्छित वस्तु न जाने कहाँ मिल जाए, इसे कोई नहीं जानता।
संदर्भ- लेखक गाँव-गाँव पुरातात्विक वस्तु के लिए घूम रहा था। एक दिन उसे खेत में बोधिसत्व की मूर्ति मिल गई।

(ग) यह म्याऊँ का ठौर था – बहुत कठिन कार्य शेष रहना।
संदर्भ – लेखक को संग्रहालय का निर्माण करवाने के लिए बहुत धन की आवश्यकता थी।


टेस्ट/क्विज

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