कक्षा 9 » वाख (ललद्यद)

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL
वाख
(कविता का अर्थ)

वाख – वाणी, शब्द या कथन, यह चार पंक्तियों में बद्ध कश्मीरी शैली की गेय रचना है।

1
रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।

शब्दार्थ –

कच्चे सकोरे – स्वाभाविक रूप से कमजोर। रस्सी कच्चे धागे की – कमजोर और नाशवान सहारे।  नाव – जीवन रूपी नाव। हूक – दुख भरी आह।

अर्थ –

कवयित्री कहती है कि मैं कमजोर और नाशवान सहारे अर्थात अपनी साँसों के द्वारा अपनी जीवन रूपी नाव को खीचे जा रहीं हूँ। कवि ईश्वर से अपनी नाव को पार लगाने की कामना करती है अर्थात मोक्ष पाना चाहती है। जिस प्रकार मिट्टी के कच्चे सकोरे में पानी डालना व्यर्थ है, वह कभी भी टूट सकता है, उसी प्रकार कवयित्री ईश्वर का पाने के लिए किए प्रयासों को व्यर्थ मानती है। इसी कारण कवयित्री के मन में रह-रह कर दुख भरी आह उठती है, वह जल्दी-से-जल्दी इस संसार रूपी भवसागर से पार उतरना चाहती है और परमात्मा की शरण में जाना चाहती है।

2
खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की।

शब्दार्थ –

सम (शम) – अंतःकरण तथा बाह्य-इंद्रियों का निग्रह। समभावी – समानता की भावना। खुलेगी साँकल बंद द्वार की – चेतना व्यापक होगी, मन मुक्त होगा।

अर्थ –

इस वाख के माध्यम से कवयित्री ने जीवन में संतुलन की महत्ता का बताया है। कवयित्री कहती है कि अधिक खा-खा कर अर्थात जीवन में अधिकाधिक भोग-उपभोग करके मनुष्य कुछ नहीं पा सकता, क्योंकि के सुख-उपभोग व्यक्ति को परमात्मा की भक्ति की ओर नहीं जाने देंगे। व्यक्ति कुछ न खाकर अर्थात अत्यधिक त्यागी होकर भी परमात्मा को नहीं पा सकता क्योंकि उसमें त्यागी होने का अहंकार आ जाएगा। जीवन में अंतःकरण तथा बाह्य-इंद्रियों का निग्रह आवश्यक है अर्थात इंद्रियों पर संयम जरूरी है। तभी हमारे मन में समानता की भावना का उदय होगा और हमारी चेतना व्यापक होगी अर्थात मन सांसारिक मोह-माया से मुक्त हो जाएगा।

3
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?

शब्दार्थ –

गई न सीधी राह – जीवन में सांसारिक छल-छद्मों के रास्ते पर चलती रही। सुषुम-सेतु – सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल, हठयोग में शरीर की तीन प्रधान नाड़ियों में से एक नाड़ी (सुषुम्ना), जो नासिका के मध्य भाग (ब्रह्मरंध्र) में स्थित है। जेब टटोली – आत्मालोचन किया। कौड़ी न पाई – कुछ प्राप्त न हुआ माझी – ईश्वर, गुरु, नाविक। उतराई – सद्कर्म रूपी मेहनताना।

अर्थ –

इस वाख में कवयित्री जीवन के अंतिम क्षणों में पश्चताप से व्याकुल है और कह रही है कि मैं परमात्मा की भक्ति करने की सीधी राह के लिए आई थी, लेकिन मैंने भक्ति करने की सीधी राह को न अपनाकर हठ-योग के रास्ते के अपनाया। जिसके कारण में अब परमात्मा से मिलन की इस घड़ी में देख रही हूँ कि मैंने व्यर्थ ही अपना जीवन हठ-योग में लगा दिया। मेरा जीवन बीत चुका है और अब भी मेरी जेब खाली है, इसमें परमात्मा से मिलने के लिए जो पुण्य कर्म होने चाहिए वे नहीं हैं। कवयित्री कहती है कि परमात्मा से मिलने के समय मुझसे जब मेरे कर्मों का हिसाब माँगा जाएगा तो मैं क्या जवाब दूँगी?

4
थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।।

शब्दार्थ –

थल-थल – सर्वत्र। शिव – ईश्वर। साहिब – स्वामी, ईश्वर।

अर्थ –

इस वाख के माध्यम से कवयित्री कहना चाहती है कि ईश्वर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। वह सब प्राणियों के भीतर है। इसलिए हमें आपस में हिन्दू-मुसलमान का भेद नहीं करना चाहिए। हे मानव! अगर तू सच में ज्ञानी हैं तो सबसे पहले अपने आप को जान। अगर तू स्वयं को जान लेगा तो समझ तू ईश्वर को भी आ जाएगा।

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL
वाख
(प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न – ‘रस्सी’ यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?

उत्तर – रस्सी का प्रयोग यहाँ सांसारिक बंधनों के लिए हुआ है। वो रस्सी नश्वर और कमजोर है।

प्रश्न – कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं?

उत्तर – कवयित्री सांसारिक मोह-माया, लोभ आदि से मुक्त नहीं हो पा रही है। वह ईश्वर की भक्ति से इस संसार रूपी भवसागर से पार जाना चाहती है। उसकी साँसों की डोर अत्यंत कमजोर है। इसलिए कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं?

प्रश्न – कवयित्री का ‘घर जाने की चाह’ से क्या तात्पर्य है?

उत्तर – कवयित्री परमात्मा की शरण को हो अपना असली घर मानता है। इसलिए वह भक्ति से सहारे मोक्ष पाकर परमात्मा के पास जाना चाहती है।

प्रश्न – भाव स्पष्ट कीजिए-
(क) जेब टटोली कौड़ी न पाई।

भावार्थ – कवयित्री को लगता है कि सांसारिक विषयों में पड़कर कवयित्री ने अपना जीवन व्यर्थ कर दिया। जीवन के अंतिम क्षण में जब परमात्मा से कवयित्री का मिलन होगा तो कवयित्री के पास भक्ति स्वरूप देने के लिए कुछ नहीं होगा।

(ख) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।

भावार्थ – इस वाख के माध्यम से कवयित्री ने जीवन में संतुलन की महत्ता का बताया है। कवयित्री कहती है कि अधिक खा-खा कर अर्थात जीवन में अधिकाधिक भोग-उपभोग करके मनुष्य कुछ नहीं पा सकता, क्योंकि के सुख-उपभोग व्यक्ति को परमात्मा की भक्ति की ओर नहीं जाने देंगे। व्यक्ति कुछ न खाकर अर्थात अत्यधिक त्यागी होकर भी परमात्मा को नहीं पा सकता क्योंकि उसमें त्यागी होने का अहंकार आ जाएगा।

प्रश्न – बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए ललद्यद ने क्या उपाय सुझाया है?

उत्तर – 

  1. व्यक्ति को ईश्वर की सच्ची भक्ति में लगे रहना चाहिए।
  2. सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।
  3. अपनी इंद्रियों पर संयम रखना चाहिए और जीवन में संतुलन बनाए रखना चाहिए।

प्रश्न – ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे
भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है?

आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को दूँ, क्या उतराई?

प्रश्न – ‘ज्ञानी’ से कवयित्री का क्या अभिप्राय है?

उत्तर – कवयित्री उसे ज्ञानी कहती है जो हिन्दू-मुसलमान का भेद नहीं करता। सभी प्राणियों में एक ही ईश्वर का अंश मानता हुआ सबके साथ समान व्यवहार करता हैं। जो आत्मज्ञान रखता है। 

 क्विज/टेस्ट

इस पाठ के टेस्ट के लिए यहाँ क्लिक करें।

JOIN WHATSAPP CHANNEL JOIN TELEGRAM CHANNEL

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *