पाश्चात्य काव्यशास्त्र » अरस्तू

प्रश्न-1 अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत किस प्रकार साहित्य में अपना विशेष स्थान रखता है-प्रकाश डालिए।

अथवा

अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत का उसकी शक्ति व सीमाओं के परिपेक्ष्य में विवेचन करो।

अथवा

अनुकरण-सिद्धांत की विभिन्न व्याख्याओं के संदर्भ में अरस्तू का मत स्पष्ट कीजिए।

उत्तर –

अरस्तू ने ‘अनुकरण’ शब्द प्लेटो से ग्रहण किया और उन्हीं की भांति इसे काव्य की आत्मा भी स्वीकार किया। किंतु प्लेटो ने अनुकरण के आधार पर जहाँ समस्त काव्य का खण्डन किया था, वहीं अरस्तू ने इसी आधार पर उसका मंडन किया। ऐसी स्थिति में अरस्तू के यहाँ अनुकरण का अर्थ निश्चित रूप से वह नहीं है जिसे प्लेटो ने स्वीकार किया था। तब प्रश्न है कि अरस्तू के लिए इस शब्द का क्या अर्थ है? इस बात का उत्तर हमें अरस्तू के सिद्धांत का विवेचन करने वाले विद्वानों के मन्तव्यों से ग्रहण करना पड़ेगा।

प्रो0 एस0 एच0 बूचर:- ‘‘कलाकृति सादृश्य-विधान अथवा मूल का पुनरुत्पादन होती है, उसका सांकेतिक प्रस्तुतीकरण नहीं।’’ (एरिस्टॉटिल्स थ्योरी ऑफ पोइट्री एण्ड फाइन आर्ट, प्रथम अमरीकी संस्करण, पृष्ठ 124)

‘‘कलाकृति मूल का पुनरुत्पादन तदाकार रूप में नहीं अपितु इन्द्रियग्राह्य रूप में करती है।’’
इसका अर्थ यह है कि रचनाकार अपनी रचना में मूल का यथावत् प्रत्यंकन नहीं करता, वरन् उसे उस रूप में प्रस्तुत करता है जिस रूप में वह रचनाकार की इन्द्रियों को प्रतीत होता है।

प्रो0 गिल्बर्ट मरे:- कवि शब्द के यूनानी पर्याय (पोएतेस) में ही अनुकरण की धारणा निहित थी, किन्तु अनुकरण का अर्थ सर्जना का अभाव नहीं था। (एरिस्टॉटिल ऑन द थ्योरी ऑफ पोइट्री – भूमिका – भाग, पृष्ठ 8)

पॉट्स:- अनुकरण का अर्थ है आत्माभिव्यंजना से भिन्न जीवन (की अनुभूति) का पुनः सृजन।
एटकिन्स:- अनुकरण सृजनात्मक दर्शन की क्रिया अथवा ‘प्रायः पुनः सृजन’ का ही दूसरा नाम है। (लिटरेरी क्रिटिसिज्म इन ऐटीक्विटी भाग -1, पृष्ठ 79-80)

स्कॉट-जेम्स:- अरस्तू के काव्यशास्त्र में ‘अनुकरण’ शब्द से तात्पर्य है – साहित्य में जीवन का वस्तुपरक अंकन, अथवा जिसे हम अपनी भाषा में जीवन का कल्पनात्मक पुनर्निर्माण कह सकते हैं। (द मेकिंग ऑफ लिटरेचर, पृष्ठ 53)

एबरकाम्बी:- ‘अनुकरण’ शब्द का प्रयोग उस काव्यात्मक प्रक्रिया के लिए किया है जो कला के अन्दर चलती रहती है। (प्रिंसिपिल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म पृष्ठ 88)

उपर्युक्त सारी व्याख्याओं से स्पष्ट है कि अरस्तू ने ‘अनुकरण’ शब्द को प्लेटो की भाँति यथावत् प्रतिकृति के अर्थ में नहीं लिया, उनके यहाँ इसका अर्थ निश्चय ही कहीं अधिक व्यापक है। इसी प्रसंग में यदि अरस्तू की उक्तियों को देख लिया जाए तो अनुकरण के बृहत्तर अर्थ को सहज ही हृदयंगम किया जा सकता है-

(क) कविता सामान्यतः मानवीय प्रकृति की दो सहज प्रवृत्तियों से उद्भूत हुई जान पड़ती है। इनमें से एक अनुकरण की प्रवृति। — कला प्रकृति का अनुकरण करती है। (मानव प्रकृति की सहज प्रवृत्तियाँ) (भौतिकी 2/2)

(ख) इस प्रकार प्रत्येक त्रसदी के अनिवार्यतः छह अंग होते हैं जो समग्र रूप में उसके विशिष्ट सौन्दर्य का निर्माण करते हैं – कथानक, चरित्र, पद-रचना, विचार-तत्व, दृश्य-विधान और गीत। इनमें से दो अनुकरण के माध्यम है, एक अनुकरण की विधि और तीन अनुकरण के विषय। (अरस्तू का काव्यशास्त्र)

(ग) चित्रकार अथवा अन्य किसी भी कलाकार की ही भाँति कवि भी अनुकर्ता है, अतः उसका अनुकार्य अनिवार्यतः इन तीन प्रकार की वस्तुओं में से कोई एक हो सकती है – जैसी वे थीं या हैं, जैसी वे कही या समझी जाती है अथवा जैसी वे होनी चाहिए। (अरस्तू का काव्यशास्त्र)

(घ) अनुकृत वस्तु से प्राप्त आनन्द भी कम सार्वभौम नहीं है। (अरस्तू का काव्यशास्त्र)

अरस्तू के अनुसार,

(1) मानवेत्तर प्रकृति का अनुकरण करना अनुकरणात्मक कला का काम नहीं है।

(2) कवि या कलाकार प्रकृति की गोचर वस्तुओं का नहीं वरन् प्रकृति की सृजन प्रक्रिया का अनुकरण करता है – अनुकरण का विषय गोचर वस्तुएँ न होकर, उनमें निहित प्रकृति-नियम हैं।
उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘पालिटिस’ में लिखा है – ‘‘प्रत्येक वस्तु पूर्ण विकसित होने पर जो होती है उसे ही हम उसकी प्रकृति कहते हैं।’’

अरस्तू ने त्रसदी के छह अंगों की चर्चा करते हुए सभी के मूल में अनुकरण को स्वीकार किया है। इधर भरत ने भी नाटक को लोकस्वभाव का अनुकरण या लोकवृत्त का अनुकरण माना है। इस विषय में ध्यातव्य है कि नाटक में अनुकरण केवल बाह्य व्यापारों, वेशभूभा आदि का ही नहीं किया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुकार्य विषयगत ही नहीं विषयिगत भी है।

डा0 नगेन्द्र का निष्कर्ष –

1- (काव्यात्मक) अनुकरण के विषय प्रकृति अथवा जीवन का बहिरंग अर्थात् नाम-आकार-धारी जड़ जंगम रूप ही नहीं है, वरन् उसका अंतरंग अथवा अनुभूति, विचार, कल्पना आदि भी है।

2- इन दोनों में भी अंतरंग प्राधान्य है, क्योंकि बहिरंग अर्थात् वस्तु के भी तो यथार्थ रूप का नहीं वरन् प्रतीयमान रूप का ही अनुकरण किया जाता है और वही संभव है।

3- अनुकरण में आनन्द का तत्व अनिवार्यतः निहित होने का अर्थ भी यही है कि उसमें आत्म-तत्व का प्रकाशन निहित रहता है, क्योंकि आनन्द की उपलब्धि आत्म-तत्व के प्रकाशन के बिना संभव नहीं है।

4- किन्तु भाव-तत्व और उसमें सन्निहित आत्म तत्व का निश्चित सद्भाव होने पर भी अनुकरण विशुद्ध आत्मभिव्यंजन का पर्याय नहीं है क्याेंकि उसमें वस्तु-तत्व का प्राधान्य अनिवार्य है – अनुकरण में वस्तु केवल उद्दीपन निमित्त मात्र न होकर आधार-रूप से विद्यमान रहती है। आधुनिक आलोचनाशास्त्र की शब्दावली में अनुकरण में अभिजात कला के वस्तुपरक भाव-तत्व की ही स्वीकृति है, रम्याद्भुत कला के व्यक्तिपरक भाव तत्व की नहीं। (अरस्तू का काव्यशास्त्र, भूमिका पृ0 9-15)

अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत की शक्तियाँ

1- अरस्तू ने अनुकरण में एक नूतन अर्थ का संचार कर कला को पूर्णतः वस्तु पर आधारित न मानते हुए उसके स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतिष्ठा की।

2- उन्होंने कला को मानव-मंगल विधायिनी स्वीकार करते हुए भी उसके सुंदर रूप को वरीयता दी।

3- दार्शनिक एवं नीतिज्ञ प्लेटो ने अनुकरण के आधार पर कला प्र जा-जो दोष लगाये थे, अरस्तू ने उन सबका निराकरण करते हुए सिद्ध कर दिया कि कला मानव को भ्रमित नकर सन्मार्ग की ओर प्रवृत करती है।

अरस्तू के अनुकरण सिद्धांत की सीमाएँ

1- यहाँ आत्मा तत्व और कल्पना तत्व को स्वीकार करते हुए भी प्रधानता वस्तु-तत्व को दी गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुकरण में रचनाकार की सर्जना को तो स्वीकार किया गया, किन्तु जीवन की विविध अनुभवों से उसकी जिस अंतश्चेतना का निर्माण होता है, उसे अपेक्षित महत्व नहीं दिया गया।

2- अनुकरण की परिधि में गीतिकाव्य का समाहार संभव नहीं है क्योंकि गीतिकाव्य का प्राण है भाव और इसीलिए उसमें वैयक्तिक अनुभूतियों की प्रधानता रहती है, वस्तु-तत्व का समावेश यहाँ प्रायः नगण्य होता है।

3- डा0 नगेन्द्र ने शंका उठाई है कि क्या अनुकरण शब्द का अरस्तू ने उचित प्रयोग किया है? अर्थात् क्या अनुकरण शब्द की अर्थ-परिधि में कल्पनात्मक पुनर्निर्माण, ‘पुनः सृजन’ ‘भाव-तत्व का समावेश’, ‘सर्जना के आनन्द की अवस्थिति’ आदि का अंतर्भाव सहज संभव है? इसका उत्तर यूनानी काव्यशास्त्रियों ने नकारात्मक दिया है।

4- अनुकरण-सिद्धांत का क्रोंचे के सहजानुभूति सिद्धांत से भी विरोध है। क्रोचे के अनुसार कला-सर्जना में अनुकरण का कोई योगदान नहीं, जबकि अरस्तू अनुकरण को ही कला मानते है और उसके लिए कवि कौशल को आवश्यक बताते हैं।

निष्कर्ष यह है कि जब अरस्तू अनुकरण की बात करते हैं तब उनका अभिप्राय भावपरक अनुकरण से होता है, यथार्थ के वस्तुपकर प्रत्यंकन से नहीं। अनुकृत वस्तु से आनन्द भी तभी प्राप्त हो सकता है जब अनुकर्ता अपनी कल्पना के सहारे उसमें कुछ जोड़ता है – नीरस नकल आनन्द की विधायिनी नहीं हो सकती। सारांश यह है कि अरस्तू का अनुकरण यथावत् प्रत्यंकन नहीं है, वह सर्जक के भाव-तत्व की स्पष्ट स्वीकृति होते हुए काव्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।