पाश्चात्य काव्यशास्त्र » क्रोचे

प्रश्न- क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता पर विचार कीजिए।

अथवा

‘सहजानुभूति ही कला है’ -विस्तृत विवेचना कीजिए।

उत्तर – बेनदेत्तो क्रोचे (1866-1952) इटली का प्रख्यात दार्शनिक, इतिहासकार और साहित्य समीक्षक था। अभिव्यंजनावाद की उद्भावना उसकी कृति ऐसथैटिक (1907) के माध्यम से हुई जो क्रोचे द्वारा सन् 1900 में एकेडेमिया पोन्टेनियाना में प्रस्तु ‘फंडामैंटल थीसेज आफ एन ऐसथैटिक ऐज साइन्स आफ एक्सप्रैशन एंड जनरल लिंग्विस्टिक’ का सैद्धांतिक पक्ष है।

उद्भावना

क्रोचे के मानस पर स्वच्छंदतावाद, व्यक्तिवाद और उदारतावाद का गहरा असर पड़ा। वे मूलतः आत्मवादी दार्शनिक थे। उनसे पूर्व ‘कला कला के लिए’ आंदोलन अपना रंग जमा चुका था। व्यक्तिवाद और स्वच्छंदतावाद की तरह अभिव्यंजनावाद भी रुढ़ि विजड़ित परम्परावाद के विरुद्ध एक शक्तिशाली आंदोलन था। परन्तु कालान्तर में इसकी बड़ी भर्त्सना हुई।

मूल मान्यता

क्रोचे की मान्यताएँ हैं – ज्ञान के दो रूप हैं, वह या तो स्वयं प्रकाश्य अथवा सहजानुभूत होता है, या फिर वह तर्क प्रधान होता है। ज्ञान या तो कल्पना द्वारा प्राप्त किया जाता है या बुद्धि द्वारा। व्यक्ति सापेक्ष ज्ञान और समष्टि सापेक्ष ज्ञान, वह या तो (काल्पनिक) बिंबों को उत्पन्न करता है या फिर धारणाओं को।

सहजानुभूति और धारणा

सामान्य जीवन में सहजानुभूतिपरक ज्ञान का ही सहारा लिया जाता है। कुछ विशिष्ट संदर्भों मं हम सत्य की परिभाषा नहीं कर सकते न उसे हम विश्लेषण व निष्कर्ष द्वारा बता पाते हैं। ऐसा सत्य सहजानुभूतिपरक ज्ञान से ही समझा जा सकता है।

सहजानुभूति (प्दजनपजपवद) क्रोचे के लिए आध्यात्मिक या आंतरिक गतिविधि है। इस आंतरिक गतिविधि का बिंब या धारणा के साथ सीधा संबंध है। मेरे सामने एक पुस्तक है यह सहजानुभूति है। मैं कल्पना करता हँू कि मैं दूसरे कमेरे में लिख रहा हँू यह भी सहजानुभूति है। क्रोचे वास्तविक और अवास्तविक के बीच अंतर को सहजानुभूति के सामने गौण मानता है।

सहजानुभूति और प्रत्यक्ष ज्ञान

सहजानुभूतिपरक ज्ञान को आश्रय की आवश्यकता नहीं रहती और न किसी पर निर्भर रहने की। सहजानुभूति और धारणाओं का मिश्रण संभव है। पर अन्य अनेक सहजानुभूतियों के साथ यह मिश्रण नहीं होता। इससे यह सिद्ध हुआ है कि ऐसा होना आवश्यक नहीं। सहजानुभूति से ही प्रत्यक्ष ज्ञान या बोध होता है।

सहजानुभूति और दिक्काल

स्थान और काल का सहजानुभूतियों से कोई संबंध नहीं है। आकाश का रंग, भावना, चीख और इच्छापूर्वक किये गये प्रयत्न आदि को हम अपनी चेतना के स्तर पर महसूस करते हैं। हमारी इस प्रकार की सहजानुभूति के निर्माण में दिक्काल का कोई हाथ नहीं होता।

सहजानुभूति और संवेदना

पदार्थ या भौतिक तत्व स्वयं में अमूर्त, यांत्रिक और निष्क्रिय होता है। रूपविधान एक सतत्
प्रक्रिया है। पदार्थ प्रिवर्तनशील है, रूप-विधान आध्यात्मिक गतिविधि है। बिना पदार्थ के आत्मिक गतिविधि अमूर्त बनी रहेगी, ठोस और वास्तविक क्रियाशीलता में परिवर्तित न हो सकेगी, आत्मिक तत्व या निश्चित सहजानुभूति के रूप में न उभर सकेगी।

सहजानुभूति और अभिव्यंजना

प्रत्येक सच्ची सहजानुभूति अभिव्यंजना है। जो अभिव्यंजना के माध्यम से इंद्रियगोचर नहीं होता वह सहजानुभूति नहीं अपितु संवेदना है। रूप विधान रचने में और अभिव्यंजित करने में केवल मन ही सहजानुभूति की क्रिया करता है। सहजानुभूति से अभिव्यंजना को भी अलग नहीं किया जा सकता।

सहजानुभूति और कला

कला सामान्य सहजानुभूति नहीं अपितु सहजानुभूति की सहजानुभूति है। उसी प्रकार जिस विज्ञान केवल प्रत्यय नहीं बल्कि प्रत्यय का प्रत्यय है। अतः कलाकृति को संवेदनाओं से नहीं केवल विशुद्ध सहजानुभूति से ही इंद्रियगोचर बनाया जा सकता है। कला अभिव्यंजना की नहीं अपितु प्रभावों की अभिव्यक्ति है। यहाँ अभिव्यंजनाओं से क्रोचे का तात्पर्य प्रभावों से है। अभिव्यक्तिपरक सहजानुभूतियों को परिभाषित करना कठिन कार्य है। यदि एक सूक्ति कलाकृति है, तो एक साधारण शब्द भी। यदि कहानी कला है तो पत्रकार द्वारा समाचारों का अंकना करना भी कला है।

कला अखण्ड है, उसे दृश्यों, वाक्यों आदि में विभक्त नहीं किया जा सकता। ऐसा विभाजन कलाकृति को नष्ट कर देता है। प्रभावों का विस्तार करके मनुष्य उससे मुक्त होता है। कला द्वारा मुक्तिकरण और शुद्धिकरण इसके चरित्र का एक और पक्ष है, जिसे कला की सक्रियता कहते हैं। शब्दों द्वारा अभिव्यंजना विशुद्ध कला नहीं है। काव्य विषयों के चुनाव के बारे में क्रोचे ने पूरी छूट दे रखी है। काव्य का कोई भी विषय हो सकता है।

काव्य या कला आंतरिक है। दृश्य जगत से उसका कोई संबंध नहीं है, वह बाहरी वस्तु नहीं बन सकती।
बाह्य अभिव्यक्ति चित्र, मूर्ति, कविता आदि कला नही अपितु स्मृति की सहायक वस्तुएँ हैं। सफल अभिव्यक्ति ही सच्ची कला है। कलाकार जब सफल अभिव्यक्ति करता है तो आत्म मुक्ति से प्राप्त आनन्द का अनुभव करता है। क्रोचे की दृष्टि में यही कला का आनन्द है।

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की सीमाएँ

क्रोचे के विचारों में काफी अंतर्विरोध है। उसने बार-बार आंतरिक अभिव्यंजना पर जोर दिया है। कला से उसका अभिप्राय मुक्त प्रेरणा है। वाह्य अभिव्यंजना को वह कला नहीं मानता। क्रोचे की अपनी सीमाएँ थीं। वह मूलतः दार्शनिक था अतः कला संबंधी उसके विचार अधिकतर दार्शनिक ऊहापोह हैं।

1- सहजानुभूति को ही कला समझ कर क्रोचे ने कलाकार को अराजकतावादी बना दिया। कलाकार यदि सहजज्ञान के आधार पर कलाकृति बनाता है तो सामाजिक यथार्थ अथवा समकालीन सामाजिक मूल्यों के प्रभाव से कैसे विरत हो सकता है।

2- क्रोचे व्यष्टिपरक ज्ञान को, जो सहजानुभूति से उत्पन्न होता है, कला का जन्मदाता बताता है। वस्तुपरकता और सामाजिक यथार्थ से रहित कला की क्या उपयोगिता हो सकती है यह स्वयं सिद्ध है। क्रोचे इस पर चुप हैं।

3- क्रोचे की मान्यता है, जो कुछ बाह्य है वह काव्य नहीं। संवेदनाएँ अपने अभिव्यंजनापरक रूप में कला का निर्माण नहीं करती। तो प्रश्न उठता है कि काव्य के विषय कहाँ से लिए जाएंगे? विषय-वस्तु का चुनाव शून्य में नहीं हो सकता।

4- कलाकार की कलाकृति की आलोचना करते समय आलोचक उसकी सहजानुभूति धारण नहीं कर सकता और न ही पाठक उस प्रकार की सहजानुभूति धारण करके काव्यास्वादन कर सकता है।
5- क्रोचे कलाकार की पूर्ण स्वतंत्रता का पक्षपाती था। परन्तु जब वह कला के क्षेत्र में कल्पनाओं और बिंबो का जाल बिछाना चाहता है तो भौतिक या ठोस अभिव्यंजन के अभाव में नैतिकता अथवा उपयोगिता वाली बात स्वतः समाप्त हो जाती है।

6 स्कॉट जेम्स के अनुसार, ‘‘क्रोचे प्रेषणीयता और सौंदर्य दोनों को भूल गया है।’’ ऐसा इसलिए हुआ कि क्रोचे ने कला को अमूर्त ढाँचे में ढाला, उसे आध्यात्मिक दर्जा दिया।

7- कला को क्रोचे प्रगीतात्मक बिंब कहता है। जो बिंब अभिव्यक्ति नहीं होता चाहे वह गीत के रूप में हो अथवा रेखाकृति, चित्र शिल्प या स्थापत्य कलाकृति के रूप में, वह केवल मानसिक चित्र या अपने अंदर अंदर बड़बड़ाया हुआ गीत है, बिंब के रूप में उसका अस्तित्व नहीं माना जा सकता।

8- क्रोचे तर्क प्रधान ज्ञान का उपयोग व्यवहारिक अर्थ में करना चाहता है। विशुद्ध कला के लिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं। कला के लिये तर्क ज्ञान को वह हेय ठहराता है। क्रोचे के इन विचारों की आज बिलकुल भी प्रासंगिकता नहीं है।

9- आचार्य शुक्ल के अनुसार –
‘‘मूर्त भावना अथवा कल्पना आत्मा की अपनी क्रिया नहीं है। जिसे क्रोचे आत्मा के कारखाने से निकले हुए रूप कहता है। वे वास्तव में बाह्य जगत से प्राप्त किये हुए रूप हैं। इन्द्रियज ज्ञान के जो संस्कार मन में संचित रहते हैं वे ही कभी बुद्धि के धक्के से कभी भाव के धक्के से यों ही भिन्न ढंग से अन्वित होकर जागा करते हैं। यहीं मूर्त भावना या कल्पना है। इस अन्वित रूप समूह को आध्यात्मिक साँचा कहना और पृथक-पृथम रूपों को उस साँचे में भरा जाने वाला मसाला बताना वितंडावाद के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है।

महत्व

1- क्रोचे ने लगातार चेतना को ही चरम सत्य माना।

2- वो मानते हैं कि चेतना के स्तर पर ही सारी क्रियाएँ, प्रक्रियाएँ, प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं।

3- कला के संदर्भ में क्रोचे ने बाहरी जगत की सत्ता, उपयोगितावाद दोनों को ठुकरा दिया।

4- कलावादी सिद्धांत के अनुसार कला के मूल्यांकन के लिए सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक आदि वस्तुपरक कसौटियों का उपयोग अनावश्यक ही नहीं त्याज्य है।

5- बिमसाट एवं किल्कित बुक्स
‘‘जो अभिव्यंजनावादी कला सिद्धांत जर्मन के विचारकों और कालरिज के विवेचन में सबसे पहले सामने आया था उसकी संश्लिष्ट और चरम परिभाषा क्रोचे के सिद्धांत में मिलती है।

6- सहजानुभूति के साथ अवधारणा का मिश्रण संभव तो है पर अनिवार्य नहीं। कला का मूल तत्व सहजानुभूति ही है। स्वतः पूर्ण सहजानुभूति। यही सत्य है। यह कलाकार का आंतरिक सत्य है। इसकी बाहरी अभिव्यक्ति संभव नहीं। आंतरिक अभिव्यंजना ही सर्वसम्पूर्ण और सत्य है। अमूर्त प्रतीति है। यही अभिव्यंजना है और यही अभिव्यंजना अभिन्न है।

7- बाहरी रूप में अभिव्यक्त होते ही सहजानुभूति पर बाहरी सामाजिकता, नैतिकता तथा उपयोगिता के नियम लागू हो जाते हैं। उपयोगी वस्तु समाज को आनन्द प्रदान करती है, नैतिकता देती है, उसके विचारों, अनुभूतियों का परिष्कार करती है, उसकी स्मृति में सहायक और उद्दीपक भूमिका निभाती है पर फिर भी सौंदर्य सृजन में गौण क्रिया है। कलाकार सहजानुभूति को कविता, चित्र, मूर्ति के रूप में अभिव्यक्ति करता है तो वह एक अतिरिक्त बाहरी क्रियाा है जिसके बिना भी कला के कला होने में कोई बाधा नहीं है। सहजानुभूति अभिव्यंजना कला को बाहरी स्वर की इन व्यवहारिक क्रिया से जोड़ना गलत है।