पाश्चात्य काव्यशास्त्र » टी0एस0 इलियट

प्रश्न – टी0एस0 इलियट के निर्वैयक्तिकता-सिद्धान्त पर विचार कीजिए।

अथवा

निर्वैक्तिक सिद्धांत तथा साधारणीकरण सिद्धांत की तुलना कीजिए तथा दोनों के मूल पार्थक्य पर प्रकाश डालो।

अथवा

टी0एस0 इलियट का निर्वैक्तिकता सिद्धांत रोमांटिक व्यक्तिवाद की प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुआ था – इस कथन पर विचार करो।

अथवा

इलियट ने कवि से ज्यादा कविता को महत्व दिया – निर्वैयक्तिकता के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए इस प्रश्न पर प्रकाश डालो।

उत्तर – आधुनिक विश्व-समीक्षा के इतिहास में इलियट का नाम अनेक दृष्टियों से अग्रगण्य है। कवि और आलोचक की दृष्टि से तो यह एक दुर्निवार नाम है। उनके चिंतक की विशेषता यह है कि उनके चिंतन में अंतर्विरोध बहुत कम है। उनका सैद्धांतिक चिंतन उनकी व्यावहारिक समीक्षा के भीतर से ही प्रस्फुटित हुआ है।

टी0एस0 इलियट की काव्य-कृतियों में ‘दि वेस्टलैण्ड’ (1922), ‘दि हालो न’ (1925), ‘ऐश वेडनेस्डे’ (1930), ‘कलैक्टेड पोयम्स’ (1907-62), ‘फोर क्वार्टर्स’ (1943),

नाटकों में – ‘मर्डर इन दि केथेड्रल’(1925), ‘दि फेमिली रियूनियन’ (1939), ‘दि काकतेल पाटी’ (1949), ‘दि कानपिडेंशिअल क्लर्क (1954),

समीक्षात्मक कृत्तियों में – ‘सेलेक्टेड ऐसेज’ (1932), ‘आन पोयट्री एंड पोएट्स’ (1957), ‘पोयट्री एण्ड ड्रामा’ (1951) आदि उल्लेखनीय है।

साहित्यिक समीक्षा के क्षेत्र में टी0एस0 इलियट ने बड़े महत्व के कार्य किए हैं –

1- साहित्येत्तर ज्ञान-विज्ञान के दुष्प्रभाव का विरोध तथा कला की शुद्धता पर बल,
2- कला के सृजन संबंधी निर्वैयक्तिकता सिद्धांत का प्रतिपादन,
3- परम्परा की अखंड ऐतिहासिक चेतना के रूप में नयी व्याख्या,
4- स्वच्छन्दतावाद में आत्माभिव्यक्ति सिद्धांत तथा आलोचना में प्रभाववाद के प्रति कठोर प्रतिवाद का स्वर,
5- मैकियावेली के सशक्त शासन सिद्धांत का समर्थन,
6- संस्कृति तथा धर्म के संबंधों पर नयी दृष्टि।

निर्वैयक्तिकता सिद्धांत और सृजन प्रक्रिया

साहित्य में वैयक्तिक तथा विशिष्ट से ऊपर उठकर टी0एस0इलियट ने निर्वैयक्तिक एवं सामान्य की महत्व-प्रतिष्ठा का प्रयत्न किया। कला-सृजन-प्रक्रिया की व्याख्या करने वाले आत्मनिष्ठ सिद्धांतों का इलियट ने खण्डन किया। उन्होेंने कहा – ‘कविता आत्म की अभिव्यक्ति नहीं है, आत्म से पलायन है।’’

निर्वैयक्तिकता सिद्धांत की विशेषताएँ

(1) कलाकृति या कविता की जैविक सत्ता –

इलियट ने अपना पूरा बल कला-सृजन के निर्वैयक्तिकता-सिद्धांत पर दिया। वे कलाकार या कवि पर ध्यान केन्द्रित न करते हुए कला या कविता पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं। इलियट की दृष्टि में कलाकृत्ति या कविता की एक जैव-सत्ता है। कविता के अंगों की छानबीन उसकी पारस्परिकता तथा अखण्डता की छानबीन होनी चाहिए। कविता का एक अपना स्वतंत्र जगत होता है।

2- निर्वैयक्तीकरण-प्रक्रिया कवि-कलाकार से भी संबंधित है-

कविता के साथ कवि के संबंध को समझाते हुए इलियट ने स्पष्ट कहा है कि कलाकार की प्रगति व्यक्तित्व के उत्सर्ग में है। इस आत्म-उत्सर्ग के द्वारा वह अपने लिए कए अद्वितीय स्थान अर्जित करता है। कलाकारों को जाने-अनजाने एक सामान्य उत्तराधिकार और सामान्य लक्ष्य, एक सूत्र में बाँध देता है। (सेलेक्टेड एस्से)

3- कलाकार की प्रगति निरन्तर आत्म-उत्सर्ग और व्यक्तित्व की मुक्ति में है-

इलियट ने कविता की सृजन-प्रक्रिया की क्रिया को एक रासायनिक क्रिया माना है। उनका कहना है कि आक्सीजन तथा सल्फर डाई-आक्साइड गैस से भरे हुए पात्र में यदि प्लेटिनम का एक टुकड़ा प्रविष्ट करा दिया जाए तो वे दोनो गैसें मिलकर सल्फ्रयूरस एसिड में परिवर्तित हो जाती है। किन्तु यह रासायनिक क्रिया तभी सम्पन्न होती है – जब पात्र में प्लेटिनम मौजूद हो, हालांकि बनने वाले अम्ल में प्लेटिनम का कोई अंश नहीं होता, न प्लेटिनम में किसी प्रकार का परिवर्तन ही दृष्टिगत होता है – वह अपरिवर्तित रहता है। इलियट के अनुसार कवि का मन भी प्लेटिनम की भाँति ही होता है। कवि मन भी किन्हीं विभिन्न अनुभूतियों का असर डाल कर उसके मिश्रण और संगम का माध्यम बनता है। उस संगम से एक कलावस्तु निर्मित होती है जो विभिन्न तत्वों का जोड़ भर नहीं है, उससे कुछ अधिक है, एक आत्यान्तिक एकता रखती है, और जो बिना कवि मानस के माध्यम के अस्तित्व नहीं प्राप्त कर सकती थी।

4- वस्तुमूलक प्रतिरुपता –

कविता की निर्वैयक्तिकता से संबंधित इलियट के ‘आब्जेक्टिव कोरिलेटिव’ वस्तुमूलक प्रतिरूपता के सिद्धांत ने विचारकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इलियट ने अपने निबंध ‘हैमलेट एंड हिज प्राब्लेम्स’ 1919 ई0 में कहा है – कलात्मक रूप से संवेगों को अभिव्यक्त करने का एकमात्र तरीका उनके साथ वस्तुमूलक प्रतिरूपता (ओब्जेक्टिव कोरिलेटिव) को खोज निकालना है। यह इस प्रकार से होगा कि इन्द्रियानुभूति में समाप्त होने वाले ये बाहरी तथ्य जब उपस्थित होंगे तो कत्काल संवेग उद्दीप्त होंगे। इस प्रकार से कवि जो कुछ कहाना चाहता है उसका बाहरी तथ्यों के रूप मं चित्रण किया जा सकता है और इन्हीं तथ्यों के सहारे पाठक उन संवेगों तक पहुँच सकता है।

5- विशिष्ट का सामान्य में परिवर्तन

टी0एस0 इलियट के अनुसार जब कवि पूरे आत्म-समर्पण के साथ काव्य-सृजन में प्रवृत होता है तब वह अपने मन के संचित अनुभवों को, मन की अत्यन्त जटिल भाव-ग्रंथियों को स्पष्ट और मूर्त अभिव्यक्ति देता है। यदि वह इस कार्य में सफलता पा जाता है तो उसका कविता मे र्वैयक्तिकता का दंश खत्म होकर निर्वैयक्तिकता की भूमि पर आ जाती है। जिसमें ‘विशिष्टता’ को हम ‘सामान्यता’ में प्रिवर्तित महसूस करते हैं।

6- विरुद्धों का सामंजस्य

कवि को कविता में यह यत्न भी करना होगा कि वह ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ स्थापित कर सकके। क्योंकि श्रेष्ठ कलाकृत्तियों से प्राप्त अनुभूति में प्रायः अनेक विरोधी युग्मों का सामंजस्य देखा जाता है। टी0एस0 इलियट ने विरोधों के सामंजस्य को ‘विट’ के अंतर्गत स्पष्ट करना चाहा है। ‘विट’ की व्याख्या करते हुए इलियट ने कहा – ‘विट’ के अंतर्गत प्रत्येक अनुभव की अभिव्यक्तियों में, विरोधी अनुभवों को आत्मसात करने की क्षमता विद्यमान रहती है। वह एक प्रकार का अभिज्ञान है जो अनुभव को उसके विरोधी तत्वों के सथ ग्रहण एवं अभिव्यक्त करता है। साथ ही सृजन क्षण में कवि ‘बिखरे अनुभवों का अनवरत मिश्रण’ करता चलता है।

7- सृजन-प्रक्रिया में प्रति समर्पण

टी0एस0 इलियट ने अनुसार निर्वैयक्तिकता की यह भूमि तभी प्रापत होती है जब कवि सृजन व्यापार के प्रति अपने को पूरी तरह से समर्पित कर देता है। कयोंकि कलावस्तु का निर्माण एकदम निजी अनुभूतियों के रासायनिक तत्वों से बनती है जिसमें कवि स्वयं तटस्थ अलग है। यहाँ कवि का मन एक ऐसी भट्ठी होता है जिसके ताप में पिघल कर विभिन्न वस्तुएँ, एकरस हो जाती हैं।

8- अतीत चेतना का विकास

सृजन-प्रक्रिया में समर्पण के क्षण को रचनाकार तब तक नहीं जान सकता है, जब-तक कि वह केवल वर्तमान के प्रति ही नहीं, बल्कि वर्तमान क्षण में भूतकाल के प्रति भी जागरुक न हो। कवि में ‘‘आग्रह इस बात का होना चाहिए कि कवि को अतीत की चेतना का विकास अथवा अर्जन करना चाहिए और फिर जीवन भर इस चेतना को निरंतर विकसित परिष्कृत-संशोधित करते रहना चाहिए।’’

9- काव्य-स्वरूप में व्यवस्था

काव्य-स्वरूप के अंतर्गत ही इलियट ने व्यवस्था (आर्डर) का सिद्धांत प्रस्तुत किया। व्यक्ति के विलोपन से कविता के संवेग, विचार, अनुभूति आदि में कलात्मक-व्यवस्था और संतुलन स्थापित होता है। इलियट ने कहा है – ‘‘श्रेष्ट कला इस अर्थ में निर्वैयक्तिक होती है कि उसमें व्यक्तिगत संवेग और व्यक्तिगत अनुभव विस्तृत होकर एक प्रकार की आत्मेत्तर पूर्णता को प्राप्त करते हैं।

10- काव्य-सृजन, चित की एकाग्रता और मन की ‘समाधि’ का सुफल है-

इलियट के शब्दों में काव्य ‘समाधिजन्य एकाग्रता और एकाग्रता से उत्पन्न नवीन वस्तु है।’ (दि सेक्रेड वुड)
वे यह भी कहते हैं कि ‘‘बहुत कम लोग जानते हैं कि महत्वपूर्ण संवेग की अभिव्यक्ति कब होती है – विशेषकर ऐसे संवेग की अभिव्यक्ति जो कविता में जीवंत होती है, कवि के वैयक्तिक जीवन-इतिहास में नहीं। कला का भाव निर्वैयक्तिक होता है।’’ (आइबिड)

11- काव्य शिल्प वस्तुगत मानदंडों के प्रकाश में निर्वैयक्तिकता होता है

कवि को अपने आसपास की जीवंत भाषा में से ही ध्वनियों, लयों, शब्दों के स्वर-माधुर्य का चयन ओर सामंजस्य करना चाहिए। इलियट मानते थे कि ‘‘अपनी कृत्ति की रचना में रचनाकार द्वारा लगाए गए श्रम का अधिकांश भाग आलोचनात्मक श्रम होता है, छाँट कर चयन, संयोजन, निर्माण, शुद्ध करन, बहिष्कार, परीक्षण करना, यह कठोर श्रम जितना सृजनात्मक है उतना ही आलोचनात्मक। (आइबिड)

निर्वैयक्तिक सिद्धोत की सीमाएँ

1- यदि वास्तविक भाव में अनुपस्थित अनुभूतियों को रचनाकार व्यक्त करता है, तब उसकी सृजनात्मक भूमिका और भी महत्वूपर्ण होनी चाहिए। परंतु ऐसा नहीं है। कारण यह कि रचनाकार अनुभव-क्षेत्र में कभी न आई जिन अनुभूतियों को व्यक्त करता है, वे उसकी अपनी हो ही नहीं सकती। तब वे कहाँ से आयी? इसका स्पष्ट उत्तर इलियट नहीं देते।

2- इसे विरोधाभास ही कहेंगे कि बृहत्तर मूल्य के समक्ष इलियट पहले व्यक्तिवाद का ख्ांडन करते जान पड़ते हैं, फिर रहस्यवाद को कला प्रक्रिया में उतारते हुए व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा भी कर देते हैं। किन्तु इन दोनों प्रक्रियाओं में कोई वास्तविक विरोध नहीं है।

3- वे एक ओर अपनी धार्मिक मान्यताओं के आधार प्र साहित्यिक मानदण्ड निर्मित करना चाहते हैं और दूसरी तरफ पूँजीवादी सभ्यता की असंगतियों का समाधान खोजने के क्रम में उन्हीं को आदर्शीकृत भी करते हैं।

4- इलियट के सादृश्य ने कला की प्रक्रिया को विज्ञान के निकट पहुँचाने की धुन में भ्रम के लिए गुंजाइशा उत्पन्न की है।

5- वे वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक के इस संबंध को धुंधला करके कला को पहले यथार्थ जगत से दूर ले जाते हैं, फिर उसे रहस्यवाद और धार्मिक स्फुरणा से जोड़ कर अतीतमुखी बनाते हैं।

6- इलियट अपने व्यक्तिवाद और धर्मवाद के मेल में कलाकार के सजीव अंतस् को निष्क्रिय, निर्जीव प्लेटिनम के तार में बदल देते हैं। इस तरह, वे कलाकार की भूमिका, उसकी सार्थकता और उसके अनुभव लोक को ही निरर्थक बना देते हैं। विज्ञान के उपयोग से घोर अवैज्ञानिक परिणाम निकालते हैं और मानववाद पर कुठाराघात करते हैं, वह अलग।

7- इलियट एक ओर हेनरी जेम्स की प्रशंसा करते हुए ‘राजनीतिक’ विचारों से दूषित साहित्य की भर्त्सना करते हैं और दूसी ओर खुद ही साहित्य को ईश्वर की सेवा में लगाने का प्रस्ताव करते हैं।

8- व्यक्तिवाद और मताग्रह की इसी भूमि से इलियट मानववाद काा विरोध करते हैं, काव्य, कला और मानववाद से ऊपर धर्म को प्रतिष्ठित करते हैं।

समग्रता में कह सकते हैं कि टी0एस0 इलियट का काव्य-सृजन से संबंधित निर्वैयक्तिकता सिद्धांत एक सृजनशील एवं गतिशील मूल्य-दृष्टि का सिद्धांत है। इस सिद्धांत मं ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ से एक नया संतुलन उत्पन्न हुआ है। कविता और आलोचना का इस्तेमाल सिखाने वाली पुस्तक में इलियट ने लिखा है ‘‘सुरचि सम्पन्न व्यक्तियों में प्रत्येक की रुचि कुछ-न-कुछ सनकपूर्ण होती है।’’ (द यूज ऑफ पोएट्री एंड द यूज ऑफ क्रिटिसिज्म) और इसमें संदेह नहीं कि इलियट एक अत्यंत सुरुचि-संपन्न व्यक्ति है।