पाश्चात्य काव्यशास्त्र » लोजाइनस

प्रश्न- लोजाइनस के उदात्त-विवेचन की प्रमुख विशेषताएँ उद्घाटित कीजिए।

उत्तर – पाश्चात्य साहित्य शास्त्र के इतिहास में प्लेटो और अरस्तू के बाद तीसरा महत्वपूर्ण नाम लोजाइनस का है जिनका ग्रन्थ ‘पेरिइप्सुस’ अर्थात् ‘उदात के विषय में’ अरस्तू के काव्यशास्त्र के समान ही पाश्चात्य साहित्यशास्त्र का मूलाधार माना जाता है। ‘पेरिइप्सुस’ का रचियता लोंगिनुस कोई अज्ञातनाम ग्रीक लेखक है जो ईसा की पहली सदी में रोम में निवास करता था। प्रो0 जे0 डब्ल्यू0 एच0 एटकिन्स भी इस मत के समर्थक हैं और अब पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के इतिहास-ग्रंथों में यही मत प्रतिष्ठित हो चला है।

पेरिइप्सुस का आधार –

‘पेरिइप्सुस’ अपने वर्तमान अपूर्ण और खंडित रूप में एक छोटी-सी कृति है जो छोटे-छोटे 44 अध्यायों या अनुच्छेदों में विभक्त हैं। ‘पेरिइप्सुस’ का लोगिसुस एक ऐसा ग्रीक युवक है जिसका चित ग्रीक संस्कृति और साहित्य के बीते हुए स्वर्णयुग के गौरव से पूर्णतः आप्लावित है। वह विशेष रूप से प्रभावित है प्लेटो से – प्लेटो की तर्क शक्ति से उतना हीं जितना उसकी काव्यात्मक उड़ान और ऊँची आदर्शवादिता से। उसके मन में अपने पतनशील युग के लिए गहरी वेदना है और उस पतनशील युग के ओछे और आडम्बरपूर्ण वक्ताओं, आलंकारिकों तथा कवियों के प्रति चरम विरक्ति है। वह अपने युग की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों का भरसक अतिक्रमण करने के लिए व्याकुल दिखाई पड़ता है।

उदात्त – ‘पेरिइप्सुस’ में ‘उदात्त’ की कोई परिभाषा इकट्ठा एक जगह नहीं की गई है। उदात्त के संबंध में लोंगिनुस सामान्यतः इतना ही कहता है कि ‘वह वाणी का ऐसा वैशिष्ट्य और चरमोत्कर्ष है जिससे महान कवियों और इतिहासकारों को जीवन में प्रतिष्ठा और अमर यश मिला है।’’ और ‘‘उसका प्रभाव श्रोताओं पर अनुनयन के रूप में नहीं बल्कि आत्मातिक्रमण के रूप में होता है।’’

लोगिनुस ने स्पष्ट किया है कि उदात्त काव्य में अनेक तत्वों के सामंजस्य से उत्पन्न होता है किंतु उन तत्वों को अलग-अलग उदात्त की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

उदात्त के स्रोत या विशेषताएँ

उदात्त के स्रोतों का निर्देश लोगिनुस की अपनी समझ में उसकी मौलिक देन है। लोंगिनुस ने उदात्त के पाँच स्रोत माने हैं –

1- महान और पुष्ट विचारों के धारण की क्षमता।
2- प्रबल भावावेग की प्रेरणा।
3- अलंकारों की समुचित योजना।
4- अभिजात पद रचना।
5- गरिमा और ऊँचाई का समग्र प्रभाव।

1- महान और पुष्ट विचारों के धारण की क्षमता – इसे लोंगिनुस सर्वोपरि महत्व देता था। महान धारणाओं की क्षमता से लोंगिनुस का तात्पर्य था – तेजस्वी प्रसंगों की पकड़ और उनके मूल में निहित का उद्घाटन। लोगिनुस तेज के अभाव में भव्यता (ग्रेंजर) की कल्पना तो करता है, औदात्य की नहीं।

2- प्रबल भावावेश की प्रेरणा – लोंगिनुस ने पूरे विश्वास से कहा है कि ‘भव्यता के लिए उचित प्रसंग में सच्चे भाव से बढ़कर साधक कुछ और कुछ और नहीं होता। किंतु वह संवेग और औदात्य में नित्य संबंध नहीं मानता। वह कुछ संवेगों को क्षुद्र एवं अनुदात्त मानता है तथा कुछ उदात्त अंशों को संवेगहीन। उसने उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि न तो उदात्त प्रसंगों का संवेगपूर्ण होना अनिवार्य है और न प्रत्येक संवेगपूर्ण प्रसंग का उदात्त होना।

3- अलंकारों की समुचित योजना – लोंगिनुस ने इसका विवेचन 16वें से 29 वें अध्याय तक किया है। लोंगिनुस की विशिष्टता इस बात में है कि विवेचन के लिए वह केवल उन्हीं अलंकारों का चुनाव करता है जो किसी न किसी रूप में उदात्त प्रभाव की सृष्टि में सहायक होते हैं। विस्तारणा अलंकार के संदर्भ में उसने स्पष्ट कहा है कि ‘औदात्य के बिना इन पद्धतियों में से कोई स्वतः सम्पूर्ण नहीं होती’। (अध्याय -16)

लोंगिनुस के अनुसार अलंकार के प्रयोग की पहली शर्त है औचित्य या प्रसंगानुकूलता। यानी अलंकार के प्रयोग के पीछे परिस्थिति या संवेग का अनुरोध होना चाहिए। अलंकारों के प्रयोग में अतिरंजना का लोभ अनौचित्य की एक अत्यनत स्वाभाविक दिशा है। साथ ही, वह ‘उदात्त’ और ‘अलंकार’ के बीच परस्परावलंबन का संबंध निरूपित करता है। अर्थात् एक ओर संवेगों से अलंकारों के प्रयोग में स्वाभाविता, सहजता आती है और दूसरी ओर अलंकारों के प्रयोग से अभिव्यक्ति में श्री और शक्ति आती है।

4- अभिजात पद रचना – इस प्रसंग में अभिजात से लोंगिनुस का अभिप्राय उदात्त से ही है। शब्दावली के तनाव में भी लाेंगिनुस ने उपयुक्तता तथा विचार और पद-रचना की परस्पर निर्भरता पर बल दिया है। उदात्त का आधार है विषयानुकूलता, सज्जा और अलंकरण नहीं। इसलिए प्रसंगोचित होने पर ‘ग्राम्य उक्ति कभी-कभी सुरुचिपूर्ण भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावशाल होती है। (अध्याय – 31)

5- गरिमा और ऊँचाई का समग्र प्रभाव – इस संदर्भ में लोंगिनुस ने विशेषकर शब्द, लय और उसके प्रभाव पर विचार किया है। शब्दगत लय का संबंध लोंगिनुस मानव-प्रकृति में अंतर्निहित संवेगों से मानता है। किंतु जिस प्रकार वह अलंकारों के अतिरंजित प्रयोग को उदात्त के लिए घातक मानता है, उसी प्रकार अतिलयात्मक प्रसंगों को भी। एक ओर ‘उदात्त अनुच्छेद के लिए दुर्बल और छिन्न-भिन्न लय से अधिक घातक वस्तु दूसरी नहीं होती।’ दूसरी ओर सभी ‘अतिलयात्मक अनुच्छेद तुरन्त ही सज्जित मात्र और सस्ते लगने लगते हैं।’ (अध्याय -2)

उदात्त का महत्व –

1- लोंगिनुस का उदात्त उस बुनियादी विराटता पर आधारित है जिसमें मनुष्य और प्रकृति दोनाें ही युगपत भाव से हिस्सा लेते हैैं। इस विराट भावना को लोंगिनुस ‘प्रबल भव्यता’ अथवा ‘प्रबल उदात्त’ की संज्ञा देता है।

2- लोंगिनुस ने ‘आनन्द की चर्चा उदात्त काव्य के संदर्भ में की है। जो कृति-पक्ष में उदात्त है वही श्रोता पक्ष में ‘आनन्द’ है।

3- कवि प्रतिभा को उदात्त की सृष्टि में प्रमुखता देकर लोंगिनुस ने कवि को काव्य के काव्य-चिंतन के केन्द्र में प्रतिष्ठित किया। लोंगिनुस ने यह कहकर कि ‘औदात्य महान आत्मा की प्रतिध्वनि’ है कविता के मूल उत्स को स्वयं मानव आत्मा में अवस्थित किया।

4- लोंगिनुस ने कला की उपेक्षा नहीं की किंतु उसे गौण से अधिक महत्व भी नहीं दिया। इस दृष्टि से उसका यह कथन दृष्ट्व्य है ‘सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि निर्दोषता का गुण कला से आता है और उत्कर्ष की चरम सीमा प्रतिभा से प्राप्त होती है, अतः उचित यही है कि कला सदा प्रकृति की सहायक हो।’ (अध्याय 36)

स्वयं लोंगिनुस ने उदात्त का महत्व स्वीकार करते हुए लिखा – ‘‘जिस प्रकार सूर्य के प्रखर आलोक में सभी मंद दीपक बुझ जाते हैं, उसी प्रकार ‘उदात्त’ के सर्वव्यापी ऐश्वर्य में नहाकर सभी आलंकारिक चमत्कार दृष्टि से ओझल हो जाते हैं।’’

निष्कर्ष रूप में, उदात्त को लोंगिनुस ने एक ऐसी गुणात्मक सत्ता के रूप में देखा है जो खंड रूप में कृति के विभिन्न तत्वों में और अखंड रूप में संपूर्ण कृति में व्याप्त रहती है। लोंगिनुस अपने उदात्त नैतिक बोध, सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और मौलिक चिंतन के कारण साहित्यशास्त्र के इतिहास में विशिष्ट महत्व के अधिकारी हैं। उनकी इस विशिष्टता का सबसे बड़ा कारण यह है कि रोमांटिक और गैर-रोमांटिक परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों के लेखक उनसे एक साथ प्रेरणा ग्रहण करते हैं।