भारतीय काव्यशास्त्र » वक्रोक्ति सिद्धांत

वक्रोक्ति सिद्धांत के प्रवर्तक कुन्तक हैं। कुन्तक के अनुसार ‘वैदग्ध्य-भंगी-भणिति’ को वक्रोक्ति कहते हैं। अर्थात् कवि-कर्म-कौशल से उत्पन्न वैचि=यपूर्ण कथन वक्रोक्ति है। दूसरे शब्दों में, जो काव्य-तत्व किसी कथम में लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न कर दे, उसका नाम वक्रोक्ति है। कुन्तक ने अपने ग्रंथ वक्रोक्तिजीवित में वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा कहा है – वक्रोक्ति: काव्यजीवितम्

वक्रोक्ति के भेद

(क) वर्णविन्यासवक्रता

(ख) पदपूर्वार्धवक्रता

  1. रूढि-वैचित्र्य-वक्रता
  2. पर्यायवक्रता
  3. उपचार-वक्रता
  4. विशेषण-वक्रता
  5. संवृति-वक्रता
  6. प्रत्यय-वक्रता
  7. आगम-वक्रता
  8. वृत्ति-वक्रता
  9. भाव-वक्रता
  10. लिंग-वक्रता
  11. क्रियावैचित्र्यवक्रता

(ग) पदपरार्धवक्रत

  1. काल-वक्रता
  2. कारक-वक्रता
  3. संख्या-वक्रता
  4. पुरुष-वक्रता
  5. उपग्रह-वक्रता
  6. प्रत्यय-वक्रता या प्रत्यमाला-वक्रता
  7. निपात-वक्रता

(घ) वाक्यवक्रता

  1. पहली वस्तु-वक्रता
  2. दूसरी वस्तु-वक्रता

(ड-) प्रकरणवक्रता

  1. पात्र-प्रवृत्ति-वक्रता
  2. उत्पाद्य कथा-वक्र
  3. उपकार्योकारक-भाव-वक्रता
  4. आवृति-वक्रता
  5. प्रासंगिक प्रकरण-वक्रता
  6. प्रकरण-रस-वक्रता
  7. अवान्तर-वस्तु वक्रता
  8. नाटकान्तर्गत नाटक-वक्रता
  9. मुखसंध्यादि-विनिवेश-वक्रता

(च) प्रबंधवक्रता

  1. मूलरस-परिवर्तन
  2. विशेष प्रकरण पर कथा-समाप्ति
  3. कथा-विच्छेद
  4. नायक द्वारा अनेक आनुषंगिक फलों की प्राप्ति
  5. प्रधान कथा का द्यातक नाम
  6. कथा-साम्य